मेरे इस ब्लॉग का उद्देश्य =

मेरे इस ब्लॉग का प्रमुख उद्देश्य सकारात्मकता को बढ़ावा देना हैं। मैं चाहे जिस मर्ज़ी मुद्दे पर लिखू, उसमे कही ना कही-कोई ना कोई सकारात्मक पहलु अवश्य होता हैं। चाहे वह स्थानीय मुद्दा हो या राष्ट्रीय मुद्दा, सरकारी मुद्दा हो या निजी मुद्दा, सामाजिक मुद्दा हो या व्यक्तिगत मुद्दा। चाहे जो भी-जैसा भी मुद्दा हो, हर बात में सकारात्मकता का पुट जरूर होता हैं। मेरे इस ब्लॉग में आपको कही भी नकारात्मक बात-भाव खोजने पर भी नहीं मिलेगा। चाहे वह शोषण हो या अत्याचार, भ्रष्टाचार-रिश्वतखोरी हो या अन्याय, कोई भी समस्या-परेशानी हो। मेरे इस ब्लॉग में हर बात-चीज़ का विश्लेषण-हल पूर्णरूपेण सकारात्मकता के साथ निकाला गया हैं। निष्पक्षता, सच्चाई, और ईमानदारी, मेरे इस ब्लॉग की खासियत हैं। बिना डर के, निसंकोच भाव से, खरी बात कही (लिखी) मिलेगी आपको मेरे इस ब्लॉग में। कोई भी-एक भी ऐसा मुद्दा नहीं हैं, जो मैंने ना उठाये हो। मैंने हरेक मुद्दे को, हर तरह के, हर किस्म के मुद्दों को उठाने का हर संभव प्रयास किया हैं। सकारात्मक ढंग से अभी तक हर तरह के मुद्दे मैंने उठाये हैं। जो भी हो-जैसा भी हो-जितना भी हो, सिर्फ सकारात्मक ढंग से ही अपनी बात कहना मेरे इस ब्लॉग की विशेषता हैं।
किसी को सुनाने या भावनाओं को ठेस पहुंचाने के लिए मैंने यह ब्लॉग लेखन-शुरू नहीं किया हैं। मैं अपने इस ब्लॉग के माध्यम से पीडितो की-शोषितों की-दीन दुखियों की आवाज़ पूर्ण-रूपेण सकारात्मकता के साथ प्रभावी ढंग से उठाना (बुलंद करना) चाहता हूँ। जिनकी कोई नहीं सुनता, जिन्हें कोई नहीं समझता, जो समाज की मुख्यधारा में शामिल नहीं हैं, जो अकेलेपन-एकाकीपन से झूझते हैं, रोते-कल्पते हुए आंसू बहाते हैं, उन्हें मैं इस ब्लॉग के माध्यम से सकारात्मक मंच मुहैया कराना चाहता हूँ। मैं अपने इस ब्लॉग के माध्यम से उनकी बातों को, उनकी समस्याओं को, उनकी भावनाओं को, उनके ज़ज्बातों को, उनकी तकलीफों को सकारात्मक ढंग से, दुनिया के सामने पेश करना चाहता हूँ।
मेरे इस ब्लॉग का एकमात्र उद्देश्य, एक मात्र लक्ष्य, और एक मात्र आधार सिर्फ और सिर्फ सकारात्मकता ही हैं। हर चीज़-बात-मुद्दे में सकारात्मकता ही हैं, नकारात्मकता का तो कही नामोनिशान भी नहीं हैं। इसीलिए मेरे इस ब्लॉग की पंचलाइन (टैगलाइन) ही हैं = "एक सशक्त-कदम सकारात्मकता की ओर..............." क्यूँ हैं ना??, अगर नहीं पता तो कृपया ज़रा नीचे ब्लॉग पढ़िए, ज्वाइन कीजिये, और कमेन्ट जरूर कीजिये, ताकि मुझे मेरी मेहनत-काम की रिपोर्ट मिल सके। मेरे ब्लॉग पर आने के लिए आप सभी पाठको को बहुत-बहुत हार्दिक धन्यवाद, कृपया अपने दोस्तों व अन्यो को भी इस सकारात्मकता से भरे ब्लॉग के बारे में अवश्य बताये। पुन: धन्यवाद।

Wednesday, April 28, 2010

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कब बनेगा पूरा देश महाराष्ट्र??

