मेरे इस ब्लॉग का उद्देश्य =

मेरे इस ब्लॉग का प्रमुख उद्देश्य सकारात्मकता को बढ़ावा देना हैं। मैं चाहे जिस मर्ज़ी मुद्दे पर लिखू, उसमे कही ना कही-कोई ना कोई सकारात्मक पहलु अवश्य होता हैं। चाहे वह स्थानीय मुद्दा हो या राष्ट्रीय मुद्दा, सरकारी मुद्दा हो या निजी मुद्दा, सामाजिक मुद्दा हो या व्यक्तिगत मुद्दा। चाहे जो भी-जैसा भी मुद्दा हो, हर बात में सकारात्मकता का पुट जरूर होता हैं। मेरे इस ब्लॉग में आपको कही भी नकारात्मक बात-भाव खोजने पर भी नहीं मिलेगा। चाहे वह शोषण हो या अत्याचार, भ्रष्टाचार-रिश्वतखोरी हो या अन्याय, कोई भी समस्या-परेशानी हो। मेरे इस ब्लॉग में हर बात-चीज़ का विश्लेषण-हल पूर्णरूपेण सकारात्मकता के साथ निकाला गया हैं। निष्पक्षता, सच्चाई, और ईमानदारी, मेरे इस ब्लॉग की खासियत हैं। बिना डर के, निसंकोच भाव से, खरी बात कही (लिखी) मिलेगी आपको मेरे इस ब्लॉग में। कोई भी-एक भी ऐसा मुद्दा नहीं हैं, जो मैंने ना उठाये हो। मैंने हरेक मुद्दे को, हर तरह के, हर किस्म के मुद्दों को उठाने का हर संभव प्रयास किया हैं। सकारात्मक ढंग से अभी तक हर तरह के मुद्दे मैंने उठाये हैं। जो भी हो-जैसा भी हो-जितना भी हो, सिर्फ सकारात्मक ढंग से ही अपनी बात कहना मेरे इस ब्लॉग की विशेषता हैं।
किसी को सुनाने या भावनाओं को ठेस पहुंचाने के लिए मैंने यह ब्लॉग लेखन-शुरू नहीं किया हैं। मैं अपने इस ब्लॉग के माध्यम से पीडितो की-शोषितों की-दीन दुखियों की आवाज़ पूर्ण-रूपेण सकारात्मकता के साथ प्रभावी ढंग से उठाना (बुलंद करना) चाहता हूँ। जिनकी कोई नहीं सुनता, जिन्हें कोई नहीं समझता, जो समाज की मुख्यधारा में शामिल नहीं हैं, जो अकेलेपन-एकाकीपन से झूझते हैं, रोते-कल्पते हुए आंसू बहाते हैं, उन्हें मैं इस ब्लॉग के माध्यम से सकारात्मक मंच मुहैया कराना चाहता हूँ। मैं अपने इस ब्लॉग के माध्यम से उनकी बातों को, उनकी समस्याओं को, उनकी भावनाओं को, उनके ज़ज्बातों को, उनकी तकलीफों को सकारात्मक ढंग से, दुनिया के सामने पेश करना चाहता हूँ।
मेरे इस ब्लॉग का एकमात्र उद्देश्य, एक मात्र लक्ष्य, और एक मात्र आधार सिर्फ और सिर्फ सकारात्मकता ही हैं। हर चीज़-बात-मुद्दे में सकारात्मकता ही हैं, नकारात्मकता का तो कही नामोनिशान भी नहीं हैं। इसीलिए मेरे इस ब्लॉग की पंचलाइन (टैगलाइन) ही हैं = "एक सशक्त-कदम सकारात्मकता की ओर..............." क्यूँ हैं ना??, अगर नहीं पता तो कृपया ज़रा नीचे ब्लॉग पढ़िए, ज्वाइन कीजिये, और कमेन्ट जरूर कीजिये, ताकि मुझे मेरी मेहनत-काम की रिपोर्ट मिल सके। मेरे ब्लॉग पर आने के लिए आप सभी पाठको को बहुत-बहुत हार्दिक धन्यवाद, कृपया अपने दोस्तों व अन्यो को भी इस सकारात्मकता से भरे ब्लॉग के बारे में अवश्य बताये। पुन: धन्यवाद।

