मेरे इस ब्लॉग का उद्देश्य =

मेरे इस ब्लॉग का प्रमुख उद्देश्य सकारात्मकता को बढ़ावा देना हैं। मैं चाहे जिस मर्ज़ी मुद्दे पर लिखू, उसमे कही ना कही-कोई ना कोई सकारात्मक पहलु अवश्य होता हैं। चाहे वह स्थानीय मुद्दा हो या राष्ट्रीय मुद्दा, सरकारी मुद्दा हो या निजी मुद्दा, सामाजिक मुद्दा हो या व्यक्तिगत मुद्दा। चाहे जो भी-जैसा भी मुद्दा हो, हर बात में सकारात्मकता का पुट जरूर होता हैं। मेरे इस ब्लॉग में आपको कही भी नकारात्मक बात-भाव खोजने पर भी नहीं मिलेगा। चाहे वह शोषण हो या अत्याचार, भ्रष्टाचार-रिश्वतखोरी हो या अन्याय, कोई भी समस्या-परेशानी हो। मेरे इस ब्लॉग में हर बात-चीज़ का विश्लेषण-हल पूर्णरूपेण सकारात्मकता के साथ निकाला गया हैं। निष्पक्षता, सच्चाई, और ईमानदारी, मेरे इस ब्लॉग की खासियत हैं। बिना डर के, निसंकोच भाव से, खरी बात कही (लिखी) मिलेगी आपको मेरे इस ब्लॉग में। कोई भी-एक भी ऐसा मुद्दा नहीं हैं, जो मैंने ना उठाये हो। मैंने हरेक मुद्दे को, हर तरह के, हर किस्म के मुद्दों को उठाने का हर संभव प्रयास किया हैं। सकारात्मक ढंग से अभी तक हर तरह के मुद्दे मैंने उठाये हैं। जो भी हो-जैसा भी हो-जितना भी हो, सिर्फ सकारात्मक ढंग से ही अपनी बात कहना मेरे इस ब्लॉग की विशेषता हैं।
किसी को सुनाने या भावनाओं को ठेस पहुंचाने के लिए मैंने यह ब्लॉग लेखन-शुरू नहीं किया हैं। मैं अपने इस ब्लॉग के माध्यम से पीडितो की-शोषितों की-दीन दुखियों की आवाज़ पूर्ण-रूपेण सकारात्मकता के साथ प्रभावी ढंग से उठाना (बुलंद करना) चाहता हूँ। जिनकी कोई नहीं सुनता, जिन्हें कोई नहीं समझता, जो समाज की मुख्यधारा में शामिल नहीं हैं, जो अकेलेपन-एकाकीपन से झूझते हैं, रोते-कल्पते हुए आंसू बहाते हैं, उन्हें मैं इस ब्लॉग के माध्यम से सकारात्मक मंच मुहैया कराना चाहता हूँ। मैं अपने इस ब्लॉग के माध्यम से उनकी बातों को, उनकी समस्याओं को, उनकी भावनाओं को, उनके ज़ज्बातों को, उनकी तकलीफों को सकारात्मक ढंग से, दुनिया के सामने पेश करना चाहता हूँ।
मेरे इस ब्लॉग का एकमात्र उद्देश्य, एक मात्र लक्ष्य, और एक मात्र आधार सिर्फ और सिर्फ सकारात्मकता ही हैं। हर चीज़-बात-मुद्दे में सकारात्मकता ही हैं, नकारात्मकता का तो कही नामोनिशान भी नहीं हैं। इसीलिए मेरे इस ब्लॉग की पंचलाइन (टैगलाइन) ही हैं = "एक सशक्त-कदम सकारात्मकता की ओर..............." क्यूँ हैं ना??, अगर नहीं पता तो कृपया ज़रा नीचे ब्लॉग पढ़िए, ज्वाइन कीजिये, और कमेन्ट जरूर कीजिये, ताकि मुझे मेरी मेहनत-काम की रिपोर्ट मिल सके। मेरे ब्लॉग पर आने के लिए आप सभी पाठको को बहुत-बहुत हार्दिक धन्यवाद, कृपया अपने दोस्तों व अन्यो को भी इस सकारात्मकता से भरे ब्लॉग के बारे में अवश्य बताये। पुन: धन्यवाद।