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अरे नहीं-नहीं आप कुछ और ना समझिएगा। मैं कोई गलत बात नहीं कह रहा हूँ। मैं ठाकरे वाले गुंडों (राज-उद्घव-या बाल ठाकरे) वाले महाराष्ट्र की बात नहीं कह रहा हूँ, मैं तो उस राष्ट्र की बात कह रहा हूँ जोकि देश कभी था।

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आज़ादी से पहले या यूँ कहिये अंग्रेजो का राज आने से पहले देश बहुत समृद्ध था, यहाँ के लोग, यहाँ की संस्कृति, यहाँ का रहन-सहन, यहाँ की बोली-चाली, आदि सब समृद्ध थे। लेकिन आज देश का दुर्भाग्य देखिये, देश कहीं से भी समृद्ध नहीं हैं।

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ना लोगो के पास पहले जैसी धन-दौलत, संपत्ति हैं, ना लोगो की बोली-भाषा में वो मिठास रही हैं, नाही लोगो में आपसी प्रेम-प्यार, भाईचारा शेष रहा हैं। और तो और जिन अंग्रेजो से देश को मुक्त कराने के लिए देश के लाखो लोगो-स्वतन्त्रता सेनानियों-और हमारे पूर्वजो ने अपना रक्त बहाया, उन्ही अंग्रेजो की संस्कृति (पश्चिमी संस्कृति जैसे-पहनावा, अंग्रेजी भाषा) को आज हम आत्मसात कर रहे हैं, लिहाजा देश की संस्कृति भी अब वो नहीं रही।

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किसी समय मेहनती लोगो की कर्मभूमि मानी जाने वाली भारत भूमि अब आलसी लोगो की भूमि बनकर रह गयी हैं। आलस भरा-मेहनत से दूर हो गयी हैं हमारी ज़िन्दगी, आज सब कुछ बदल गया हैं। हमारे आज़ादी के दिवानो और नेताओं ने कम से कम ऐसे देश की कल्पना तो नहीं की होगी जहां गरीबी, भूखमरी, अकाल, रिश्वत-घूसखोरी, भरष्टाचार, चोरी चकारी, डकैती, ह्त्या, बलात्कार, लूटपाट, दंगे फसाद, आतंकवाद, नक्सलवाद, जातिवाद, धर्मवाद, अलगाववाद, आदि का बोलबाला हो।

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अभी भी समय हैं संभल जाइए, कुछ कीजिये, देश की तस्वीर बदलने की कोशिश कीजिये। देर जरूर हो गयी हैं लेकिन इतनी भी नहीं कि कुछ किया ही ना जा सके। कुछ कीजिये, कुछ सार्थक कीजिये, कुछ भी कीजिये पर यूँ हाथ पर हाथ रखकर ना बैठिये। कुछ ऐसा कीजिये कि-"देश में खुशहाली, सुख-समृद्धि, आपसी प्रेम-प्यार, भाईचारा, और सोने की चिड़िया, आदि जैसा वातावरण पुन: तैयार हो जाए।"

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फिलहाल सबसे बड़ा सवाल यही हैं कि--"कब बनेगा पूरा देश महाराष्ट्र??"

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CHANDER KUMAR SONI,

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Thursday, April 22, 2010

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खाप को मारो थाप।

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आये दिन खाप / जातीय पंचायतो के क्रूर और उलटे-सीधे फैसलों को सुन-सुन कर मेरे कान पक गए हैं। ऐसे नरकगामी, आदिम जमाने के फैसले सिर्फ और सिर्फ खाप पंचायते ही करती हैं। कथित रूप से अपनी इज्ज़त, मान-सम्मान को बचाने के नाम पर किसी कि भी कि जान लेने का हुक्म सुना देना, तो मानो इनके बाएं हाथ का खेल हो।

