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कैसे मित्र हैं आपके????
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मित्र यानी दोस्त, और दोस्त यानी आपके सुख-दुःख के साथी। ये एक सिंपल, सीधी-स्पष्ट व्याख्या हैं दोस्त की। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैं, समाज के बिना मनुष्य का अस्तित्व ही नहीं हैं। अपने, और अपने परिवार के साथ-साथ मनुष्य को बाहरी लोगो की भी जरूरत होती हैं। यथा अड़ोसी-पडोसी, यार-दोस्त, सहपाठी-सहकर्मी, आदि। ये सब समाज का ही एक हिस्सा होते हैं और हम भी इसी समाज के एक अहम् हिस्सा हैं।
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दोस्तों, अक्सर आपने किसी ना किसी को दोस्ती के ऊपर कहते-सुनते देखा होगा?? कुछ दोस्ती के पक्ष में होते हैं तो कुछ दोस्ती के नाम के ही विपक्ष में होते हैं। कोई दोस्तों से ज्यादा अपने दुश्मनों को ज्यादा सच्चा मानता हैं तो कोई दोस्तों को अपने सगे-सम्बन्धियों-परिजनों से भी ज्यादा अहमियत देता हैं। क्या आपने कभी सोचा हैं ऐसा क्यों होता हैं?? क्यों कभी-कभी हमें अपनों से भी ज्यादा सहारा दोस्तों से मिलता हैं?? क्यों अधिकाँश मामलो में हमें अपने करीबी (ऐसा हमें लगता हैं, पर होता नहीं) दोस्तों से ही धोखा-दगा मिलता हैं??
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इन उपरोक्त सभी सवालों के जवाब हमारे अन्दर या हमारे आस-पास ही हैं। सबसे पहले तो ये सोचिये कि-आपके यार-दोस्त कितने हैं???? बहुत से लोग कहेंगे-"है कोई बीस-पचास", तो कोई कहेगा-"सैंकड़ो दोस्त हैं मेरे", और तो और कुछ महाशयो का जवाब होगा-"गिने ही नहीं, हज़ारो दोस्त हैं मेरे, एक इशारे में दोस्तों की लाइन लगा दूं....." अरे-अरे रुकिए जनाब। ये आप किस गलतफ़हमी (खुशफ़हमी) में बैठे हैं आप??? दोबारा सोच लीजिये या अपने दोस्तों की लिस्ट पुन: जांच लीजिये।
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ज्यादातर लोगो की यही तो भूल होती हैं। इसी भूल के कारण लोगो को बार-बार, मौके-बेमौके धोखा खाना पड़ता हैं। बिना सोचे-विचारे, बिना आचार-व्यवहार, चरित्र, और इतिहास (यदि पता हो तो) देखे हम अगर किसी को हम अपना मित्र मानेंगे, तो जाहिर हैं हम जानबूझ कर ख़तरा मौल ले रहे हैं। दोस्ती करना बुरा नहीं हैं और नाही दोस्तों की अधिक संख्या होना बुरा हैं। बुरा हैं बुरे लोगो से दोस्ती करना, बुरे लोगो को अपना मानना, और बुरे लोगो को बिना सोचे-समझे अपनी संगत में शामिल करना।
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माना पहली नज़र में किसी के अच्छे-बुरे होने का पता नहीं चलता हैं और नाही किसी के चेहरे पर इस सम्न्बंध में कुछ लिखा होता हैं। लेकिन, ज्यादातर लोग जानबूझ कर अपने दोस्तों की बुराइयों को नज़रंदाज़ कर देते हैं, ये सोचकर कि-"अपना क्या ले रहा हैं??, या दोस्ती में सब चलता हैं, या फिर ये सोचकर ज्यादा हद पार करेगा तो समझा दूंगा,,,,,आदि-आदि।" बस, यही हम दोस्ती के मामले में मात खा जाते हैं। पहले हम कुछ करते नहीं और जब हम कुछ करना चाहते हैं तो कुछ कर नहीं पाते। अव्वल, तो हम ना चाहते हुए भी, जाने-अनजाने अपने दोस्तों के चंगुल में फँस ही जाते हैं और उनके हर गलत-सलत कार्यो में शामिल हो जाते हैं।
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महत्तव इस बात का नहीं हैं कि-"आपके कितने दोस्त हैं?? या आपके दोस्तों कि संख्या कितनी हैं??" बल्कि, महत्तव तो इस बात का हैं कि-"आपके दोस्त कैसे हैं??, आपके मित्रो की मानसिकता-सोच कैसी हैं??, आपके मित्रो में सतचरित्र हैं भी या नहीं??, आपके दोस्त आपके काम के हैं या नहीं??," आदि-आदि। पहली बात, आपके दोस्त आपको धोखा नहीं देते हैं बल्कि आप खुद ही उन्हें धोखा-दगा देने के लिए आमंत्रित करते हैं। आपको अपने दोस्त के बारे में नहीं पता, यहाँ तक तो सही हैं। लेकिन, पता चलने पर भी आप कुछ (उसे समझाना या सही रास्ता दिखाना, या उससे धीर-धीरे दूरियाँ बढ़ाना, आदि) नहीं करते, तो इसमें सारी गलती आपकी ही हैं।
