मेरे इस ब्लॉग का उद्देश्य =

मेरे इस ब्लॉग का प्रमुख उद्देश्य सकारात्मकता को बढ़ावा देना हैं। मैं चाहे जिस मर्ज़ी मुद्दे पर लिखू, उसमे कही ना कही-कोई ना कोई सकारात्मक पहलु अवश्य होता हैं। चाहे वह स्थानीय मुद्दा हो या राष्ट्रीय मुद्दा, सरकारी मुद्दा हो या निजी मुद्दा, सामाजिक मुद्दा हो या व्यक्तिगत मुद्दा। चाहे जो भी-जैसा भी मुद्दा हो, हर बात में सकारात्मकता का पुट जरूर होता हैं। मेरे इस ब्लॉग में आपको कही भी नकारात्मक बात-भाव खोजने पर भी नहीं मिलेगा। चाहे वह शोषण हो या अत्याचार, भ्रष्टाचार-रिश्वतखोरी हो या अन्याय, कोई भी समस्या-परेशानी हो। मेरे इस ब्लॉग में हर बात-चीज़ का विश्लेषण-हल पूर्णरूपेण सकारात्मकता के साथ निकाला गया हैं। निष्पक्षता, सच्चाई, और ईमानदारी, मेरे इस ब्लॉग की खासियत हैं। बिना डर के, निसंकोच भाव से, खरी बात कही (लिखी) मिलेगी आपको मेरे इस ब्लॉग में। कोई भी-एक भी ऐसा मुद्दा नहीं हैं, जो मैंने ना उठाये हो। मैंने हरेक मुद्दे को, हर तरह के, हर किस्म के मुद्दों को उठाने का हर संभव प्रयास किया हैं। सकारात्मक ढंग से अभी तक हर तरह के मुद्दे मैंने उठाये हैं। जो भी हो-जैसा भी हो-जितना भी हो, सिर्फ सकारात्मक ढंग से ही अपनी बात कहना मेरे इस ब्लॉग की विशेषता हैं।
किसी को सुनाने या भावनाओं को ठेस पहुंचाने के लिए मैंने यह ब्लॉग लेखन-शुरू नहीं किया हैं। मैं अपने इस ब्लॉग के माध्यम से पीडितो की-शोषितों की-दीन दुखियों की आवाज़ पूर्ण-रूपेण सकारात्मकता के साथ प्रभावी ढंग से उठाना (बुलंद करना) चाहता हूँ। जिनकी कोई नहीं सुनता, जिन्हें कोई नहीं समझता, जो समाज की मुख्यधारा में शामिल नहीं हैं, जो अकेलेपन-एकाकीपन से झूझते हैं, रोते-कल्पते हुए आंसू बहाते हैं, उन्हें मैं इस ब्लॉग के माध्यम से सकारात्मक मंच मुहैया कराना चाहता हूँ। मैं अपने इस ब्लॉग के माध्यम से उनकी बातों को, उनकी समस्याओं को, उनकी भावनाओं को, उनके ज़ज्बातों को, उनकी तकलीफों को सकारात्मक ढंग से, दुनिया के सामने पेश करना चाहता हूँ।
मेरे इस ब्लॉग का एकमात्र उद्देश्य, एक मात्र लक्ष्य, और एक मात्र आधार सिर्फ और सिर्फ सकारात्मकता ही हैं। हर चीज़-बात-मुद्दे में सकारात्मकता ही हैं, नकारात्मकता का तो कही नामोनिशान भी नहीं हैं। इसीलिए मेरे इस ब्लॉग की पंचलाइन (टैगलाइन) ही हैं = "एक सशक्त-कदम सकारात्मकता की ओर..............." क्यूँ हैं ना??, अगर नहीं पता तो कृपया ज़रा नीचे ब्लॉग पढ़िए, ज्वाइन कीजिये, और कमेन्ट जरूर कीजिये, ताकि मुझे मेरी मेहनत-काम की रिपोर्ट मिल सके। मेरे ब्लॉग पर आने के लिए आप सभी पाठको को बहुत-बहुत हार्दिक धन्यवाद, कृपया अपने दोस्तों व अन्यो को भी इस सकारात्मकता से भरे ब्लॉग के बारे में अवश्य बताये। पुन: धन्यवाद।