Friday, May 28, 2010

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विश्वास कीजिये कि विश्वास हैं।

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अगर आपसे कोई पूछे कि-"दुनिया किस पर कायम हैं या दुनिया के चलने का आधार क्या हैं??" तो आप क्या जवाब देंगे?? चलिए छोडिये मैं ही बताये देता हूँ। और उत्तर मात्र एक शब्द लेकिन गहरे अर्थ का हैं, और वो शब्द हैं-"विश्वास"।
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जी हाँ विश्वास कीजिये कि-विश्वास हैं। विश्वास पर ही दुनिया कायम हैं और दुनिया के अनवरत चलने का आधार ही विश्वास हैं। हमारी ज़िन्दगी में, हमारे आस-पास घटित हो रही हर घटना के पीछे एक अदृश्य विश्वास ही हैं। विश्वास के कारण ही हम आज इक्कीसवी सदी देख रहे हैं, अगर विश्वास ही नहीं होता तो शायद हम भी ना होते।

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बहुत से लोग विशेषकर धोखा खाए लोग विश्वास नाम की चीज़ ही नहीं मानते। ये लोग तो विश्वास जैसी बात को तो सिरे से ही नकार देते हैं। लेकिन, भाइयो आपके दुःख की, आपकी भावनाओं की, और आपके ज़ज्बातों की मैं कद्र करता हूँ, लेकिन यह कोई अंतिम सच नहीं हैं। दुनिया में अविश्वास से कही लाखो गुणा विश्वास मौजूद हैं। अगर आपके साथ एक ज़ना धोखा करता हैं तो सौ लोग विश्वास भी तो करते हैं...इस तथ्य को क्यूँ ठुकरा रहे हैं आप????

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जब आप गाडी, मोटर साइकिल, या कोई अन्य वाहन चलाते हैं तो क्या आपको खुद पर और दूसरो पर विश्वास नहीं होता?? खुद पर तो आपको ये होता ही हैं कि-"आप बिना गिरे, बिना चोट खाए, और बिना संतुलन खोये आप सफलतापूर्वक वाहन चला लेंगे।" लेकिन दूसरो पर भी तो आप विश्वास बनाए रखते हैं, मैं जानता हूँ कइयो का जवाब नकारात्मक होगा, लेकिन मुझे पता हैं कि आप जाने-अनजाने अन्यो पर विश्वास करते हैं। दूसरो पर आपको विश्वास करना ही होता हैं कि-"वो आपके साइड मांगने पर ख़ुशी-ख़ुशी साइड दे देगा, वो मुड़ने से पहले इन्डिकेटर या इशारा देगा, वो अपनी लेन-सड़क पर ही अपना वाहन चलाएगा और आपके समक्ष नहीं आयेगा, और ये भी कि-वो अपना संतुलन बनाकर रखेगा और आपमें आकर नहीं ठोकेगा...!!!"

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क्या आपको अपने देश कि पुलिस और कानूनों पर विश्वास नहीं हैं??? अगर नहीं, तो आप सच्चे भारतीय नहीं हो सकते। हर भारतीय को अपने संविधान पर विश्वास होना चाहिए, और जो संविधान पर विश्वास करता हैं, वो अपने क़ानून-पुलिस पर भी विश्वास करता हैं। अगर आपके साथ पुलिस द्वारा कोई अन्याय होता हैं तो आपका चुप बैठना गलत हैं। उच्चाधिकारियों को शिकायत करने की बजाय आप व्यवस्था पर अविश्वास करते है। जोकि गलत हैं, आपको विश्वास रखते हुए आगामी कारर्वाही करनी चाहिए। वैसे आमतौर पर आप पुलिस-क़ानून पर विश्वास करते हैं, तभी तो आप उनकी शरण में जाते हैं और दुर्भाग्य से आपका विश्वास कभी-कभी तोड़ दिया जाता हैं। लेकिन, सौभाग्य से आप अभी भी विश्वास का दामन थामे होते हैं, और आवश्यकता पड़ने पर पुन: उनकी शरण में चले जाते हैं।