Saturday, February 27, 2010

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क़ानून के ऐसे सकारात्मक दुरूपयोग से मैं सहमत।
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हैरान रह गए ना, शीर्षक पढ़ कर। मैं किसी भी तरह के क़ानून का उल्ल्लंघन नहीं करता हूँ और ना ही किसी को ऐसा करने की सीख/प्रेरणा दे रहा हूँ। वैसे तो मैं नियम-कायदों और कानूनों का पालन करने वाला व्यक्ति हूँ, मैं जानबूझ कर क़ानून तोड़ने जैसा कार्य नहीं करता हूँ। जाने-अनजाने, भूलवश ऐसा हो तो और बात हैं। लेकिन इस बार बात ही कुछ ऐसी हैं, जो मैं कह रहा हूँ कि-"क़ानून के ऐसे सकारात्मक दुरूपयोग से मैं सहमत।" आप भी वाक्यांश जानेंगे तो आप भी कहेंगे-"क़ानून का ऐसा दुरूपयोग तो होना ही चाहिए।"
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वाक्यांश यह हैं = हमारे किसी काफी दूर के रिश्तेदार की बेटी (जिसे मैं जानता तो नहीं, पर सुना हैं) की शादी कुछेक साल पहले हुई थी। उसका पति खूब शराब पीया करता था, वो अव्वल दर्जे का शराबी था। कमाई करने, बीवी और घरवालो की तरफ ध्यान देने की तरफ से लापरवाह था। बीवी बहुत समझाती पर कमाई करने और शराब छोड़ने की उसने रत्ती भर भी कोशिश नहीं की। कालान्तर में एक बेटी भी हो गयी, बेटी के होने के बाद उसके सुधरने की उम्मीद जगी थी। पर अफ़सोस, ऐसा ना हो सका, सारी उम्मीदों पर पानी फिर गया।
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वो शराबी सारे दिन घर पर पडा रहता या मोहल्ले में इधर-उधर ताश-जुआ खेलता रहता। सारा का सारा पैसा शराब में उड़ा डालता, अगर थोड़े-बहुत रुपये बच जाते तो उसे जुए-सट्टे में बर्बाद कर आता। पत्नी बहुत समझाती पर उसके कान में जू तक ना रेंगती, आये दिन घर में तनाव-क्लेश का माहौल बना रहता। जब उसकी बीवी बुरी तरह दुखी होकर उस पर ज्यादा दबाव बनाती या लताडती तो वो मारपीट पर उतारू हो जाता। उसके दिल में घर में छोटी नन्ही-बेटी की लिहाज़ करने जैसी कोई बात नहीं थी। उसे तो सिर्फ और सिर्फ शराब ही दिखती थी।
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बेहद दुखी हो गयी थी उसकी बीवी। समझा-समझा कर थक चुकी थी उसकी बीवी, दारु-दारु-और सिर्फ दारु ही उसके पति की ज़िन्दगी रह गयी थी। बहुत बार रिश्ते-नातेदारों की पंचायत भी बैठी, लेकिन उसके पति ने किसी भी पंचायत के फैसले को नहीं माना। अब उस औरत के ज़िन्दगी में आये दिन मारपीट-गालीगलौच होना, लड़ाई-झगडा, तनाव ही रह गया था। कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था उसे, एक तो कम पढीलिखी थी और दूसरा एकदम निम्न-वर्गीय परिवार से ताल्लुक रखती थी। दूसरी शादी करने या अपने पति को छोड़ कर चले जाने की बात तो स्वप्न में भी नहीं सोच सकती थी। यही वजह थी की-"किसी भी पंचायत में इन दो बातो की तरफ तो सोच-विचार ही नहीं किया गया।" बेचारी हर बार पंचायत के सफल होने की प्रार्थना करती लेकिन ना जाने कब भगवान् उसकी पुकार सुनता और कब पंचायत सफल होती???
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उसके माँ-बाप, परिजन, शुभचिंतक सभी दुखी थे। कुछ किया तो जा नहीं सकता था, इसलिए सभी उसका हौसला बढाते और भगवान् में आस्था बनाए रखने की नसीयत देते। लेकिन, इन हौसलों और आस्था मात्र से भला कभी कुछ हुआ हैं??? हौसला और आस्था भी तभी काम आते हैं, जब लगनपूर्वक प्रयास किये जाए। बैठे-बिठाए नातो हौसला काम देता हैं और नाही आस्था। उसका दिमाग खराब हो चुका था। आलसी और शराबी पति से छुटकारा तो पाया नहीं सकता था लेकिन सुधारा तो जा सकता था। बस, इसी दिशा में उसका दिमाग चल रहा था। दिमाग चल रहा था, दिमाग कोई रास्ता ढूँढने में लगा हुआ था, तभी..........तभी.........
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तभी उसके दिमाग में एक विचार कौंधा। यह विचार दिमाग में आते ही, उस दुखियारी की बांछे खिल उठी। बिना किसी को अपना विचार-उपाय बताये, बिना किसी से (यहाँ तक की अपने माँ-बाप से भी नहीं) चर्चा किये पहुँच गयी अपने आलसी पति के कमरे में। चढ़ी दोपहरी में उसका पति अपने कमरे में दारु पीने में लीन था, इस तरह बेधड़क अपनी बीवी को कमरे में घुसता देखना उसके लिए दुनिया के किसी आठवे अजूबे से कम ना था। कभी बिना दरवाज़ा खटखटाए उसकी बीवी उसके कमरे में कभी घुसी ही नहीं थी, आखिर शान्ति-तसल्ली के साथ दारु जो पीता था.....तभी तो वह हैरान होकर, अवाक होकर अपनी बीवी को कमरे में आते देख रहा था।
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उसकी बीवी आते ही उसको सुनाने लगी-"कोई काम-धाम तो करते नहीं, सारे दिन दारु पीते रहते हो। अपनी कमाई की दारु पियो तो मुझे कोई ऐतराज़ नहीं होता, लेकिन तुम तो मेरी मेहनत के पैसे दारु पर लगा रहे हो। बहुत हो लिया, अब और ऐसा नहीं चलेगा, कमाई करके लाओ तो मानु, मुफ्त की दारु अब और नहीं मिलेगी। यह भी भला कोई तरीका हैं मैं दिनभर सिलाई-कढाई करके पाई-पाई जोडू और तुम शाम को आकर मेरे पैसे दारु-सट्टे-जुए में लुटा दो। मेरा नहीं सोचा, कोई बात नहीं, सहन कर लिया। अब बेटी भी हैं, इसके भविष्य, इसकी पढ़ाई-लिखाई की अब तो सोचिये, पहले बच्ची थी अब स्कूल जाने लायक हो गयी हैं, इसको पढ़ाना भी तो हैं। कब तक सारे दिन घर पड़े-पड़े दारु पीते रहोगे???? अब ऐसा हरगिज नहीं होगा, कमाई करो तभी दारु पीने दूंगी, वरना....."
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अभी उसकी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि-तभी जोरदार चांटा उसके गाल पर पडा और उसके शराबी पति के यह शब्द उसके कान में गूंजे-"क्या वरना?, क्या कर लेंगी तू??, क्या औकात हैं तेरी??, तू (गाली-गाली-गाली) अपने आप को समझती क्या हैं??, तेरी कमाई और मेरी कमाई में कोई फर्क नहीं हैं, समझी??, मेरी मर्ज़ी जो चाहूँगा करूंगा तू (गाली) कौन होती हैं रोकने वाली??, अगर मैं तुझे ब्याह के ना लाता तो तू कही (गाली) पर बैठी होती। आदि-आदि।" आये दिन मारपीट सहने की आदि हो चुकी पत्नी ने शायद पूरी तैयारी कर रखी थी, तभी तो उस पर इस बार की मारकुटाई का कोई प्रभाव नहीं पडा और उसने कह डाला-"अगर तुमने शराब ना छोड़ी और कमाई करना शुरू नहीं किया तो मैं तुझे अन्दर करवा दूंगी।" उसके पति के तेवर अभी भी नरम नहीं पड़े थे, एक और चांटा उसे जड़ा और घर से निकल जाने का फरमान सुना दिया। उसकी पत्नी भी शायद आखिरी लड़ाई-आर या पार करने की ठान चुकी थी, तभी तो उसने अपना उपाय बेझिझक कह दिया-"मैं इस घर से निकलूं या ना निकलूं, तुझे जेल में डलवा दूंगी। मैं तेरे खिलाफ दहेज़ मांगने और मारपीट करने का मुकद्दमा दर्ज करा दूंगी, वहाँ बैठा चक्की पीसते रहना। ऐसी गत करुँगी, कि-"दुनिया के सारे पति शराब और आलस से कोसों दूर हो जायेंगे।" अभी भी मान जा, कमाई करने की और शराब छोड़ने की तरफ ध्यान दे ले, वरना अन्दर जाने के लिए तैयार हो जा।"
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ठीक ऐसी ही क्लास उसने अपने पति की दो-चार बार और लगाईं और लड़ाई जीतने में कामयाब रही। आज उसका पति ना सिर्फ आलस्य त्याग कर अच्छी-खासी कमाई कर रहा हैं, बल्कि उसने शराब भी लगभग छोड़ ही दी हैं। इतना ही नहीं अब उनके एक बेटा भी हैं, और दोनों बच्चे शहर के महंगे, जाने-माने स्कूल में पढ़ रहे हैं। उसके पति की आय अब इतनी हैं कि ना सिर्फ उनके घर का खर्च आराम से निकल जाता हैं बल्कि काफी पैसा बचत खातो और विभिन्न स्थानों पर निवेश भी कर रखा हैं। और जब इतना सब हो तो, पत्नी को काम करने कि क्या आवश्यकता हैं? बस, अब तो उसका एकमात्र काम घर संभालना, बच्चो को पढ़ाना, और "प्रिय" पतिदेव का ख्याल रखना ही रह गया हैं।
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अभी कुछ दिनों पहले उनका कई सालो बाद हमारे घर आना हुआ। मेरी मम्मी ने, हैरानी जताते हुए, जब उनके इस हौसले और कदम की तारीफ़ की, तो उनका जवाब और भी हैरानी पैदा कर गया। उनका जवाब था-"अरे भाभी जी, इसमें कोई हौसला-वौसला जैसा कुछ भी नहीं था। मैं गुस्से में थी, इसलिए उनसे लड़ पड़ी, और लड़ाई-लड़ाई में मैंने उन्हें अपने प्लान के मुताबिक़ लपेट लिया। अक्सर गुस्से में हम लड़ पड़ते थे, इसलिए इस बार भी गुस्सा होकर लड़ रहे थे। हर बार लड़ाई में मैं उन्हें कुछ-ना-कुछ कहती थी, इस बार भी मैंने यह सब कह दिया और काम बन गया।" अब तक मम्मी को सारी बात समझ में आ चुकी थी, मम्मी बोली-"इस बार की कही बात असर कर गयी, अगर हर बार की तरह यह बात भी काम ना आती तो तेरा घर-बार-परिवार सब छुट चुका होता। तू बर्बाद हो चुकी होती......"
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तो यह था वाक्यांश। अब तो आप सबको समझ में आ गया होगा कि-"कैसे क़ानून के दुरूपयोग ने एक औरत के जीवन को नरक-तबाह होने से बचा लिया???" दोस्तों मैं क़ानून के दुरूपयोग के सख्त खिलाफ हूँ, आये दिन सुनाने-पढने-देखने को मिलता हैं कि-"दहेज़-मारपीट, आदि कानूनों का दुरूपयोग हो रहा हैं, इस लड़की ने इसे फंसा दिया या इस औरत ने क़ानून का दुरूपयोग करके इस लड़के की ज़िन्दगी तबाह कर दी, आदि-आदि।" लेकिन कही भी मैंने दहेज़-मारपीट क़ानून के सदुपयोग की बात नहीं सुनी हैं। कुछेक जगह सदुपयोग बेशक हुआ हो, लेकिन अमूमन इस क़ानून का उपयोग दुसरे को दबाने-तबाह करने में ही किया जाता हैं। अपने हिन्दुस्तान की यही तो कमी हैं, इसके क़ानून में कई लूप-होल्स (छिपे-छिद्र) हैं, यहाँ क़ानून लागू तो कर दिए जाते हैं, लेकिन उस क़ानून के दुरूपयोग को रोकने के कोई प्रभावी उपाय नहीं किये गए है। यही वजह हैं कि-"यहाँ सभी कानूनों में से सबसे ज्यादा दुरूपयोग दहेज़ क़ानून का ही होता हैं।"
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मुझे डर हैं कि-"कही इन दहेज़ कानूनों का दुरूपयोग इतना ना बढ़ जाए कि-"सरकार को यह क़ानून रद्द ही ना करना पड़ जाए" और औरते फिर से बिन-क़ानून के लाचार हो जाए।" भगवान् करे ऐसा ना हो कि-"बिना क़ानून के औरते 19वीं सदी की स्थिति में पहुँच जाए और फिर औरतो पर जुल्मोसितम का युग लौट कर पुन: आ जाए।"
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मुझे दहेज़-मारपीट क़ानून का ऐसा सकारात्मक दुरूपयोग मंजूर हैं, मैं कानून के ऐसे दुरूपयोग से सहमत हूँ। तो आइये आप और मैं मिलकर औरतो से यह आह्वान करें कि-"कीजिये क़ानून का ऐसा सकारात्मक दुरूपयोग, तभी सभी बुरे-बिगडैल पति सुधर कर, हदों में रहेंगे। तभी यह क़ानून टिका-कायम रहेगा। वरना जिस हिसाब से इस क़ानून का दुरूपयोग बढ़ रहा हैं, उस हिसाब से यह क़ानून जल्द ही वापस-समाप्त होता लग रहा हैं।"
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धन्यवाद।
FROM =
CHANDER KUMAR SONI,
L-5, MODEL TOWN, N.H.-15,
SRI GANGANAGAR-335001,
RAJASTHAN, INDIA.
CHANDERKSONI@YAHOO.COM
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Sunday, February 21, 2010