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हालांकि इसी मुद्दे को लेकर मैंने "ऑनर किलिंग" शीर्षक से एक लेख पहले (पिछले साल आठ नवम्बर को) भी लिखा था। अब फिर मुझे खाप पंचायतो के लगातार आ रहे दुस्साहसी फैसलों से इसी मुद्दे पर पुन: लिखना पड़ रहा हैं। हाल ही में हरियाणा की खाप (जातीय) पंचायतो के एक क्रूर फैसले, जिसमे प्रेमी-प्रेमिका के एक ही जाति में होने के कारण उनकी ह्त्या कर डालने का फरमान सुना दिया गया था। अक्सर कथित रूप से अपनी इज्ज़त को बचाने या अपनी झूठी आन-बान-शान को बरकरार रखने के नाम पर ऐसे कलयुगी, अमानवीय, और अमानुषिक फैसले सुना दिए जाते हैं।

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ये खाप / जातीय पंचायते मुख्यत: हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, और बिहार में कार्यरत हैं। ये बहुत ही दुःख कि बात हैं कि-"पंच-सरपंच को परमेश्वर का दर्ज़ा दिया जाता हैं, इन कथित पंच परमेश्वरो के फैसलों को सर-आँखों पर लिया जाता हैं। और जब यही पंच (परमेश्वर) ऐसे क्रूर फैसले लेते हैं तो दुःख होता हैं।

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*(मेरा मन खट्टा हो चुका हैं, इसलिए मैं आज इस बारे में ज्यादा विस्तार से नहीं लिख सकूंगा। मैं इसके लिए आप सभी ब्लॉग पाठको से माफ़ी चाहता हूँ। कृपया इसी ज्वलंत-मुद्दे से मिलते-जुलते एक और पोस्ट को पढने का कष्ट करे। आठ नवम्बर, 2009 को लिखे गए "ऑनर किलिंग" नामक पोस्ट को अवश्य पढ़े।)*

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धन्यवाद।

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Friday, April 16, 2010

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सुधरने का मौक़ा तो दीजिये।

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जी हाँ, मैं यही कह रहा हूँ, जो आपने शीर्षक में पढ़ा हैं। अव्वल तो कोई सुधरना या अपनी गलती मानना ही नहीं चाहता, और ऊपर से हम आमतौर पर सुधरने का मौक़ा किसी को देते ही नहीं हैं। मेरी बात कडवी या चुभने वाली जरूर हैं, लेकिन हैं सौलह आने सच।

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पहली बात तो आज के ज़माने में, आज के घोर कल्युग में कोई सुधरना ही नहीं चाहता और भुला-भटका कोई सुधरना चाहे तो हम उसे सुधरने नहीं देते। उसको राह दिखाने या उसका हौसला बढाने की बजाय पुराना ही याद दिलाते रहते हैं। यह बहुत ही गलत प्रवृति हैं, जिससे हमें यथासंभव बचना चाहिए।

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उदाहरण के तौर पर--कोई चोरी-चकारी करने का आदी हो और वह सुधरना या बुरी आदत छोड़ना चाहे तो हम उसे एक मौक़ा देने की बजाय सुनाते रहते हैं। यह उदाहरण जो मैंने दिया हैं, कोई ख़ास या बड़ा उदाहरण नहीं हैं, लेकिन आम-सामान्य उदाहरण जरूर हैं, जिसकी तरफ शायद ही हमने ध्यान दिया हो।

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बहुत से मामलो में तो ऐसा लगता हैं मानो लोगो ने तो जैसे शपथ ही ले ली हो कि-"किसी को सुधरने ही ना देना हो या सुधार के सारे रास्ते बन्द कर देने हो।" ये बहुत बड़ा दुर्भाग्य हैं। मसलन, जैसे किसी को अंट-शंट, उलटी-सीधी गालियाँ बकने का शौक / आदत हो और वह स्वप्रेरणा या किसी की समझाइश पर बुरी आदत को त्यागना भी चाहे तो भी ना त्याग सके। वजह.....हम उसे ऐसा करने ही नहीं देंगे। जानबूझकर उसे गालियाँ सुनायेंगे, उसे उकसाने की हाड-तोड़ मेहनत करेंगे, उसे उसका अतीत याद दिलाएंगे, तब तक-जब तक वो वापस पुराने रास्ते (गालियाँ देने) को नहीं अपना लेता। और ऐसा करके हम मानो कोई एवरेस्ट की ऊँची चोटी को छू लेते हैं।