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जब आप पर कोई संकट आता हैं या आप किसी विपदा में फंस जाते हैं, तो आप जिसपर विश्वास ही नहीं करते वही अक्सर आपके साथ खडा होता हैं। आगजनी, भूकंप, सुनामी, चक्रवात, और इसी तरह की अन्य प्राकृतिक-अप्राकृतिक हादसों/आपदाओं के वक़्त आप अनजान लोगो की मदद करते हैं और अनजाने लोग आपकी तत्काल मदद करते हैं। यहाँ सभी लोग एक अनोखे और मजबूत विश्वास के बंधन में बन्ध जाते हैं। और कई-दुर्लभ मामलो में तो जब सभी लोग, सारे लोग, सारे राहत दल-और सरकारे किसी के बचने की उम्मीद ही छोड़ देती हैं, तो कई-कई दिनों बाद किसी के ज़िंदा होने के सबूत (हिलना, कराहना, आदि) मिल जाते हैं। अब इसे आप क्या कहेंगे??, उन सभी के ज़िंदा बचने का एकमात्र कारण उनका विश्वास था, अन्यथा वे भी बाकी मृतकों की सूची में शामिल हो सकते थे।
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अगर अभी भी आपको विश्वास पर विश्वास ना हो रहा हो तो मैं आपको बता देना चाहता हूँ कि-"जब आप मोबाइल में कोई काम करते हैं, सन्देश पढ़ते हैं, या कोई गेम खेलते हैं तो आपको विश्वास रहता हैं कि-"मोबाइल सही काम करता रहेगा, मोबाइल कम बैटरी के कारण बंद नहीं होगा, या मोबाइल हँग-जाम नहीं होगा।" इसी तरह जब आप अपनी कुर्सी या चारपाई पर बैठे होते हैं तो आपको विश्वास होता हैं कि-"ये चारपाई/कुर्सी टूटेगी नहीं या संतुलन नहीं खोएगी और आप गिरेंगे नहीं।"

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भई, अगर आपको अब भी किसी पर विश्वास नहीं हो रहा हैं, आप विश्वास नाम की चीज़ को ही नहीं मानते हैं, तो मैं तो क्या??, दुनिया की कोई भी ताकत आप में विश्वास नहीं जगा सकती। वैसे मैं आप सबकी जानकारी के लिए बता दूँ कि-"जब मैं ये ब्लॉग लिख रहा था तो मुझे तो कई तरह के, कई भांत-भांत के विश्वास थे जैसे कि-"लैपटॉप बंद नहीं होगा, लैपटॉप हँग नहीं होगा, इंटरनेट बिना रुकावट चलता रहेगा, इंटरनेट धीरे नहीं चलेगा, आदि-आदि।"

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एक और बात -- विश्वास का दिखाई देना हर मामले में, हर बार संभव नहीं हो सकता हैं। बहुत से विश्वास, दिखाई नहीं देते हैं, प्रत्यक्ष रूप से आपके समक्ष नहीं होते हैं, लेकिन परोक्ष रूप से उनकी प्रभावी और असरदार उपस्थिति होती हैं। चाहे आप यकीन करे या ना करे, पर सत्य यही हैं। वैसे विश्वास को लेकर उदाहरण तो बहुत हैं, उदाहरणों की फेहरिस्त बहुत लम्बी-चौड़ी हैं। जोकि, मैं दे तो सकता हूँ, लेकिन समयाभाव के कारण नहीं दे रहा। जिसके लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूँ।