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ग्रेडिंग सिस्टम सराहनीय।

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बच्चो अब आपकी परीक्षा को एक महीना भी नहीं बचा हैं। जाहिर हैं, आप भी खेल-कूद, मौज-मस्ती को भूल कर, खूब जोर-शोर से परीक्षा की तैयारियों में डूबे हुए हो। और डूबे भी क्यों ना, आखिर पूरे साल की मेहनत का फल जो मिलना हैं। और फिर नयी कक्षा में प्रवेश करने का जोश-उत्साह भी तो हैं।

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इस बार तो नहीं पर अगले सेशन (सत्र) से ग्रेडिंग सिस्टम लागू हो जाएगा। यह निश्चित तौर पर बच्चो-छात्रो का तनाव जरूर कम करेगा। कुछ लोग ग्रेडिंग सिस्टम का विरोध कर रहे हैं, विरोधियों का कहना हैं कि-"यह छात्रो के दिलो में से परीक्षा का डर समाप्त कर देगा। बच्चे वैसे ही साल भर नही पढ़ते हैं, कम से कम परीक्षा के दिनों में तो उन्हें पढने दो। ग्रेडिंग सिस्टम बच्चो के भविष्य को बिगाड़ने वाला मामला साबित होगा। जब छात्रो में परीक्षा का डर ही नहीं रहेगा, तो क्या वो ख़ाक पढेंगे?? और जब बच्चे पढेंगे ही नहीं तो वे अपना भविष्य कैसे संवारेंगे?? कैसे अपने पैरो पर खड़े हो सकेंगे?? कैसे अपने कंधो पर जिम्मेदारियों का बोझा उठा सकेंगे??, और कैसे अपना और अपने परिवार का पेट पालेंगे??? आदि-आदि।"

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लेकिन विरोधियों के लाख तर्कों और विरोध करने को दरकिनार करते हुए मैं ग्रेडिंग सिस्टम लागू करने को सराहनीय कदम मानता हूँ। मुझे यकीन हैं कि-"पढ़ाई-लिखाई का यह सिस्टम देश में शिक्षा के क्षेत्र में एक नयी क्रान्ति का सूत्रपात करेगा। अब तक देश में पढ़ाई-लिखाई का जो रट्टा मारने वाला ढर्रा रहा हैं, उसमे उल्लेखनीय बदलाव देखने को मिलेगा। क्योंकि ग्रेडिंग सिस्टम के साथ-साथ शिक्षा-सुधार कार्यक्रम भी लागू किया जा रहा हैं।"
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मुझे लगता हैं कि-"इस कदम से छात्रो, विद्यार्थियों पर से पढ़ाई का बोझ-परीक्षा का तनाव कम होगा। विद्यार्थियों पर पढ़ाई का, परीक्षा का अनावश्यक दबाव-तनाव-बोझ नहीं पडेगा।" मैं विरोधियों से पूछना चाहता हूँ कि-"क्या आपने कभी उन बच्चो के बारे में सोचा हैं, जो परीक्षा के भारी तनाव के कारण डीप्रेशन में आ जाते हैं??, जो एक बार नाकामी झेलने के बाद पढ़ाई से ही मुंह मोड़ लेते हैं??, जो आठवी, दसवी, या बारहवी की बोर्ड परीक्षाओं में फेल-अनुत्तीर्ण होने के बाद आत्मह्त्या जैसा खतरनाक कदम उठा बैठते हैं??" आपके बच्चे होशियार हैं, आपके बच्चे टॉप करते हैं, आपके बच्चे रैंक प्राप्त करते हैं, आपके लिए ग्रेडिंग सिस्टम गलत हैं, क्यों??? क्योंकि आपके बच्चे के आसपास जिस भी बच्चे के नंबर होंगे वो आपके बच्चे के समकक्ष माना जाएगा। क्योंकि अभी तक मार्क्स स्पष्ट सामने दिखते थे, जबकि अब ऐ, बी, सी, डी,..... की तरह ग्रेड मिलेंगे।

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हमेशा अपना-अपना ही नहीं सोचना चाहिए। दूसरो का भी, ज्यादा नहीं तो कुछ, सोचना ही चाहिए। सब बच्चे एक जैसे, एक जितने होशियार-इनटेलीजेंट नहीं हो सकते, कही ना कही-कोई ना कोई फर्क तो उनमे होगा ही। वैसे ग्रेडिंग सिस्टम का विरोध करने वालो को मैं एक बात साफ़-साफ़ कह देना चाहता हूँ कि-"आपके बच्चे अगर होशियार-तेज़ हैं तो कृपया अपने बच्चे के दिलोदिमाग पर पड़ रहे दबाव को अवश्य महसूस कर लीजिएगा।"

