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सदैव सरकार ही निशाने पर क्यों???
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मुझे एक बात समझ में नहीं आती है कि-"हमेशा सरकार या सरकारी संस्थान ही निशाने पर क्यों रहते हैं??, प्राइवेट या निजी संस्थान/कम्पनियां निशाने पर क्यों नहीं होती हैं??" सरकार, सरकारी संस्थान, या सरकारी कम्पनियां अगर मामूली भूल भी करदे तो लोग उसे गालियाँ देने लगते हैं, लेकिन अगर किसी निजी कंपनी की बड़ी (सरकारी की तुलना में) भूल भी हो जाए तो लोग उसे बड़ी ही आसानी से नज़र-अंदाज़ कर जाते हैं। मानो, ये उसकी पहली गलती हो।
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हम क्यों ऐसा करते हैं?? क्या मिल जाता हैं हमें ऐसा करके?? किसी भी क्षेत्र में, किसी भी मामले में हम निजी को पाक-साफ़ समझते हैं, लेकिन सरकारी को हम घटिया, गिरा हुआ, और बेकार समझते हैं। इस तरह बिना पूरी बात-मुद्दे को जाने किसी (सरकार-सरकारी) के बारे में पूर्वानुमान लगाना क्या उचित हैं?? मैं किसी भी सरकारी पद या नौकरी पर नहीं हूँ और नाही मैं निजी की तुलना में सरकारी को बढ़िया-उच्च स्तरीय मानता हूँ। में तो आम लोगो से इस तरह का भेदभाव समाप्त करने की अपील कर रहा हूँ।
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मैं आपको कुछ उदाहरण देना चाहूँगा, जिससे ये साफ़ हो जाएगा कि-"निजी कम्पनियां दूध से धुली नहीं हैं, और कई मामलो में सरकारी से भी बदतर हैं।"
1. पिछले साल मुझे दिल्ली से बैंगलौर सुबह की फ्लाईट से जाना था। आप मानेंगे नहीं उस दिन ना तो कोई तूफ़ान आया था, ना बरसात हुई थी, और नाही कुछ ऐसा हुआ था, जिसकी वजेह से फ्लाईट के लेट होने को जायज़ ठहराया जा सके। वो फ्लाईट जो सुबह नौ बजे की थी, उसकी उड़ान सुबह पौने बारह बजे हुई। इतना ही नहीं, चार दिन बाद मुझे वापस दिल्ली लौटना था। इस बार भी मैं दूसरी निजी (जाने वाली से अलग फ्लाईट) फ्लाईट में सवार था। मुझे रात साढ़े नौ बजे दिल्ली पहुँच जाना था, और मैं पहुंचा रात ग्यारह बजे। अब इसे आप क्या कहेंगे??? दोनों ही बार किसी भी अखबार या खबरिया चैनल में इन फ्लाइटो के लेट होने की सूचना नहीं थी। जबकि, सरकारी विमानन सेवा दस मिनट भी लेट हो जाए तो हल्ला मच जाता हैं।
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2. यही हाल, मोबाइलों का भी हैं। सरकारी मोबिलिटी सेवा प्रदाता के मोबाइल में बात बीच में कट जाए या फोन ना मिले तो लोग कोसने लगते हैं। जबकि, निजी मोबिलिटी सेवा प्रदाता के मोबाईल में ऐसा हो तो लोग नज़रंदाज़ कर देते हैं। निजी मोबिलिटी सेवा का नेटवर्क पुरे दिन ना आये तो मामूली आह से काम चल जाता हैं, लेकिन यही अगर सरकारी हो तो लोगो की तो जैसे मौत आ जाती हैं। जब सभी निजी कंपनियों की शुरूआती कॉल दर दो रूपए होती थी, तब इस सरकारी कंपनी की कॉल दर मात्र नब्बे पैसे होती थी। जब बाकी निजी कंपनी एक रुपया प्रति एसएमएस काटती थी, तब ये सरकारी मोबिलिटी कंपनी मात्र साठ पैसा ही काटती थी। बेशक आज सभी की एकसमान दर हो, लेकिन इस सरकारी कंपनी के योगदान को नहीं भुला जा सकता। इंटरनेट और लैंडलाइन फोन के मामले में तो इसका मुकाबला हैं ही नहीं।
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3. बैंको को भी क्यूँ भूल रहे हैं आप?? निजी बैंक जहां भारी जुर्माना-चार्ज लगाते हैं वही सरकारी बैंक नाममात्र जुर्माना-शुल्क लगाती हैं। आम आदमी या गरीब आदमी को रियायती दरो पर क़र्ज़ भी सरकारी बैंको से ही मिल सकता हैं नाकि निजी बैंको से। नियम व शर्तो के मकड़जाल में निजी बैंक ही ज्यादा उलझाते हैं। लोन (क़र्ज़) की मंजूरी कराने के लिए बैंको के अधिकारी-मैनेज़र को घूस खिलानी पड़ती हैं। निजी बैंको में सरकारी बैंको से ज्यादा पैसा ऐंठा जाता हैं। बेशक, निजी बैंको में ऐसा सरकारी बैंको की तुलना में कम होता हो, लेकिन होता जरूर हैं। और निजी बैंको में रिश्वत-घूस-पैसा भी ज्यादा लिया जाता हैं। निजी बैंक दूध से धुले नहीं हैं। इतना ही नहीं, देश के शीर्ष बैंक (रिज़र्व बैंक) के पास आम धारणा के विपरीत सरकारी बैंको की तुलना में निजी बैंको की ज्यादा शिकायते आती हैं। ज्यादातर ये शिकायते गलत-नाहक खर्च जोड़ना, बताये गए से ज्यादा ब्याज दर पर जुर्माना लगाना, क्रेडिट कार्ड की गलत एकाउंट स्टेटमेंट देना, आदि से सम्बंधित होती हैं।