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विश्वास जिंदाबाद।

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धन्यवाद।

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CHANDER KUMAR SONI,

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Saturday, May 22, 2010

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बड़े-बुजुर्गो की बदलती सोच।
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हाल ही में मेरे दोस्त के घर एक नया ऐसी लगा लेकिन मेरा दोस्त कुछ नाराज़ और उखडा हुआ लगा। कारण पूछने पर बताया-"क्या बताऊँ यार?? पापा ने घर में नया ऐसी लगवा लिया हैं, हैं तो ख़ुशी की बात लेकिन इतना खर्चा और प्रतिमाह आने वाला भारी भरकम बिल..... मुझे अजीब लग रहा हैं।"
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मैंने उसे समझाने की कोशिश कि-"यार ऐसा कुछ नहीं हैं, तू चिंता क्यों कर रहा हैं?? तेरे पापा ने कुछ सोच कर ही ऐसी लगवाया होगा, और रही बात खर्चे की तो उसका हिसाब तेरे पापा ने लगा लिया होगा। तू खुश हो जा यार, दुखी मत हो।"
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वो तर्क करते हुए बोला-"यार खर्च बचाने के लिए ही तो मैं ट्युशन नहीं लगा, खुद ही पढता हूँ। कॉलेज के हॉस्टल की बजाय किराए के सस्ते से कमरे में रहता हूँ। माना, ऐसी कोई बड़ी चीज़ नहीं रही, पर मुझे ये सब पसंद नहीं हैं। पापा बैंक में क्लर्क हैं और तनख्वाह मात्र पैंतीस हज़ार। ऐसे में ये मुझे फिजूल खर्च से अधिक कुछ नहीं लग रहा हैं........"
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मैंने उसे समझाने की फिर (और शायद आखिरी) कोशिश की, लेकिन वो बिफर गया-"यार तू तो मुझे ऐसे समझा रहा हैं, जैसे तुझे कुछ पता नहीं हो। मेरे और पापा के रिश्ते कैसे हैं??, तू अच्छी तरह से जानता हैं। मोम भी डैड से कैसे खौफ खाती हैं ये भी तुझे मालूम हैं, एक बार तो पापा ने मम्मी को तेरे सामने ही डांट दिया था। मुझे ये सब बिलकुल भी पसंद नहीं हैं। पापा कहते हैं कि-"बेटा ये सब म अं तुम्हारे लिए ही कर रहा हूँ, तुम्हे गर्मी ना लगे इसलिए..." लेकिन वे क्या जानते नहीं कि-"मैं साल में ज्यादा से ज्यादा छुट्टियों समेत तीस दिन ही होता हूँ।"क्यों वे ऐसा कर रहे हैं??......"
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अब मैंने उसे समझाने की सारी कोशिशो पर विराम लगा दिया था। मैं अब मौन था, मैं एक गहरे सोच-विचार में पड़ गया था। मेरे मन में कई सवाल उठ रहे थे, जिनके जवाब सिर्फ और सिर्फ बड़े-बुजुर्गो के पास ही हैं नाकि नौजवानों-आज की पीढ़ी के पास। मेरे मन में उठ रहे सवालों में से कुछ सवाल =
बड़े बुजुर्ग इतने बदल क्यों गए हैं??
पहले बड़े-बुजुर्ग लोग अपने बच्चो की खुशियों के लिए अपनी खुशियाँ त्याग देते या कम कर देते थे, अब क्या हो गया हैं??
बच्चे चाहे कैसे भी हो, भविष्य में सहारा तो उनका ही लेना पडेगा।
अगर बच्चो को घर से निकाल कर या बे-दखल करके आप नौकर / नौकरानी या सहायक / सहायिका रखने की सोचेंगे तो शायद आप आत्मघाती कदम उठा रहे हैं।
नौकर, आदि आपकी संपत्ति और जानमाल का दुश्मन हैं। उसकी नज़र मात्र आपकी संपत्ति पर ही होगी। मौक़ा पाकर वो अपना खेल खेल जायेंगे।
आपके कारण बच्चे दुःख पाए या ना पाए, लेकिन आपको बच्चो की नाराजगी का कारण तो अवश्य ही पूछना चाहिए।
आप कहेंगे कि-आजकल के बच्चे कौनसा सुख देकर निहाल कर रहे हैं??"
तो मैं आपको बता दूँ कि-"ये सब बहुत हद तक संस्कारो और संगति पर ही निर्भर करता हैं। अगर बच्चे अभी निहाल नहीं भी करते हैं तो भी उनके पास इसके लिए कोई वाजिब-जायज़ कारण नहीं होता हैं। लेकिन, अगर आप अपना आराम, अपना सुख देखेंगे तो बच्चो के पास ना चाहते हुए भी कई कारण मिल जायेंगे कि-"हमारे माँ-बापों ने तो ऐश मारी हैं, या हमारे माँ-बाप ने फ़िज़ूल में धन लुटाया हैं, या फिर हमारे माँ-बाप ने हमारे लिए कुछ नहीं बचाया (छोड़ा), आदि-आदि।"