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वैसे तो मुख्य रूप से इसका विरोध पढने-लिखने वाले होशियार छात्रो के अभिभावक ही कर रहे हैं क्योंकि-"पुराने सिस्टम में एक-एक पॉइंट का फर्क पड़ता था, लेकिन इस नवीन सिस्टम में 10-10 प्रतिशत के ग्रुप बनाएं जायेंगे, और उसी के हिसाब से ग्रेड दी जायेगी। बस, यही कारण हैं इनके विरोध-तर्कों का। क्योंकि 10 प्रतिशत के अंको वालो को एक ही ग्रुप में शामिल किया जाएगा। और ये नहीं चाहते कि-"और कोई इनके बच्चो के समकक्ष आकर खडा हो।" दुर्भाग्य से इस क्रांतिकारी शिक्षा-प्रणाली का विरोध कमजोर-पिछड़े बच्चो के अभिभावक भी कर रहे हैं। यह अलग बात हैं कि-"उनका विरोध कुछ हलके स्वर में-दबी आवाज़ से हो रहा हैं क्योंकि यह इस बात को अपने पक्ष में ले रहे हैं कि-"इनके बच्चे बिना पढ़े-बिना मेहनत अपने अंक-प्रतिशत को बढ़ा सकते हैं। वो ऐसे, मान लीजिये इनके 61 प्रतिशत अंक आये हैं तो यह आसानी से यह कह सकते हैं कि इनके 70 प्रतिशत अंक आये हैं।" बस, इसी कारण से इन छात्रो के अभिभावकों का विरोध मुखर नहीं हैं।"

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कृपया मुझे आप यह बताइये कि-"ग्रेडिंग सिस्टम आने से क्या हो जाएगा?? क्यों आपने ग्रेडिंग सिस्टम का हौव्वा बना रखा हैं?? क्या इस नए सिस्टम के आने से आपका बच्चा पढ़ना बंद कर देगा?? बच्चे ग्रेडिंग सिस्टम का स्वागत कर रहे हैं, इसका मतलब यह नहीं हैं कि, वे पढ़ना नहीं चाहते और इस सिस्टम में उन्हें कम पढ़ना पडेगा। कही बच्चो का स्वागत ही आपके विरोध का कारण तो नहीं हैं?? सोचिये, इस नए सिस्टम के आने से आपका बच्चा क्या पढ़ना शुरू नहीं कर देगा?? क्या इस नए सिस्टम से आने से आपके बच्चे पर से पढ़ाई का, परीक्षा का तनाव कम नहीं होगा?? क्या इस नए सिस्टम से हमारी शिक्षा-प्रणाली में, देश में शिक्षा का स्तर ऊँचा नहीं होगा?? आदि।

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ऐसे तो आप अपने बच्चो को सुखी देखना चाहते हैं, लेकिन आपके बच्चो के चेहरे से झलकता परीक्षा-एग्जाम का तनाव आपको नहीं दिखता। बच्चो की ख़ुशी में ही आप अपनी ख़ुशी मानते हैं, लेकिन आपको बोझिल-ऊबाऊ पढ़ाई और रट्टा मार कर नंबर लेने, जैसी पढ़ाई से दुखी होते आपके अपने नौनिहाल नहीं दिखते। बच्चो को आप अपनी जान से भी चाहते हैं, लेकिन रटकर नंबर लाने के चक्कर में बच्चे की जान पर बन आती हैं, यह आप नहीं समझते। बच्चा जब अन्य कारणों से बीमार होता हैं तो आप अपना खाना-पीना भूल जाते हैं, लेकिन जब आपका बच्चा परीक्षा के अनावश्यक-भारी मानसिक दबाव-तनाव के कारण बीमार होता हैं, चिडचिडा हो जाता हैं, तनाव में खाना-पीना भूल जाता हैं, और खान-पान की अनियमितता के कारण जी घबराना-चक्कर आने जैसी दिक्कते आती हैं तो आप उसे चिकित्सक के पास ले जाने की बजाय महज थोड़ा आराम करने की सलाह दे डालते हैं। यह तो सरासर नाइंसाफी हैं इन छात्रो के साथ।

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यह सिस्टम-विस्तम के चक्कर में मत पड़िये, अपने दिल की आवाज़ सुनिए, दिमाग की हरगिज़ मत सुनिए, दिमाग नैतिक-अनैतिक, सही-गलत, आदि चीज़े नहीं देखता हैं, अपने ज़मीर-दिल की आवाज़ को ध्यान से सुनिए, दिल वही कहेगा जो आपके बच्चो के लिए, आपके बच्चो के भविष्य के लिए लाभदायक होगा। उसी सिस्टम का समर्थन कीजिये, जिससे आपका बच्चा मन लगाकर पढ़ सके, ताकि वो भविष्य में कुछ कर या बन सके। विरोध करना हैं, तो मौजूदा-पुराने सिस्टम का कीजिये, स्वागत करना हैं, तो नए प्रस्तावित सिस्टम का कीजिये, और विरोध ही करना हैं, तो इस नए-नवीन सिस्टम का विरोध करने वालो का कीजिये।

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वैसे लोग जो भी कहे, अभिभावकों को जो मर्ज़ी डर सता रहा हो, विरोधियों के जो भी-जैसे भी तर्क-वितर्क हो में तो सिर्फ एक ही बात जानता/मानता हूँ कि-"जिन बच्चो को पढ़ना होता हैं, वो किसी भी दुरूह हालात-विषम परिस्थितियों में, और किसी भी सिस्टम में पढ़ सकते हैं। और जिन बच्चो को पढ़ना ही नहीं होता, उन्हें आप किसी भी सुख-सुविधा, ऐशोआराम से, और कैसे भी सिस्टम में नहीं पढ़ा सकते।"