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किसी को बार-बार सुनाना, किसी को बार-बार उसके बीते कल के बारे में बताना, या उसे ये कहना-"अब क्या हो गया तुझे??, पहले तो बहुत उछला करता था।", आदि-आदि बहुत ही निंदनीय हैं। उसे बार-बार हतोत्साहित करने का अर्थ हैं, उसके लिए सुधार का मार्ग अवरुद्ध करना। हमें उसका हौसला बढ़ाना चाहिए, उसको सुधरने के लिए प्रेरित करना चाहिए, उसे सुधरने के विभिन्न मार्ग-उपाय सुझाने चाहिए।

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जबकि हम इसके ठीक उलट करते हैं, जिसके नतीजे भी उलट ही आते हैं। समाज में बढ़ते अपराधो के लिए हम खुद ही ज़िम्मेदार हैं, कोई दुर्लभ से दुर्लभतम मामलो में कोई व्यक्ति-गुनाहगार सुधरने के लिए भुला-भटका आ भी जाए तो हम ही उसके सुधार की राह में रोड़े अटकाने लगते हैं। याद रखिये, ये वक़्त बहुत ही नाज़ुक होता हैं। ऐसे वक़्त में कड़े संयम की आवश्यकता होती हैं। बैर-भाव, गलतियों-भूलो, को भुलाकर उसे माफ़ी ना सही, पर सुधरने का मौक़ा तो देना ही चाहिए।

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ये हम सब की जिम्मेदारी हैं। ऐसा करके हम ना सिर्फ समाज से अपराधो को हटा पायेंगे, बल्कि भावी (भविष्य के) अपराधियों के लिए भी सुधार का मार्ग प्रशस्त कर सकेंगे। जब हम आज के-मौजूदा अपराधियों को सुधरने की राह दिखाएँगे, तो निश्चित रूप से हम भावी पीढ़ी के अपराधियों को भी अच्छे संस्कार दे सकेंगे।

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तो फिर आज से हम पुराना याद नहीं दिलाएंगे, राह दिखाएँगे, उत्साह बढ़ाएंगे, और सुधरने का एक मौक़ा तो अवश्य देंगे, ठीक हैं ना????

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धन्यवाद।

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Saturday, April 10, 2010

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सदैव सरकार ही निशाने पर क्यों???

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मुझे एक बात समझ में नहीं आती है कि-"हमेशा सरकार या सरकारी संस्थान ही निशाने पर क्यों रहते हैं??, प्राइवेट या निजी संस्थान/कम्पनियां निशाने पर क्यों नहीं होती हैं??" सरकार, सरकारी संस्थान, या सरकारी कम्पनियां अगर मामूली भूल भी करदे तो लोग उसे गालियाँ देने लगते हैं, लेकिन अगर किसी निजी कंपनी की बड़ी (सरकारी की तुलना में) भूल भी हो जाए तो लोग उसे बड़ी ही आसानी से नज़र-अंदाज़ कर जाते हैं। मानो, ये उसकी पहली गलती हो।

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हम क्यों ऐसा करते हैं?? क्या मिल जाता हैं हमें ऐसा करके?? किसी भी क्षेत्र में, किसी भी मामले में हम निजी को पाक-साफ़ समझते हैं, लेकिन सरकारी को हम घटिया, गिरा हुआ, और बेकार समझते हैं। इस तरह बिना पूरी बात-मुद्दे को जाने किसी (सरकार-सरकारी) के बारे में पूर्वानुमान लगाना क्या उचित हैं?? मैं किसी भी सरकारी पद या नौकरी पर नहीं हूँ और नाही मैं निजी की तुलना में सरकारी को बढ़िया-उच्च स्तरीय मानता हूँ। में तो आम लोगो से इस तरह का भेदभाव समाप्त करने की अपील कर रहा हूँ।

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मैं आपको कुछ उदाहरण देना चाहूँगा, जिससे ये साफ़ हो जाएगा कि-"निजी कम्पनियां दूध से धुली नहीं हैं, और कई मामलो में सरकारी से भी बदतर हैं।"