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कृपया मेरी इस बात पर गहन मंथन करे, शायद आपको भी अपनी भूल समझ में आ जायेगी।
(ये ब्लॉग बड़े-बुजुर्गो के खिलाफ या नौजवानों के समर्थन में बिलकुल भी नहीं लिखा गया हैं। ये ब्लॉग उस अनुभव के आधार पर लिखा गया हैं जो मुझे इस भीषण गर्मी में अपने मित्र के माध्यम से हुआ हैं।)
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धन्यवाद।

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Sunday, May 16, 2010

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जाति आधारित जन गणना क्यों???

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इस बार कि जन गणना में आज़ादी के बाद पहली बार जातियों कि गणना भी की जा रही हैं। मैं इस तरह की कवायदों के सख्त खिलाफ हूँ, इस मुद्दे पर मेरा विरोध खुलकर बेशक ना हो लेकिन अंतर्मन से जरूर हैं। आखिर किसलिए की जा रही हैं इतनी कसरत??

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इस जन गणना से सबसे बड़ा ख़तरा जातीय दुश्मनी और नफरत बढ़ने का हैं। भारत को हम सभी जात-पात से मुक्त देखना चाहते हैं लेकिन दुर्भाग्य देखिये -- आज जनगणना में जातियों की गणना को भी शामिल करते हुए अभी तक की सारी कवायदों पर पानी फेरा जा रहा हैं। सारी मेहनत को नष्ट किया जा रहा हैं, जो अभी तक देश में जात-पात के भेद और लड़ाइयों को मिटाने में की गयी हैं।

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राजनितिज्ञो के निहित स्वार्थ, लगातार बढ़ते आरक्षण, और इन सबसे पैदा हुई समस्याओं से वैसे ही जातिगत लडाइयां-टकराव के मामले बढ़ रहे हैं। ऐसे में अगर जातिगत जनसंख्या के सटीक आंकड़े सामने आ गए तो स्थिति विस्फोटक हो जायेगी। सामाज का ताना-बाना बिगड़ने का बड़ा ख़तरा हैं। जाति के आधार पर जनगणना देश के लिए आत्मघाती कदम साबित होगा। वोट बैंक की राजनीति वैसे ही देश-प्रदेश की राजनीति पर बुरी तरह हावी हैं, ऐसे में जातिगत वोट बैंक के सटीक-ठीक आंकड़े आने का मतलब हैं, राजनितिक दलों द्वारा इन्हें अपनी और खींचने के नापाक इरादे और हथकंडे।

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मुझे जातिगत जनगणना का कोई औचित्य ही नहीं नज़र आ रहा हैं सिवाय इसके कि-"जातियों के आंकड़े मालूम होने के बाद जाति-विशेष के काम ज्यादा प्राथमिकता के साथ होंगे। और इन्ही जातियों के लिए ही लोक-लुभावन योजनायें चलाई जायेंगी, बाकी जातियों को तो हाशिये पर ड़ाल दिया जाएगा।" पहले (आज़ादी के बाद -- संविधान निर्माण के वक़्त) हमेशा सिर्फ अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए ही आरक्षण जरूरी माना गया था, क्योंकि उस वक़्त उसके कई ठोस-ऐतिहासिक-और सामाजिक कारण थे।