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धन्यवाद।


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Tuesday, February 16, 2010

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भजभज मंडलियों, भगवाधारियों को हैप्पी वैलेंटाइन डे।
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सर्वप्रथम मैं आपसे माफ़ी चाहूँगा कि-"इंटरनेट की किसी तकनीकी खराबी/खामी के कारण मैं यह लेख ठीक वैलेंटाइन डे के दिन पोस्ट नहीं कर पाया, लेकिन फिर भी मेरा लगातार यह प्रयास रहा कि-"जल्द से जल्द यह लेख पोस्ट कर सकू।" लगातार कोशिशो के बाद भी मैं यह पोस्ट वैलेंटाइन डे के दो दिन बाद पोस्ट कर पाया हूँ। देरी के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ। वैसे तो यह मेरा अपना निजी ब्लॉग हैं, लिखू ना लिखू, लेकिन मेरी ऐसी सोच नहीं हैं। मैं अपने पाठको के लिए ही लिखता था, लिखता हूँ, और लिखता रहूंगा। अगर मेरे पाठक ही नहीं होते तो मेरा लिखना व्यर्थ होता, इसलिए मेरे ब्लॉग पर मुझसे कहीं ज्यादा हक़-अधिकार मेरे ब्लॉग के पाठको का हैं। देरी के लिए मैं अपने ब्लॉग के पाठको से पुन: क्षमाप्रार्थी हूँ।"
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सभी प्रेमियों (सच्चे और पवित्र प्रेमी लोग ही) को और वैलेंटाइन डे मनाने वालो को मेरी तरफ से हार्दिक शुभकामनाएं। आज के दिन का सभी लोगो को बेसब्री से इंतज़ार रहता हैं, और रहे भी क्यों ना आखिर प्रेम का जो दिन हैं। लेकिन, ना जाने क्यों कुछ लोगो को इस दिन से नफरत-चिद्द सी हैं?? जब देखो प्रेम के इस पवित्र पर्व का विरोध करते रहते हैं, प्रेमियों की जान के पीछे हाथ धोकर पड़े रहते हैं।
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इनका यह विरोध किसी नाटक-नौटंकी से कम नहीं हैं। साल भर घर बैठे रहते हैं, और ठीक वैलेंटाइन डे के दिन ना जाने विरोध-प्रदर्शन करने कहाँ से निकल आते हैं???? कुछ उदाहरण जो मेरी इस बात की सच्चाई की पुष्टि करेंगे =
1. आज से तीन-चार साल पहले की बात हैं, इन्ही भजभज मंडली वालो ने शहर के कई रेस्तरां में तोड़फोड़ की और वहाँ बैठे प्रेमियों को डरा-धमका कर (कुछेक को मारपीट कर) भगा दिया। और शायद आप लोगो को यकीन नहीं होगा कि-"इस घटना के कुछ ही दिनों बाद अपने आप को नेता कहने वाला यह भगवाधारी राजधानी (जयपुर) के पंचसितारा होटल में एक युवती के साथ गुलछर्रे उड़ा रहा था।" यहाँ साफ़ कर दूं कि-"इस कथित नेता के भाई ने ही मुझे सारी बाते बताई थी, इतना ही नहीं उसने कुछ फोटोग्राफ्स भी मुझे दिखाए थे।"
2. ठीक इसी तरह, पिछले साल भी बाज़ार में विरोध-प्रदर्शन कर रहे एक भगवा दल के कार्यकर्ता (जोकि मेरे दोस्त का छोटा भाई था) से मैंने जब वैलेंटाइन का मतलब और विरोध करने का कारण पूछा तो उसका ज़रा जवाब देखिये-"ओह भैया, मैं तो ऐसे ही इनके (किसी की तरफ इशारा करते हुए) साथ आ गया, ये मेरे मोहल्ले में ही रहते हैं।"
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तो यह हैं इन सबकी हकीकत। दोस्तों कुछ समझ में आया??? पहले उदाहरण में एक नेता संकीर्ण-तुच्छ विचारों और हिंसा से अपनी राजनीति को चमकाना चाहता हैं और जब मूड करे शहर से बाहर (जहां कोई जानने-पहचानने, और देखने वाला न हो) आराम से गुलछर्रे उड़ा सके। दुसरे उदाहरण में विरोध-प्रदर्शन करने वाले कार्यकर्ता भाड़े के हैं, जिन्हें रत्ती भर भी जानकारी नहीं होती हैं। इस दुसरे उदाहरण से यह भी साफ हो जाता हैं कि-"ये लोग कैसे-कैसे तिकड़म भिड़ा कर भीड़ जुटाते हैं और ये भीड़ इनकी रीति-नीतियों के प्रति कितनी वफादार होती हैं???"
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दोस्तों, उपरोक्त दोनों या इनसे मिलतेजुलते उदाहरण आप लोगो ने भी देखे-सुने होंगे। इन लोगो के विरोध कोई मकसद या महत्तव के लिए नहीं होता हैं, इनका लक्ष्य तो हिंसा और ऐसे कारनामो से खुद को हाईलाईट करना होता हैं। ये चाहते हैं कि-"इनकी फोटो-नाम-खबर अखबारों में छपे और लोगो में इनके प्रति खौफ पैदा हो। भारतीय संस्कृति-मूल्यों से इनका कोई वास्ता नहीं होता हैं, इनका वास्ता तो भारत के नाम पर, संस्कृति-मूल्यों के नाम पर वोट लेना या अपनी नेतागिरी चमकाना होता हैं।"

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कुछ सवाल जो मैं इन भजभज मंडलियों और भगवाधारियों से आपके-अपने इस ब्लॉग के माध्यम से पूछना चाहूँगा =
आप वैलेंटाइन डे का विरोध क्यों करते हैं??
आप प्रेम करने को बुरा मानते हैं या नहीं??
अगर हाँ तो फिर शास्त्रों को, कृष्ण जी को नहीं मानना चाहिए, क्योंकि वे तो प्रेम का सन्देश देते हैं।
अगर नहीं तो फिर आप प्रेमियों को हिंसा करके डराते-धमकाते-भगाते क्यों हैं??
अश्लीलता का विरोध कीजिये, शालीनता से बैठे लोगो पर हमला क्यों???
लड़का-लड़की का साथ बैठना, घूमना क्या गलत हैं??
मुसलमानों की कट्टरता का आप विरोध करते हैं, और अब आपका कट्टरता पर उतरना सही हैं??
साल भर सडको पर, स्कूल-कालेजो के आसपास मजनू टाइप लड़के घुमते रहते हैं तब आप कहाँ होते हैं??
सरेआम लड़कियों-युवतियों के साथ छेड़छाड़ होती रहती हैं, तब आप क्या कुम्भकरणी नींद सो रहे होते हैं??

देशभर के सभी शहरो में अश्लील फ़िल्मी पोस्टर लगे होते हैं तो क्या वो आपके अपने अंदाज़ में शहर का सौन्द्रयिकर्ण हैं??
इन अश्लील पोस्टरों से क्या आपका सिर गर्व से ऊंचा उठ जाता हैं???
प्रेम दिवस का विरोध आप किस मुंह से करते हैं?? आपके अपने नेता-कार्यकर्ता दागी हैं।
सच्चे प्रेम और वासना भरे प्रेम में क्या आप फर्क जान सकते हैं??
क्या आप किसी के अन्दर झाँक कर देख सकते हैं, कि-वहाँ सच्चा प्यार हैं या वासना का प्यार???
अगर देख सकते हैं तो इस बात की क्या गारंटी हैं कि-वर्तमान का सच्चा प्यार आगे चलकर वासना में नहीं बदलेगा??

कही ऐसा तो नहीं, इन प्रेमियों के हँसते-मुस्कुराते चेहरों को देखकर आपको जलन होती हो??
खजुराहो के मंदिरों को स्थापत्य-कला का बेजोड़ नमूना बताते हुए, आप क्यों इन्हें पर्यटक स्थलों के रूप में विकसित/पेश करते हैं??
जबकि खजुराहो (मध्यप्रदेश) में आपकी ही सरकार हैं, तोड़ क्यों नहीं देते इन कथित रूप से अश्लीलता परोस रहे मंदिरों को????

क्यों आप इन पर्यटक स्थलों को बंद नहीं कर देते??
क्यों आप इनके रखरखाव, सुरक्षा, आदि मदों में लाखो रूपये खर्च करते हैं??

लेकिन दुर्भाग्य से आप ऐसा नहीं कर सकते, आखिर वहाँ आपकी अपनी सरकार जो हैं।

वैलेंटाइन को पाश्चात्य त्यौहार बताते हुए आपका विरोध करना कितना उचित हैं???

राष्ट्रीय त्यौहारों (होली-दिवाली-नववर्ष-बैसाखी-आदि) के प्रति लोगो के घटते रुझान को लेकर आप कुछ क्यों नहीं करते??

आप लोग वैलेंटाइन का विरोध विदेशी परम्परा बताते हुए करते हैं, तो फिर विदेशो में रह रहे भारत-वंशियों को होली-दिवाली, आदि मनाने का क्या हक़ हैं??

अगर आपकी तरह सब लोग करने लग जायेंगे तो कनाडा, अमेरिका, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया, आदि देशो में बसे सिखों को बैसाखी, गुरुपर्व वहाँ कौन मनाने देंगा??

आप भारतीय संस्कृति के ठेकेदार बनते-फिरते हैं, लेकिन आप ही संस्कृति के लिए किसी अभिशाप से कम नहीं हैं।

भारत में तेज़ी से बढ़ रहे बलात्कार, यौन शोषण के आंकड़ो से क्या संस्कृति और मूल्यों में गिरावट नहीं आती हैं???

सरेआम लड़के-लड़कियों को भाई-बहन बनाकर राखी बंधवा देना कहाँ का तरीका हैं???
कोई अश्लीलता या असभ्य व्यवहार अगर कही होता मिले, तो पुलिस किसलिए हैं??

सार्वजनिक स्थानों पर अश्लीलता फैलाने का मुकद्दमा क्यूँ नहीं दर्ज करा देते??

प्रेम-प्यार का उलटा मतलब प्रेमी लोग निकाले या ना निकाले लेकिन आप जरूर निकालेंगे।

ये भी कहाँ का तरीका हुआ, लड़के के हाथो लड़की की मांग में जबरन सिन्दूर भरवा देना??