1. पिछले साल मुझे दिल्ली से बैंगलौर सुबह की फ्लाईट से जाना था। आप मानेंगे नहीं उस दिन ना तो कोई तूफ़ान आया था, ना बरसात हुई थी, और नाही कुछ ऐसा हुआ था, जिसकी वजेह से फ्लाईट के लेट होने को जायज़ ठहराया जा सके। वो फ्लाईट जो सुबह नौ बजे की थी, उसकी उड़ान सुबह पौने बारह बजे हुई। इतना ही नहीं, चार दिन बाद मुझे वापस दिल्ली लौटना था। इस बार भी मैं दूसरी निजी (जाने वाली से अलग फ्लाईट) फ्लाईट में सवार था। मुझे रात साढ़े नौ बजे दिल्ली पहुँच जाना था, और मैं पहुंचा रात ग्यारह बजे। अब इसे आप क्या कहेंगे??? दोनों ही बार किसी भी अखबार या खबरिया चैनल में इन फ्लाइटो के लेट होने की सूचना नहीं थी। जबकि, सरकारी विमानन सेवा दस मिनट भी लेट हो जाए तो हल्ला मच जाता हैं।

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2. यही हाल, मोबाइलों का भी हैं। सरकारी मोबिलिटी सेवा प्रदाता के मोबाइल में बात बीच में कट जाए या फोन ना मिले तो लोग कोसने लगते हैं। जबकि, निजी मोबिलिटी सेवा प्रदाता के मोबाईल में ऐसा हो तो लोग नज़रंदाज़ कर देते हैं। निजी मोबिलिटी सेवा का नेटवर्क पुरे दिन ना आये तो मामूली आह से काम चल जाता हैं, लेकिन यही अगर सरकारी हो तो लोगो की तो जैसे मौत आ जाती हैं। जब सभी निजी कंपनियों की शुरूआती कॉल दर दो रूपए होती थी, तब इस सरकारी कंपनी की कॉल दर मात्र नब्बे पैसे होती थी। जब बाकी निजी कंपनी एक रुपया प्रति एसएमएस काटती थी, तब ये सरकारी मोबिलिटी कंपनी मात्र साठ पैसा ही काटती थी। बेशक आज सभी की एकसमान दर हो, लेकिन इस सरकारी कंपनी के योगदान को नहीं भुला जा सकता। इंटरनेट और लैंडलाइन फोन के मामले में तो इसका मुकाबला हैं ही नहीं।

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3. बैंको को भी क्यूँ भूल रहे हैं आप?? निजी बैंक जहां भारी जुर्माना-चार्ज लगाते हैं वही सरकारी बैंक नाममात्र जुर्माना-शुल्क लगाती हैं। आम आदमी या गरीब आदमी को रियायती दरो पर क़र्ज़ भी सरकारी बैंको से ही मिल सकता हैं नाकि निजी बैंको से। नियम व शर्तो के मकड़जाल में निजी बैंक ही ज्यादा उलझाते हैं। लोन (क़र्ज़) की मंजूरी कराने के लिए बैंको के अधिकारी-मैनेज़र को घूस खिलानी पड़ती हैं। निजी बैंको में सरकारी बैंको से ज्यादा पैसा ऐंठा जाता हैं। बेशक, निजी बैंको में ऐसा सरकारी बैंको की तुलना में कम होता हो, लेकिन होता जरूर हैं। और निजी बैंको में रिश्वत-घूस-पैसा भी ज्यादा लिया जाता हैं। निजी बैंक दूध से धुले नहीं हैं। इतना ही नहीं, देश के शीर्ष बैंक (रिज़र्व बैंक) के पास आम धारणा के विपरीत सरकारी बैंको की तुलना में निजी बैंको की ज्यादा शिकायते आती हैं। ज्यादातर ये शिकायते गलत-नाहक खर्च जोड़ना, बताये गए से ज्यादा ब्याज दर पर जुर्माना लगाना, क्रेडिट कार्ड की गलत एकाउंट स्टेटमेंट देना, आदि से सम्बंधित होती हैं।