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लेकिन, अब हर जाति आरक्षण की मांग करने लगी हैं, हर जाति बिना जरुरत-बिना वजह अपने लिए आरक्षण लेने के लिए जायज़-नाजायज़, सही-गलत, अहिंसक-हिंसक, हर संभव तरीका अपना रही हैं। जोकि सरासर गलत, अमान्य और अस्वीकार्य हैं। जिसे आरक्षण मिल जाता हैं, वो ना सिर्फ आरक्षण का दुरूपयोग करता हैं वरण अपने आपको अन्य जातियों से बड़ा, महान समझने लगता हैं। यही से जातीय विभेद, जातीय वैमनश्य, और जातीय दुश्मनी का जन्म होता हैं। दो भिन्न-भिन्न जातियों के बीच लड़ाई-तनाव-और टकराव का मुख्य कारण आरक्षण ही हैं।

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मैं इस लेख के माध्यम से किसी नेता को, किसी राजनेता को, किसी राजनितिक दल को या किसी अन्य व्यक्ति-दल को कुछ भी नहीं कह रहा हूँ, और नाही मेरा ऐसा कोई मकसद हैं। मैं तो आम जनता से, सच्चे भारतीयों से सिर्फ एक अपील/प्रार्थना करना चाहता हूँ कि--

"अपनी जाति सिर्फ और सिर्फ भारतीय और अपनी भाषा भी भारतीय (हिन्दी या आपकी मातृभाषा (अंग्रेजी या विदेशी भाषा नहीं) ही बताये।)"

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धन्यवाद।

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Monday, May 10, 2010

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प्रकृति शहरों की ओर.......

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हाल ही में मैं जिला युवा काँग्रेस के कार्यक्रमों में गया। ये कार्यक्रम राज़स्थान के विकासदूत, युवा दिलो की धड़कन, सूझवान, ऊर्जावान, और राजस्थान के मुख्यमंत्री श्री अशोक गहलोत के जन्मदिवस के उपलक्ष्य में था। जि.यु.काँ. के ये कार्यक्रम एक सप्ताह तक सफलतापूर्वक चला। लगातार एक हफ्ते तक चले इस कार्यक्रम की विशेषता थी इसके सभी कार्यक्रमों का ग्रामीण क्षेत्रो में होना। जि.यु.काँ.के सभी कार्यक्रमों में ग्रामीणों ने उत्साहपूर्वक भाग लिया और सराहा।

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लगातार सात दिनों तक चले कार्यक्रमों में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत जी के कार्यो और आदर्शो का प्रभाव था। इन्ही कार्यक्रमों में एक कार्यक्रम वृक्षारोपण (शहर से लगभग पच्चीस किलोमीटर दूर स्थित एक गाँव में) का भी था। मैं भी इस कार्यक्रम में उपस्थित था, वहाँ जिला युवा काँग्रेस कार्यकर्ताओं के साथ-साथ ग्रामीणों में भी उत्साह देखने को मिल रहा था। वहाँ वृक्षारोपण करते समय ज्यादातर ध्यान नीम-पीपल-और बरगद की तरफ था। सब तरफ एक ही बात सुनाने को मिल रही थी कि-यार बरगद देना, भाई नीम हैं तो देना, क्या पीपल खत्म हो गए??, आदि-आदि। यानी जो भी व्यक्ति वृक्ष लगा रहा था वो इन तीनो में से ही कोई एक वृक्ष मांग रहा था, मानो और कोई वृक्ष-वृक्ष ना हो।