हो सकता हैं, उन्होंने भविष्य में शादी करने की सोच रखी हो??

ये भी हो सकता हैं, वे अपने-अपने माता-पिता को शादी के लिए मनाने की कोशिशे कर रहे हो??

कर दिया ना आपने गुड-गोबर??

अच्छा भला, उनके माँ-बाप सहमत होने वाले थे, कि-"आपके कारण वे अपने निर्णय से पलट गए, यह कहते हुए-तुमने तो सारे शहर में नाक कटवा दी।"

किसी लड़के-लड़की के मिलनेजुलने से क्या पाप हो जाता हैं??

हकीकत में आप लोग लडको को तो मारपीट कर भगा देते हैं और लड़कियों के साथ छेड़छाड़ करते हुए आनंदित होते हैं। रोती-बिलखती-कलपती हुयी और हाथ जोडती लड़कियों से आप आत्म-संतुष्टि महसूस करते हैं।

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आपका विरोध एकदम झूठा-थोथा हैं, शर्म आनी चाहिए आपको विरोध करते हुए। आपके आगे (मंदिरों में) कोई चढ़ावा चढाते हुए अपने प्यार के लिए दुआ मांगे तो आप बड़े खुश होते हैं। चुनावों में आप लोगो को सुशाषण, क़ानून की सख्ती से पालना कराने, आदि बातों, लच्छेदार भाषणों से मतदाताओं को बरगलाते हैं और बाद में आप लोग ही वैलेंटाइन डे आदि मौको पर कार्डो, गिफ्ट आइटमो की दुकानों पर तोड़फोड़ करना, कार्डो की होली जलाना, रेस्तरां-होटल आदि स्थानों पर जा कर प्रेमियों के साथ अभद्र-हिंसक व्यवहार करना, लड़कियों के बाल खींचना और गालीगलौच करना, लडको के साथ मारपीट करना, होटल/रेस्तरां का नुकसान कर देना, आदि कृत्य करते हैं। तब क्या क़ानून व्यवस्था बहुत अच्छी हो जाती हैं??

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एक तरफ आप लोग (साधू-संत-महात्मा) ही लोगो को प्रेम करने, प्रेम से रहने के उपदेश देते हैं, और दूसरी तरफ आप लोग ही प्रेमियों पर बाज़-चील की तरह टूट पड़ते हैं। लोग बेचारे करे भी तो क्या करे?? लड़का-लड़की का साथ बैठना आपको सुहाता नहीं हैं, और आपके आश्रमों-मस्जिदों-चर्चो में सारी हदे पार करदी जाती हैं। अश्लीलता आपके विचारों में हैं, अश्लीलता आपके अपने अन्दर हैं, जिसे आप निकालना ही नहीं चाहते। आप लोग कहते हैं कि-"प्रेम का कोई एक दिन नहीं होता, यह भी कोई तरीका हुआ??, प्रेम तो साल भर होना चाहिए।" लेकिन में आप लोगो से कहना चाहता हूँ कि-"आजकल की भागदौड़ भरी, तनाव भरी, व्यस्त से व्यस्तम जिंदगी में अगर किसी को पल-दो पल प्यार करने का मौक़ा मिले तो क्या बुरा हैं?? इसी बहाने लोगबाग अपनी ज़िन्दगी को तनाव, टेंसन, आदि मानसिक परेशानियों से मुक्त कर पाते हैं।"
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वैसे मेरा तो दिल करता हैं कि-"काश वैलेंटाइन डे साल में एक बार आने की बजाय कम से कम महीने में एक बार जरूर आये, ताकि मैं, आप, और हम सब इसी बहाने ज़िन्दगी को नए ढंग से, ख़ुशी से, हँसते-मुस्कुराते हुए, प्रेम-प्यार से जी सके।"

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विशेष अपील = "वैसे इन भजभज मंडलियों, भगवाधारियों से नफरत ना करे, इन्हें भी भरपूर प्रेम करे। आखिर मैं, आप, और हम सब प्रेम दिवस जो मना रहे हैं। और जब प्यार-प्रेम का पर्व यानी वैलेंटाइन डे मना ही रहे हैं तो फिर क्यों ना हम अपने दुश्मनों (भजभज मंडलियों, भगवाधारियों) से भी नफरत कि जगह प्यार करे?? क्या पता अपना प्यार देखकर इन्हें कुछ भूल का एहसास हो और कल तक जो प्रेमियों के भक्षक थे वे अब रक्षक (विरोधियों से बचाने वाला) बन जाए??? और वैसे भी प्रेम सबसे किया जाना चाहिए, ना कि किसी एक से। तो फिर आइये इन भजभज मंडलियों और भगवाधारियों को हैप्पी वैलेंटाइन डे कहे।"

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धन्यवाद।

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CHANDER KUMAR SONI,

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Wednesday, February 10, 2010