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4. अब आते हैं शिक्षा के मुद्दे पर। सुख-सुविधा और पढ़ाई-लिखाई के स्तर में निजी स्कूल-कॉलेज भले ही आगे हो, लेकिन उन निजी स्कूल-कॉलेजो पर नियंत्रण तो सरकार के अन्डर में ही हैं। दूसरी बात, निजी स्कूल-कॉलेज अनाप-शनाप पैसा (ड़ोनेशन की आड़ में) वसूलते हैं। सुख-सुविधा वे भले ही ज्यादा देते हो, लेकिन कम-से-कम सरकारी स्कूल-कॉलेजो की तरह लूटते तो नहीं। कभी युनिफोर्म के नाम पर, तो कभी मनमर्जी (जोकि जरुरी ना हो, पाठ्यकर्मो से अलग) की किताबो-पुस्तकों के नाम पर, कभी अन्य गतिविधियों (चित्रकला-खेलकूद, आदि) के नाम पर। आये दिन नन्हे-मुन्हे बच्चो के अभिभावकों की जेब काटते रहते हैं, और बेचारे माता-पिता अपनी संतानों के भविष्य संवारने की खातिर लुटते रहते हैं। सुख-सुविधा और पढ़ाई के स्तर में निजी स्कूल भले ही आगे हो, लेकिन सरकारी स्कूल-कॉलेजो का कोई मुकाबला नहीं हैं। अभी तक कोई ऐसा निष्कर्ष नहीं आया हैं जो सरकारी स्कूल-कॉलेज में पढ़े बच्चो को पिछड़ा या निम्न साबित कर सके। केंद्रीय विद्यालय, आईआईटी, आईआईएम, और आईआईएस का क्या कोई मुकाबला हैं??? शुरूआती (स्कूल-कॉलेज की) पढ़ाई पूरी कर लेने के बाद हर छात्र सरकारी संस्थान में जाना चाहता हैं, क्योंकि निजी आगे की पढ़ाई के लिए कोई बेहतरीन (सरकारी से ज्यादा) संस्थान नहीं हैं। रही बात परीक्षा में नक़ल कराने या निकम्मे को भी पास करा देने की बात। तो में बता दूं कि-"पहली बात तो ऐसा होता नहीं, दूसरी बात हर जगह ऐसा नहीं होता, तीसरी बात अगर होता भी हैं, तो बहुत ही दुर्लभ मामलो में। और चौथी और महत्तवपूर्ण बात--सरकारी संस्थानों में नक़ल कराकर पास कराया जाता हैं तो निजी संस्थानों में गुपचुप पैसा लेकर नंबर बढाए जाते हैं। नक़ल कराने और नम्बर बढाने, दोनों ही मामलो में पैसा ऐंठा जाता हैं। बस फर्क ये हैं कि-निजी संस्थानों में पैसा ज्यादा बेदर्दी से मारा जाता हैं।" यानी गलत कार्यो में भी सरकारी ही "बेहतर यानी सस्ता" हैं।

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अपनी मानसिकता को बदलिए। सरकारी और निजी स्कूल-कॉलेजो, संस्थानों, कंपनियों में फर्क ना कीजिये। सब को एक जैसा मत मानिए तो किसी एक (सरकारी या निजी) को सही या गलत भी ना मानिए। गलत कार्य-गलतियां-और भूले आपको दोनों की नज़र आनी चाहिए, नाकि किसी एक की। हम सबको एक पलड़े में नहीं तौल सकते लेकिन पूर्वानुमान को तो दिमाग से निकाल ही सकते हैं। अब तो आप सबको मेरा ये लेख लिखने का मतलब-उद्देश्य तो समझ में आ ही गया होगा। उम्मीद हैं, आप मेरे द्वारा दिए गए उपरोक्त कुछ सच्चे-उदाहरणों को पढ़कर मेरी नसीहतो का पालन करेंगे।

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नोट = गोपनीयता का सम्मान करते हुए सभी सरकारी-गैर सरकारी-निजी स्कूल-कॉलेजो, संगठनो, संस्थानों, और कंपनियों के नाम नहीं दिए गए हैं।

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धन्यवाद।

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Sunday, April 04, 2010

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कैसे मित्र हैं आपके????