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4. अब आते हैं शिक्षा के मुद्दे पर। सुख-सुविधा और पढ़ाई-लिखाई के स्तर में निजी स्कूल-कॉलेज भले ही आगे हो, लेकिन उन निजी स्कूल-कॉलेजो पर नियंत्रण तो सरकार के अन्डर में ही हैं। दूसरी बात, निजी स्कूल-कॉलेज अनाप-शनाप पैसा (ड़ोनेशन की आड़ में) वसूलते हैं। सुख-सुविधा वे भले ही ज्यादा देते हो, लेकिन कम-से-कम सरकारी स्कूल-कॉलेजो की तरह लूटते तो नहीं। कभी युनिफोर्म के नाम पर, तो कभी मनमर्जी (जोकि जरुरी ना हो, पाठ्यकर्मो से अलग) की किताबो-पुस्तकों के नाम पर, कभी अन्य गतिविधियों (चित्रकला-खेलकूद, आदि) के नाम पर। आये दिन नन्हे-मुन्हे बच्चो के अभिभावकों की जेब काटते रहते हैं, और बेचारे माता-पिता अपनी संतानों के भविष्य संवारने की खातिर लुटते रहते हैं। सुख-सुविधा और पढ़ाई के स्तर में निजी स्कूल भले ही आगे हो, लेकिन सरकारी स्कूल-कॉलेजो का कोई मुकाबला नहीं हैं। अभी तक कोई ऐसा निष्कर्ष नहीं आया हैं जो सरकारी स्कूल-कॉलेज में पढ़े बच्चो को पिछड़ा या निम्न साबित कर सके। केंद्रीय विद्यालय, आईआईटी, आईआईएम, और आईआईएस का क्या कोई मुकाबला हैं??? शुरूआती (स्कूल-कॉलेज की) पढ़ाई पूरी कर लेने के बाद हर छात्र सरकारी संस्थान में जाना चाहता हैं, क्योंकि निजी आगे की पढ़ाई के लिए कोई बेहतरीन (सरकारी से ज्यादा) संस्थान नहीं हैं। रही बात परीक्षा में नक़ल कराने या निकम्मे को भी पास करा देने की बात। तो में बता दूं कि-"पहली बात तो ऐसा होता नहीं, दूसरी बात हर जगह ऐसा नहीं होता, तीसरी बात अगर होता भी हैं, तो बहुत ही दुर्लभ मामलो में। और चौथी और महत्तवपूर्ण बात--सरकारी संस्थानों में नक़ल कराकर पास कराया जाता हैं तो निजी संस्थानों में गुपचुप पैसा लेकर नंबर बढाए जाते हैं। नक़ल कराने और नम्बर बढाने, दोनों ही मामलो में पैसा ऐंठा जाता हैं। बस फर्क ये हैं कि-निजी संस्थानों में पैसा ज्यादा बेदर्दी से मारा जाता हैं।" यानी गलत कार्यो में भी सरकारी ही "बेहतर यानी सस्ता" हैं।
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अपनी मानसिकता को बदलिए। सरकारी और निजी स्कूल-कॉलेजो, संस्थानों, कंपनियों में फर्क ना कीजिये। सब को एक जैसा मत मानिए तो किसी एक (सरकारी या निजी) को सही या गलत भी ना मानिए। गलत कार्य-गलतियां-और भूले आपको दोनों की नज़र आनी चाहिए, नाकि किसी एक की। हम सबको एक पलड़े में नहीं तौल सकते लेकिन पूर्वानुमान को तो दिमाग से निकाल ही सकते हैं। अब तो आप सबको मेरा ये लेख लिखने का मतलब-उद्देश्य तो समझ में आ ही गया होगा। उम्मीद हैं, आप मेरे द्वारा दिए गए उपरोक्त कुछ सच्चे-उदाहरणों को पढ़कर मेरी नसीहतो का पालन करेंगे।
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नोट = गोपनीयता का सम्मान करते हुए सभी सरकारी-गैर सरकारी-निजी स्कूल-कॉलेजो, संगठनो, संस्थानों, और कंपनियों के नाम नहीं दिए गए हैं।
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धन्यवाद।
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निजी बैंक जहां भारी जुर्माना-चार्ज लगाते हैं वही सरकारी बैंक नाममात्र जुर्माना-शुल्क लगाती हैं। आम आदमी या गरीब आदमी को रियायती दरो पर क़र्ज़ भी सरकारी बैंको से ही मिल सकता हैं
ReplyDeleteअच्छा चिंतन।
ReplyDeleteसरकारी से अपेक्षा इसलिए अधिक रहती है कि जनता जानती है कि यह हमारी है।
जो अपना है उस से अधिक अपेक्षा होती है इसलिए पूरा न होने पर दुःख भी होता है।
वैसे आपकी बात में दम है।