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पहले तो एक-दो बार मुझे अटपटा लगा, लेकिन बाद में मुझे बहुत अच्छा लगा। जिन वृक्षों को शहर में लगाना तो दूर, बल्कि लगे हुओं को भी धड़ल्ले से काटा जा रहा हैं, उन वृक्षों को लगाने के लिए यहाँ (गाँव में जि.यु.काँ.के कार्यक्रम में) होड़ मच रही हैं। मेरा मन खुश हो गया, संयोग से उसी दिन बेहद हलकी-हलकी बारिश भी हो रही थी। जिसकी वजह से लोगो को भीषण गर्मी से निजात भी मिल गयी थी और वृक्षारोपण के कार्यक्रम के लिए अनुकूल माहौल भी बन गया था।

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इस कार्यक्रम के बाद मेरे मन में कुछ सवाल उठ रहे थे, जिनके जवाब ग्रामीणों ने तो बेहद सरलता से और विस्तार से दे दिए हैं। अब देखना ये हैं कि-क्या शहरी लोग मेरे सवालों का जवाब दे पाते हैं या नहीं और अगर दे पाते हैं तो कब तक?? कुछ सवाल =

क्या वृक्षारोपण अभियान/कार्यक्रम शहरो में नहीं हो सकता?

क्या शहरो में पहले से लगे वृक्षों की रक्षा नहीं की जा सकती??

क्या शहरो में लगे वृक्षों को काटने से नहीं बचाया जा सकता??

क्या वृक्षों के अवैध कटान के लिए ज़िम्मेदार भू-माफिया और वन-माफिया पर सख्ती नहीं बरती जा सकती??

क्या शहरों को भी गांवो की तरह हरा-भरा और खुशहाल नहीं बनाया जा सकता?

आदि-आदि।

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जिला युवा काँग्रेस ने पर्यावरण संरक्षण की ओर कदम बढाते हुए गाँव में वृक्षारोपण किया क्योंकि इस बार के सभी कार्यक्रम (गहलोत जी के जन्मदिवस के उपलक्ष्य में) हमें गाँव में ही करने थे। लेकिन, शहरी व्यक्ति दूर-दराज जाने की बजाय अपने घर के लॉन-पार्क में, या घर के बाहर खाली पड़ी जमीन पर, या अन्य जगह पर एक वृक्ष भी तो लगा सकता हैं। आप आज नहीं तो कल पर्यावरण के महत्तव को समझेंगे, लेकिन समझेंगे जरूर। इसलिए, देर से समझने की बजाय अभी समझ जाइए ओर उचित स्थान देख कर कम से कम एक वृक्ष तो लगा ही डालिए।

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धन्यवाद।

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Tuesday, May 04, 2010

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बधाई हो ईमानदारी ज़िंदा हैं।

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इस सन्डे (दो मई) को मैं अपनी पत्नी के साथ शहर के प्रमुख पार्क में घूमने गया था। वहाँ बेंच पर बैठ कर मस्ती से गप्पे मारते हुए और भयानक गर्मी को कुल्फी से मात देने की कोशिश कर रहे थे। काफी देर पार्क में बैठने के बाद हम दोनों पति-पत्नी शहर में इधर-उधर घुमते रहे। मैंने करीब एक घंटे बाद अपनी पत्नी से मोबाइल में टाइम देख कर बताने को कहा तो उसने कहा-"मोबाइल तो आपने पास हैं।" मैंने कहा-"मेरा मोबाइल तो मेरी जेब में हैं, लेकिन सीट बेल्ट के कारण जेब से निकाल नहीं पा रहा, ड्राइविंग कर रहा हूँ। तू अपने मोबाइल में देख कर बता।" तब उसने कहा कि-"मोबाइल तो मेरे पास नहीं हैं। ओह नो, मोबाइल पार्क में रह/गिर गया। जल्दी चलो शायद मिल जाए।" मेरे हाथ-पैर फूल गए, मैंने झट से गाडी भगाई, और पार्क में पहुँच कर आस-पास की सारी जगह खंगाल डाली, लेकिन कही मोबाइल नहीं दिखा। पूरे रास्ते वो भगवान् से प्रसाद चढाने की बात कहती रही और मैंने पांच सौ रूपये का इनाम देने की बात कही।