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मित्र यानी दोस्त, और दोस्त यानी आपके सुख-दुःख के साथी। ये एक सिंपल, सीधी-स्पष्ट व्याख्या हैं दोस्त की। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैं, समाज के बिना मनुष्य का अस्तित्व ही नहीं हैं। अपने, और अपने परिवार के साथ-साथ मनुष्य को बाहरी लोगो की भी जरूरत होती हैं। यथा अड़ोसी-पडोसी, यार-दोस्त, सहपाठी-सहकर्मी, आदि। ये सब समाज का ही एक हिस्सा होते हैं और हम भी इसी समाज के एक अहम् हिस्सा हैं।

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दोस्तों, अक्सर आपने किसी ना किसी को दोस्ती के ऊपर कहते-सुनते देखा होगा?? कुछ दोस्ती के पक्ष में होते हैं तो कुछ दोस्ती के नाम के ही विपक्ष में होते हैं। कोई दोस्तों से ज्यादा अपने दुश्मनों को ज्यादा सच्चा मानता हैं तो कोई दोस्तों को अपने सगे-सम्बन्धियों-परिजनों से भी ज्यादा अहमियत देता हैं। क्या आपने कभी सोचा हैं ऐसा क्यों होता हैं?? क्यों कभी-कभी हमें अपनों से भी ज्यादा सहारा दोस्तों से मिलता हैं?? क्यों अधिकाँश मामलो में हमें अपने करीबी (ऐसा हमें लगता हैं, पर होता नहीं) दोस्तों से ही धोखा-दगा मिलता हैं??

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इन उपरोक्त सभी सवालों के जवाब हमारे अन्दर या हमारे आस-पास ही हैं। सबसे पहले तो ये सोचिये कि-आपके यार-दोस्त कितने हैं???? बहुत से लोग कहेंगे-"है कोई बीस-पचास", तो कोई कहेगा-"सैंकड़ो दोस्त हैं मेरे", और तो और कुछ महाशयो का जवाब होगा-"गिने ही नहीं, हज़ारो दोस्त हैं मेरे, एक इशारे में दोस्तों की लाइन लगा दूं....." अरे-अरे रुकिए जनाब। ये आप किस गलतफ़हमी (खुशफ़हमी) में बैठे हैं आप??? दोबारा सोच लीजिये या अपने दोस्तों की लिस्ट पुन: जांच लीजिये।

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ज्यादातर लोगो की यही तो भूल होती हैं। इसी भूल के कारण लोगो को बार-बार, मौके-बेमौके धोखा खाना पड़ता हैं। बिना सोचे-विचारे, बिना आचार-व्यवहार, चरित्र, और इतिहास (यदि पता हो तो) देखे हम अगर किसी को हम अपना मित्र मानेंगे, तो जाहिर हैं हम जानबूझ कर ख़तरा मौल ले रहे हैं। दोस्ती करना बुरा नहीं हैं और नाही दोस्तों की अधिक संख्या होना बुरा हैं। बुरा हैं बुरे लोगो से दोस्ती करना, बुरे लोगो को अपना मानना, और बुरे लोगो को बिना सोचे-समझे अपनी संगत में शामिल करना।

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माना पहली नज़र में किसी के अच्छे-बुरे होने का पता नहीं चलता हैं और नाही किसी के चेहरे पर इस सम्न्बंध में कुछ लिखा होता हैं। लेकिन, ज्यादातर लोग जानबूझ कर अपने दोस्तों की बुराइयों को नज़रंदाज़ कर देते हैं, ये सोचकर कि-"अपना क्या ले रहा हैं??, या दोस्ती में सब चलता हैं, या फिर ये सोचकर ज्यादा हद पार करेगा तो समझा दूंगा,,,,,आदि-आदि।" बस, यही हम दोस्ती के मामले में मात खा जाते हैं। पहले हम कुछ करते नहीं और जब हम कुछ करना चाहते हैं तो कुछ कर नहीं पाते। अव्वल, तो हम ना चाहते हुए भी, जाने-अनजाने अपने दोस्तों के चंगुल में फँस ही जाते हैं और उनके हर गलत-सलत कार्यो में शामिल हो जाते हैं।