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नफरत मत कीजिये, गले लगाइए उन्हें।
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दोस्तों, जब भी कोई हमें हमारी गलती बताता हैं या हमारा झूठ पकड़ता हैं, तो हम उसे नज़रअंदाज़-इग्नोर करना शुरू कर देते हैं। हमें ऐसा कदापि नहीं करना चाहिए, जो कोई भी हमें हमारी गलती बताता हैं या हमारा झूठ पकड़ता हैं, वो हमारा सच्चा हितेषी होता हैं। हमें उसे गले लगाना चाहिए, उसे अपना सच्चा मित्र मानना चाहिए। लेकिन, हम अक्सर इसके उलट ही करते हैं, हम उसे अपना विरोधी-प्रतिद्वंद्वी-दुश्मन समझने लगते हैं। हमें उससे नफरत होने लगती हैं, हम उससे बचने-दूर जाने का हरसंभव प्रयास करने लगते हैं। जोकि, मेरी नज़र में, मेरे विचारों में गलत हैं। हमें इस प्रवृति से बचना चाहिए।
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हम यह नहीं सोचते कि-"ऐसा कर वो हमें हमारी भूल का अहसास कराना चाहता हैं। झूठ बोलना हमें उस क्षण-उस वक़्त तो तात्कालिक लाभ पहुंचा सकता हैं, लेकिन इसके दूरगामी नुक्सान बहुत हैं।" हम यह क्यों नहीं सोचते कि-"जब कोई हमारा झूठ नहीं पकड़ पाता या कोई हमें झूठ बोलने से नहीं रोकता तो हमें झूठ बोलने की आदत पड़ जाती हैं। बात-बात पर, मौके-बेमौके हम झूठ-पर-झूठ बोलने लगते हैं।" उस वक़्त हमें बहुत आनंद की अनुभूति होती हैं, हम मन ही मन खुश होने लगते हैं कि-"कोई हमें झूठ बोलते पकड़ ही नहीं पाया" और देखते ही देखते हम झूठे कब कहलाने लगते हैं, इसका हमें पता ही नहीं चलता।
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और झूठे साबित हम कब हो गए??, इसका पता हमें बहुत देरी से लगता हैं, और जिस वक़्त हमें इस कटु-सत्य का पता चलता हैं, तब तक सब कुछ समाप्त हो चुका होता हैं। हम पर कोई अपना भी भरोसा-विश्वास नहीं करता हैं, पराया तो दूर की बात हैं। झूठे घोषित होने के बाद हम कुछ भी नहीं कर सकते हैं, सब कुछ हमारे हाथो से निकल चुका होता हैं। हम व्यापार नहीं कर सकते, क्योंकि लोग हमपर हमारे झूठ की वजह से विश्वास नहीं करेंगे, जोकि व्यापार के लिए परम-आवश्यक हैं। हम आपात-स्थिति में किसी की मदद भी नहीं मांग सकते, क्योंकि हम हमारे झूठ के कारण सभी से कट चुके होते हैं। हम रिश्ते-नातों-संबंधो को आगे बढाने की-मजबूत करने की बात नहीं कर सकते, क्योंकि सच सभी रिश्तो का आधार हैं, सच सभी रिश्तो-नातों-संबंधो में मजबूती लाने की रामबाण औषधि हैं। जिसका झूठे लोगो के पास नितांत अभाव होता हैं। झूठा व्यक्ति अकेला रह जाता हैं, यहाँ तक कि-"झूठे लोग भी उसका साथ नहीं देते।"
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आपको शायद बचपन में पढ़ा एक पाठ याद होगा, जिसमे एक गडरिया (बकरियां चराने वाला) भेड़िया आया-भेड़िया आया कह कर रोज़ झूठ बोलता था, और एक दिन जब सच में भेड़िया आ गया तो उसका चिल्लाना काम ना आया। क्योंकि वो अन्य लोगो में झूठा व्यक्ति साबित हो चुका था, इसलिए लोगो ने उसके चिल्लाने को हल्क़े में लिया, और भेड़िया उसकी सारी बकरियों को अपना भोजन बना गया।" दोस्तों, यह तो सिर्फ एक कहानी थी, लेकिन ऐसा आपके साथ सच में भी हो सकता हैं। अगर आपकी छवि एक बार झूठे की बन गयी, तो उसे बदलना आपके लिए नामुमकिन हो जाएगा।
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याद रखिये-"अच्छी छवि बनाना बेहद मुश्किल हैं और छवि बिगाड़ना बेहद आसान। आप दो-चार झूठ बोलने मात्र से झूठे घोषित हो जायेंगे, लेकिन पचास-सौ सच बोलने के बाद ही आपकी छवि सच्चे आदमी की बन सकेगी।" सच बोलना एक-दो बार मुश्किल लगेगा, लेकिन जब आपको सच की आदत पड़ जायेगी तो आप खुद को बहुत अच्छा और हल्का महसूस करेंगे। झूठे आदमी को कोई चैन नहीं होता हैं, उसे पलपल झूठ के सामने आने का डर सताता रहता हैं। लेकिन, इसके उलट सच्चे व्यक्ति को कोई भी-किसी भी प्रकार का डर नहीं होता हैं, वह चैन की नींद सोता हैं। झूठे आदमी को हर वक़्त सबकुछ दिमाग में बिठा कर रखना होता हैं कि-कोई यह पूछेगा तो यह बताना हैं, और यदि वह पूछेगा तो वह बताना हैं। बिना वजह उसके दिमाग में फ़ालतू का बोझ पडा होता हैं। जबकि सच्चे आदमी को कोई मानसिक-दिमागी बोझ नहीं रखना होता हैं, उसे तो बस सच का दामन थामे रखना होता हैं, जो कोई भी-कुछ भी पूछेगा उसे जस का तस बता देना हैं। उसे किसी भी तरह की प्लानिंग या चालाकी की जरुरत नहीं पड़ती हैं। अगर आपको सरल-सरस-और सहज जीवन जीना हैं, तो झूठ का दामन छोड़कर सच का दामन थामना ही होगा।
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यह तो थी झूठ और सच की बात, अब बात करते हैं गलती की। गलतियां करना मानव का स्वाभाविक गुण हैं या यूँ कहिये कि-"इंसान गलतियों का पुतला हैं, और जो गलतियां ही ना करे वो इंसान कैसा???" गलतियां बुरी या बड़ी नहीं होती हैं, गलतियां करना बुरा नहीं होता हैं, बुरा होता हैं गलतियों को ना मानना या ना सुधारना। सीखने की पहली सीढ़ी गलतियां करना ही हैं। बल्ब का आविष्कार करने वाले अल्बर्ट आइन्स्टीन ने बल्ब के आविष्कार करने से पहले दो हज़ार गलतियां की थी। अब क्या कहेंगे इसे??, क्या दो हज़ार गलतियां करना उनकी बेवकूफी थी?? नहीं बिलकुल नहीं, पहली बात तो उन्होंने अलग-अलग गलतियां की थी, दूसरी बात जन-जन के लोकप्रिय और उपयोगी आविष्कार के लिए दो तो क्या दस हज़ार गलतियां भी माफ़ की जा सकती हैं। अगर वे बार-बार एक ही गलती को दोहराते तो निश्चित रूप से बेवक़ूफ़ कहलाते।
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बार बार गलती करने वाला व्यक्ति कामयाबी भी हासिल नहीं कर सकता हैं, अलग-अलग गलतियां हो तो अलग बात हैं। गलतियां करना बुरा नहीं हैं, गलतियों को दोहराना-गलतियों को ना मानना बुरा हैं। आपकी बार-बार होने वाली एक ही गलती, आपकी तरक्की की राह में बाधा-रोड़ा हैं। झूठा आदमी भी अपनी नकारात्मक छवि के कारण कामयाबी हासिल करने में नाकाम रहता हैं। झूठा आदमी किसी के भरोसे को नहीं जीत सकता हैं, विश्वास होना-भरोसा होना आजकी सबसे बड़ी आवश्यकता हैं। बिना भरोसे के आप कुछ भी नहीं कर सकते हैं, बिना सच के आप कुछ भी नहीं कर सकते हैं। जीवन के हर क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए, तरक्की के लिए आपको झूठ और गलतियों से बचना होगा। आपकी सफलता का एकमात्र मूलमंत्र यही हैं कि-"आप कभी झूठ ना बोले, आप हमेशा हर स्थिति-परिस्थिति में सच का दामन थामे रखे, आप गलतियां करे लेकिन उन गलतियों को सहर्ष माने ही नहीं बल्कि सुधारे भी, और एक ही गलतियों की बारम्बार पुनरावर्ति बिल्कुल भी ना करे।"
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गलतियां और झूठ हमारे असली-पक्के दुश्मन हैं। हमें झूठ बोलने से रोकने वाला, हमारे झूठ को पकड़ने वाला, हमें गलतियां करने से रोकने वाला, हमें हमारी गलतियां बताने वाला तो हमारा सच्चा हितेषी हैं। हमारा असली मित्र, हमारा सच्चा साथी, हमारा हमदर्द, ये लोग ही हैं। जो लोग हमारे झूठ बोलने पर हमारी वाहवाही करे, हमारा साथ दे और हमारे गलतियां करने पर हमें ना बताये/रोके वो हमारा सच्चा दोस्त कैसे हो सकता हैं??? उससे बड़ा हमारा बैरी-दुश्मन तो कोई और दुनिया में हो ही नहीं सकता। अरे कोई कुँए/खाई कि तरफ बढ़ रहा हो, तो उसे रोकना/बचाना दोस्त का फ़र्ज़/कर्त्तव्य होता हैं। झूठ और गलतियां हमारे लिए किसी कुएं/खाई से कम नहीं हैं, और जो हमें झूठ और गलतियों से ना बचाए, वो हमारा मित्र-हितेषी कैसे हो सकता हैं??
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हाँ, झूठ पकड़ने और गलती बताने का तरीका हर किसी का अलग-अलग हो सकता हैं। कुछ लोग आपका मज़ाक उड़ा सकते हैं, कुछ लोग आपकी गलतियों को देखकर हंस सकते हैं, या कुछ लोग आपके साफ़-सफ़ेद झूठ को पकड़ कर आपका मखौल बना सकते हैं। हो सकता हैं कि-"आपको किसी का झूठ पकड़ना या गलती बताने का तरीका पसंद ना आये, लेकिन अपनी भलाई-अपने सुखद भविष्य के लिए आप इसे नज़रअंदाज़ कर सकते हैं। कर सकते हैं????, करना ही चाहिए।" आपका सच्चा मित्र हैं वो, आपके जीवन-आपकी तरक्की की राह में मौजूद झूठ-गलतियों रुपी इन रुकावटों-बाधाओं-और रोडो को हटाना चाहता हैं वो। आपका ध्यान आपकी गलतियों और झूठ की तरफ दिलाना चाहता हैं आपका यह हितेषी-सच्चा दोस्त। इसलिए इनसे नफरत करने, इग्नोर करने, दूर भागने, या अपना दुश्मन समझने की बजाय इनका खुले दिल से आभार व्यक्त कीजिये, इन्हें अपने गले लगाइए। फिर देखिये, ये कैसे आपकी पूरी ज़िन्दगी को बदल देते हैं, कैसे आपके राह को आसान (कांटो-रहित) बनाते हैं........
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क्या आप लगायेंगे इन्हें गले?????
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धन्यवाद।
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CHANDER KUMAR SONI,
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Thursday, February 04, 2010