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मैंने गाडी से और पार्क पहुँचने के बाद दो बार अपनी पत्नी के मोबाइल पर फ़ोन किया, लेकिन किसी ने उठाया नहीं। हमें लगा शायद किसी ने उठाया नहीं हैं, तभी तो घंटी जा रही हैं, वरना लोग तो सबसे पहले सिम ही निकाल फेंकते हैं, यही-कही पडा होगा। पुन: ढूंढ ही रहे थे कि-पत्नी के नंबर से फ़ोन आया, मैंने उन्हें मोबाइल के बारे में कहा और उन्हें वस्तु-स्थिति (पार्क का नाम, पार्क के बेंच की दशा/दिशा) बताई ताकि उन्हें यकीन हो जाए कि-हम जेनुइन लोग हैं।

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उस अनजान व्यक्ति ने मुझे उसी रोड पर स्थित एक हॉस्पिटल के बाहर बुलाया। मैं तत्काल वहाँ पहुंचा और दुबारा फोने किया, उसने कहा कि-मैं हॉस्पिटल के अन्दर हूँ आ जाइए।" मैं भागा, वो नहीं मिला, मैंने फ़ोन किया तो उस अनजान व्यक्ति ने कहा कि-"मैं तो वही पर हूँ, आप नहीं दिख रहे। कहाँ हो आप???" मुझे शंका हुई, मुझे लगा कि-ऐसे ही भगा रहा हैं, मोबाइल तो गया समझो। फिरभी हिम्मत जुटा कर मैंने कहा कि-"मैं मेन गेट पर खड़ा हूँ, आप आ जाइए।" तभी एक देवता के रूप में एक सरदार जी आये और मोबाइल मेरे हाथ मेन पकड़ा कर जाने लगे।

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मैंने उनहे अचंबित होकर देखा और पीछे से आवाज़ लगाकर रोका और धन्यवाद दिया। वो भी हंसता हुआ जाने लगा, मैंने उन्हें रोका और मेरा परिचय पत्र (विजिटिंग कार्ड) दिया और पांच सौ का नोट भी इनाम-स्वरुप देने लगा तो इनकार में सिर हिलाते और हँसते हुए वह जाने लगा। मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था, इतनी जल्दी खोया मोबाइल भी दे गया। बिना कोई बात किये, बिना कोई हाय-हेलो किये, सरदार जी ने मोबाइल पकडाया और जाने लगे। उन्होंने मेरे से बात करना या कोई परिचय प्राप्त करने या परिचय देने जैसा कुछ नहीं किया, बस मोबाइल दिया और चलते बने।

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और मोबाइल लेने के बाद घर आने तक सारे रास्ते हम उस सरदार जी को सद-दुआएं देते रहे और भगवान् को भी धन्यवाद ज्ञापित करते रहे। इस घटना ने मेरा विश्वास ईमानदारी में बढ़ा दिया हैं। जो लोग इस दुनिया से, लोगो के दिलो से ईमानदारी के खत्म होने की बात कहते हैं, या दुनिया में ईमानदारी नाम की किसी चीज़ के अस्तित्व को ही नकारते हैं, उन्हें इस घटना से सबक मिल सकता हैं। मोबाइल करीब साढ़े चार हज़ार रुपयों का था और उसकी रीसेल वैल्यू करीब दो हज़ार तो थी ही, ऐसे में कोई बेईमान भी हो सकता हैं। लेकिन सरदारजी ने अनुकरनिय उदाहरण पेश किया हैं। इस घटना से साबित होता हैं कि-"दुनिया में ईमानदारी अभी भी कायम हैं, बस आवश्यकता हैं तो बस ईमानदारी को प्रोत्साहित करने और खुद ईमानदार बनाने की।"

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धन्यवाद।

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