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महत्तव इस बात का नहीं हैं कि-"आपके कितने दोस्त हैं?? या आपके दोस्तों कि संख्या कितनी हैं??" बल्कि, महत्तव तो इस बात का हैं कि-"आपके दोस्त कैसे हैं??, आपके मित्रो की मानसिकता-सोच कैसी हैं??, आपके मित्रो में सतचरित्र हैं भी या नहीं??, आपके दोस्त आपके काम के हैं या नहीं??," आदि-आदि। पहली बात, आपके दोस्त आपको धोखा नहीं देते हैं बल्कि आप खुद ही उन्हें धोखा-दगा देने के लिए आमंत्रित करते हैं। आपको अपने दोस्त के बारे में नहीं पता, यहाँ तक तो सही हैं। लेकिन, पता चलने पर भी आप कुछ (उसे समझाना या सही रास्ता दिखाना, या उससे धीर-धीरे दूरियाँ बढ़ाना, आदि) नहीं करते, तो इसमें सारी गलती आपकी ही हैं।

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दूसरी बात, दोस्त और जानकार होने में फर्क समझिये। आपके साथ पढने वाला या आपके दफ्तर में कार्य करने वाला या वाहन (टैक्सी, बस, या ट्रेन, हवाईजहाज, आदि) में सफ़र करने वाला आपका मित्र कैसे हो सकता हैं?? नहीं हो सकता ना। बस, यही मैं आपको कहना चाह रहा हूँ, प्रेम सबसे कीजिये, बातें सबसे कीजिये, हाय-हैलो, दुआ-सलाम सबसे कीजिये, लेकिन दोस्ती-यारी किसी-किसी से कीजिये। हर आते-जाते को, हर मिलने-जुलने-भिड़ने वाले को अपना दोस्त ना बनाइये। उसे जानिये-परखिये, और जब वो खरा उतरे तब कदम आगे बढ़ाइए।

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लोग दोस्ती में एक बार धोखा खा लेंगे, दो बार धोखा खा लेंगे, बार-बार धोखा खा लेंगे, लेकिन धीरे-धीरे उनका दोस्त और दोस्ती पर से विश्वास उठने लगेगा। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैं और समाज के लोगो के साथ मेलजोल बढ़ाना अत्यंत आवश्यक भी हैं। लेकिन, संभल कर-सावधानी के साथ। दोस्तों की संख्या पर नहीं उनके गुणों पर ध्यान देना जरुरी हैं।

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सबसे बड़ी बात = अगर आपके सौ दोस्त हैं, तो उनमे से सिर्फ दस-पंद्रह दोस्त ही सुख-दुःख, मुसीबत में काम आयेंगे। और उन दस-पंद्रह में से दस वो होंगे जो कभी-भी भाग सकते हैं। अगर यकीन ना हो तो जब मर्जी आजमा कर देख लीजिएगा। मैं तो बहुत बार आजमा चुका हूँ। बारम्बार धोखा खाने और दिल तोड़ने से अच्छा हैं एक बार आजमा लिया जाए। ये दुःख की बात हैं कि-"ज्यादातर यार-दोस्त खाने-पीने और पैसे के पीछे होते हैं। जो अपने दोस्तों को खिलाएगा-पिलाएगा या पैसा उडाएगा, लोग उसी से यारी बढ़ाना चाहते हैं। आप भी इस बात की सच्चाई को समझने का प्रयास करे, इसी में आपकी भलाई हैं।" ज़रा अपने आसपास निगाह दौड़ाइए, दोस्तों के खाने-पीने, और पैसा उड़ाने वाले व्यक्ति के दोस्तों की सूची आम लोगो के दोस्तों से कहीं ज्यादा होती हैं। कही आपके साथ भी ऐसा-कुछ तो नहीं???"

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मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि-"दोस्तों के अलावा सबसे (जानकार, सहपाठी, या सहकर्मी) से तोड़ ली जाए। सबसे बनाकर रखिये, ना जाने कब उनसे अपना काम-मतलब साधना पड़ जाए। तब वे ये तो नहीं कह सकते कि-"तू अब क्यों आया हैं, तब तो तू मुझसे दोस्ती ही नहीं करना चाहता था।"

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मैं आपको मतलबी होने को नहीं कह रहा हूँ, मैं तो सिर्फ ये कहना चाहता हूँ कि-"दोस्त सीमित और भरोसेमंद-चरित्रवान रखिये, जो वक़्त-बेवक्त हाज़िर हो, बाकियों के साथ ज्यादा नहीं तो थोड़ी-बहुत तो राम-रामी रखी ही जा सकती हैं। या इसमें भी कोई हर्ज़ हैं......??????"

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धन्यवाद।

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