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दूसरी बात, दोस्त और जानकार होने में फर्क समझिये। आपके साथ पढने वाला या आपके दफ्तर में कार्य करने वाला या वाहन (टैक्सी, बस, या ट्रेन, हवाईजहाज, आदि) में सफ़र करने वाला आपका मित्र कैसे हो सकता हैं?? नहीं हो सकता ना। बस, यही मैं आपको कहना चाह रहा हूँ, प्रेम सबसे कीजिये, बातें सबसे कीजिये, हाय-हैलो, दुआ-सलाम सबसे कीजिये, लेकिन दोस्ती-यारी किसी-किसी से कीजिये। हर आते-जाते को, हर मिलने-जुलने-भिड़ने वाले को अपना दोस्त ना बनाइये। उसे जानिये-परखिये, और जब वो खरा उतरे तब कदम आगे बढ़ाइए।
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लोग दोस्ती में एक बार धोखा खा लेंगे, दो बार धोखा खा लेंगे, बार-बार धोखा खा लेंगे, लेकिन धीरे-धीरे उनका दोस्त और दोस्ती पर से विश्वास उठने लगेगा। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैं और समाज के लोगो के साथ मेलजोल बढ़ाना अत्यंत आवश्यक भी हैं। लेकिन, संभल कर-सावधानी के साथ। दोस्तों की संख्या पर नहीं उनके गुणों पर ध्यान देना जरुरी हैं।
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सबसे बड़ी बात = अगर आपके सौ दोस्त हैं, तो उनमे से सिर्फ दस-पंद्रह दोस्त ही सुख-दुःख, मुसीबत में काम आयेंगे। और उन दस-पंद्रह में से दस वो होंगे जो कभी-भी भाग सकते हैं। अगर यकीन ना हो तो जब मर्जी आजमा कर देख लीजिएगा। मैं तो बहुत बार आजमा चुका हूँ। बारम्बार धोखा खाने और दिल तोड़ने से अच्छा हैं एक बार आजमा लिया जाए। ये दुःख की बात हैं कि-"ज्यादातर यार-दोस्त खाने-पीने और पैसे के पीछे होते हैं। जो अपने दोस्तों को खिलाएगा-पिलाएगा या पैसा उडाएगा, लोग उसी से यारी बढ़ाना चाहते हैं। आप भी इस बात की सच्चाई को समझने का प्रयास करे, इसी में आपकी भलाई हैं।" ज़रा अपने आसपास निगाह दौड़ाइए, दोस्तों के खाने-पीने, और पैसा उड़ाने वाले व्यक्ति के दोस्तों की सूची आम लोगो के दोस्तों से कहीं ज्यादा होती हैं। कही आपके साथ भी ऐसा-कुछ तो नहीं???"
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मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि-"दोस्तों के अलावा सबसे (जानकार, सहपाठी, या सहकर्मी) से तोड़ ली जाए। सबसे बनाकर रखिये, ना जाने कब उनसे अपना काम-मतलब साधना पड़ जाए। तब वे ये तो नहीं कह सकते कि-"तू अब क्यों आया हैं, तब तो तू मुझसे दोस्ती ही नहीं करना चाहता था।"
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मैं आपको मतलबी होने को नहीं कह रहा हूँ, मैं तो सिर्फ ये कहना चाहता हूँ कि-"दोस्त सीमित और भरोसेमंद-चरित्रवान रखिये, जो वक़्त-बेवक्त हाज़िर हो, बाकियों के साथ ज्यादा नहीं तो थोड़ी-बहुत तो राम-रामी रखी ही जा सकती हैं। या इसमें भी कोई हर्ज़ हैं......??????"
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धन्यवाद।
FROM =
CHANDER KUMAR SONI,
L-5, MODEL TOWN, N.H.-15,
SRI GANGANAGAR-335001,
RAJASTHAN, INDIA.
CHANDERKSONI@YAHOO.COM
00-91-9414380969
CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM
हमारे दोस्त तो बहुत achhe है
ReplyDeleteDear,Chander, i hv visited ur blog, really its very nice,useful nd yuthful, congrates 4rm my botam of heart, i really like ur coments on "KESE MITAR HAI AAPKE"
ReplyDeleteKeep in touch new hights of success..
God bless u, hv a pretty day...