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कृपया किन्नरों (हिजडो) की तरफ भी देखिये।
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हमारी नज़रे समाज के, देश के कोने-कोने में मौजूद दुखियों-पीडितो की तरफ तो चली जाती हैं। लेकिन, समाज के ही एक भाग किन्नरों की तरफ नहीं जाती हैं। किन्नरों का दुर्भाग्य देखिये, सरकार भी किन्नरों को एक प्रकार से देश के नागरिको का भाग ही नहीं मानती हैं। हिजड़े वैसे ही प्राकृतिक आपदा के मारे हुए हैं, ऊपर से समाज इन्हें मुख्यधारा में स्वीकार नहीं करता।
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मुझे समझ में नहीं आता हैं कि-"लोग/कम्पनियां उन्हें नौकरियों पर क्यों नहीं रखती हैं??? नौकरियों के लिए दिमाग चाहिए, नाकि लिंग। फिर क्यों इन्हें उनके हक़ से वंचित रखा जाता हैं??" सरकारी या निजी नौकरियां तो दूर इन्हें आम दुकानों या मजदूरी करने के लिए भी नहीं रखा जाता। उन्हें मजदूरी करने तक से रोकने वालो से पूछा जाना चाहिए कि-"उन्हें मजदूरी करानी हैं, माल/बोझा उठवाना हैं या बच्चे पैदा कराने हैं, यौन संतुष्टि प्राप्त करनी हैं???" यह सरासर हिजड़े लोगो के साथ अन्याय हैं, कब तक चलता रहेगा ऐसा अन्याय का खेल???
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अरे बेचारों के साथ ऐसा सलूक/जुल्म तो ना करो, कुछ तो रहम कीजिये। ऐसे तो आप गुड-हरा खिला कर पुण्य कमाने के लिए गली-गली गायो-गौधो को ढूंढते फिरते हैं, और जब जरूरतमंद (हिजड़े) खुद चलकर आपके द्वार पर आते हैं, तो आप ही उन्हें दुत्कार-फटकार कर भगा देते हैं। सरकार भी इनके प्रति उदासीन हैं, सरकार के लिए तो हिजड़े होना ना होना एक बराबर हैं। अरे आरक्षण की बात कौन कह रहा हैं, पर यह तो बताओ किस अधिकार से आपने किन्नरों को नौकरियों से दूर रखा हुआ हैं???? किन्नर भी भारत के ही नागरिक हैं, उन्हें भी संविधान के प्रावधानों के तहत मौलिक अधिकार उपलब्ध हैं। सरकार सरकारी नौकरियों में तो अल्पसंख्यको (मुसलमानों) की स्थिति का सर्वे/आंकलन कराती रहती हैं, लेकिन हिजडो के लिए ऐसा कुछ नहीं किया जाता हैं।
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सरकार तो सरकार, आम आदमी भी हिजडो के साथ नाइंसाफी कर रहा हैं। बाज़ार में हिजडियाँ जब निकलती हैं, तो आम लड़कियों से कही ज्यादा स्मार्ट-सुंदर लगती हैं। उनके हिजड़े होने का एहसास उनके ताली पीटने और पहनावे से होता हैं। अगर हिजडियाँ ताली ना पीटे और पहनावा बदल दे तो आम आदमी धोखा ही ना खाए वरण उनपर लट्टू भी हो जाए। इसलिए मैं जानना चाहता हूँ कि-"आम दुकानदार सेल्सगर्ल लड़की की बजाय हिजड़ी क्यों नहीं रख सकते???" यह हंसने की बात नहीं हैं, यह एक गंभीर सवाल हैं। लड़कियों को भी ट्रेन्ड-सिखाया जाता हैं, वे कोई ऊपर से सीख कर नहीं आती हैं। इसी तरह अगर हिजडो को भी सिखाया जाए तो वे भी बहुत कुछ सीख सकते हैं, काम-धंधा करके अपना पेट भर सकते हैं।
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रही बात इनके गुंडागर्दी करने और जबरन वसूली करने की, तो इसके ज़िम्मेदार भी हम ही हैं। हमने इन्हें मजदूरी तक नहीं करने दी, हमने इन्हें नौकरियों से ही वंचित रखा। तो क्यों यह अपराधी नहीं बनेंगे?? इनकी कमाई का साधन एक मात्र यही हैं कि-"जब किसी के घर लड़का हो तो बधाई लेले या होली-दिवाली बधाई लेले।" और अब तो वो भी नहीं रहा, आखिर लोगो ने "हम दो हमारे दो" जैसी नीति जो अपना ली हैं। कई जगहों (बड़े-मेट्रो शहरों में) तो "हम दो हमारा एक" जैसी नीति भी अपना ली गयी हैं। इनका धंधा मंदा पड़ रहा हैं, ऊपर से सरकार और हम इन्हें मजदूरी, नौकरियों और अन्य कमाने के साधनों से वंचित रखे हुए हैं। मरता आदमी क्या नहीं करता???, अरे लोग तो राह चलते-फिरते लोगो को लूट लेते हैं, लोग चोरी करते हैं, डाका डालते हैं। यह बेचारे (किन्नर-हिजड़े) ऐसा कुछ तो करते ही नहीं हैं, बस होली-दिवाली त्यौहार पर या लड़का होने पर जबरन वसूली करते हैं। वो भी हर कोई नहीं करता हैं, कोई-कोई हिजड़ा ऐसा करता हो, तो कह नहीं सकते।
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लेकिन इसके भी ज़िम्मेदार हम ही हैं, अगर हम उन्हें (हिजडो को) मेहनत-मजदूरी करने दे, सरकार व अन्य निजी कम्पनियां इन्हें नौकरियां देने लग जाए, और इन्हें अन्य साधनों से कमाने दिया जाए, तो क्यों ये अपराध करेंगे??? इनकी मजबूरियां ही इनसे (किन्नरों से) जबरन-वसूली कराती हैं। यह ख़ुशी के मारे धन वसूलने नहीं जाते हैं, यह देश-समाज-और सरकार की उदासीनता से हताश-निराश होकर ऐसा कार्य करने को विवश होते हैं।
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मेरा दिल कहता हैं कि-"अगर हम इन्हें मुख्यधारा में शामिल कर लेंगे, तो यह समाज के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं, यह अपना काम-धंधा करके, मेहनत-मजदूरी-नौकरी करके अपना पेट पाल सकते हैं। हो सकता हैं कि-"इनकी इतनी कमाई हो की, इन्हें सरकार को टैक्स तक अदा करना पड़े।" दान-दक्षिणा करके भी यह अन्यो की मदद कर सकते हैं, अगर हम (देश-समाज-सरकार) इन्हें अपना ही भाग माने। अगर हम इन्हें अपना मानेंगे, ये आम व्यक्ति की तरह सामान्य जीवन जीने लगेंगे, तो ये अपने बलबूते बहुत कुछ कर गुजरेंगे। तब ये धन की जबरन वसूली जैसा अपराध नहीं करेंगे, और हमारे बीच ही मौजूद कुछ ख़ास लेकिन अच्छे लोग माने जायेंगे।"
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धन्यवाद।
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