Monday, March 29, 2010

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ऐसा तो सिर्फ भारत में ही संभव हैं।
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हाल ही में विभिन्न समाचार चैनलों और समाचार पत्रों में एक खबर को पढ़ कर बड़ी हैरानी हुई। दरअसल वो खबर ही ऐसी थी, आप भी जानेंगे तो हैरान रह जायेंगे।
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और वो खबर यह थी कि-"केंद्र सरकार जल्द ही एक ऐसा क़ानून लाने जा रही हैं, जिसमे तेल, गैस की पाईपलाइन या वाहन को आग लगाने वाले या नुक्सान पहुंचाने वाले को उम्रकैद की सज़ा होगी। और तो और अपराधी को अपनी बेगुनाही को साबित भी स्वयं ही करना पडेगा।"
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क़ानून बहुत ही अच्छा और स्वागत-योग्य हैं। निश्चित रूप से उन लोगो को सबक सिखाने वाला और हतोत्साहित करने वाला हैं, जो अपनी मांगो को पूरी करवाने के लिए तेल, गैस, आदि के वाहनों-पाईपलाइनो को आग लगाते-नुक्सान पहुंचाते रहते हैं। देश की संपत्ति हैं तेल-गैस। आम जनता और देश के विकास का एक मजबूत-सशक्त आधार हैं ये। लेकिन, मेरी चिंता तो इस बात को लेकर हैं कि-"देश के बाकी कानूनों जैसा ह्श्न ना हो इस क़ानून का, कही ये क़ानून भी देश के अन्य कानूनों की तरह कागजी ही ना रह जाए।"
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वैसे देश के अन्य कानूनों का प्रभावी उपयोग, प्रभावी पालना होनी ज्यादा जरूरी हैं। ये क़ानून अच्छा जरूर हैं, लेकिन इस क़ानून से आम जनता को कोई विशेष लाभ नहीं होने वाला। माना कि-"ये क़ानून देश की अर्थव्यवस्था को नुक्सान होने से कुछ हद तक रोकेगा।" लेकिन, क्या गारंटी हैं कि-"इस क़ानून का हाल बाकी कानूनों जैसा नहीं होगा??" लेकिन ज़रा सोचिये-"तेल-गैस के टैंकरों-वाहनों, और पाइपलाइनों को आगजनी या नुक्सान पहुंचाने की कितनी कोशिशे होती हैं??, कितना तेल या गैस बेकार/नष्ट होता हैं इन मामलो में??" जाहिर हैं बहुत कम, ना के बराबर, नगण्य।
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तो फिर क्या जरूरत हैं नए क़ानून लाने की??, वो भी ऐसे मुद्दे को लेकर, जिसका आम जनता से कोई सरोकार ही नहीं हैं??, क्यों ला रहे हैं ये क़ानून??, क्या सिर्फ वह-वाही लूटने के लिए??, या फिर जनता का ध्यान कही और करने के लिए??, किसलिए लायेंगे आप ये क़ानून??, किसका भला हैं, इस क़ानून में??, बताइये, जनता आपसे कुछ पूछ रही हैं, जवाब दीजिये......। अरे आप क्या जवाब देंगे??, आपके पास तो जवाब हैं ही नहीं।
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अगर तेल-गैस की इतनी ही चिंता हैं तो जनता तक तेल-गैस पहुंचाइये।
जितना तेल-गैस उपलभध हैं या उत्पादित हो रहा हैं, उसे जनता को मुहैया कराइए।
ब्लैक मार्केटिंग, काला बाजारी को रोकिये।
महंगा-सस्ता के बारे में मैं कुछ नहीं कहूंगा, लेकिन आप जो भी भाव-दाम लगाइए, लेकिन उसे आम जन को तो दीजिये।
तेल-गैस की किल्लत-कमी को दूर कीजिये।
करने को तो बहुत कुछ हैं, अगर आपकी मंशा, इच्छाशक्ति हो तो।
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ये तो बात थी तेल-गैस की, अब बात करते हैं अन्य कानूनों की। चोरी-डैकैती को रोकिये, हत्याओं-बलात्कारो को रोकिये, लूटपाट-दंगो को रोकिये, दहेज़ हत्याओं-बाल विवाहों को रोकिये, अपहरणों-फिरौतियों को रोकिये, आदि-आदि। और इन सभी के लिए क़ानून भी बने हुए हैं, वे क़ानून सख्त हैं या नहीं?? मुद्दा ये नहीं हैं, मुद्दा हैं कानूनों की प्रभावी पालना, जोकि हो नही रही हैं। ये क़ानून सीधे-सीधे आम जन से जुड़े हुए हैं, इन कानूनों में आम जनता के हित जुड़े हुए हैं। नाकि उस क़ानून में, जिसको आप जल्द ही लागू करने की मंशा लिए हैं। ये क़ानून जरूरी जरूर हैं, लेकिन इससे भी जरुरी हैं मौजूदा अन्य कानूनों की पालना।
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वैसा ऐसा सिर्फ और सिर्फ भारत में ही संभव हैं, जहां सरकार क़ानून बनाना ही जानती हैं, पालना करना नहीं। और तो और सरकार को जब क़ानून बनाने के लिए कोई उपयुक्त स्थान नहीं मिला, तो ऐसे मुद्दे पर क़ानून बनाने में व्यस्त हो गई हैं, जिसका आम आदमी से कोई सरोकार ही नहीं हैं।
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धन्यवाद।
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Tuesday, March 23, 2010

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इस फिल्म का विरोध क्यों नहीं????
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मैं हालिया रिलीज एक हिन्दी फिल्म "अतिथि......तुम कब जाओगे??" के सम्बन्ध में ही बात कर रहा हूँ। और मेरा उपरोक्त (शीर्षक) सवाल इसी फिल्म के लिए ही हैं।
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जी हाँ, मेरा कई सवालो में से कई सवाल यही हैं कि-
इस फिल्म का विरोध क्यों नहीं हो रहा हैं??
आम तौर पर हर मुद्दे, छोटी सी बात पर हल्ला मचाने वाले इस बार चुप क्यों हैं???
अपने आप को भारतीय संस्कृति के पहरेदार बताने वाले क्या कहीं खो (गुम) गए हैं???
मुझे तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा हैं, कब होगा इस फिल्म (अतिथि......तुम कब जाओगे??) का विरोध?
हर वक़्त विरोध-प्रदर्शन करने, हल्ला मचाने, हँगामा पैदा करने की मौके की ताक में रहने वाले इस कदर शांत-चुप्पी क्यों साधे हुए हैं??
क्या इसके पीछे तूफ़ान से पहले की शान्ति मौजूद हैं??
इन लोगो ने क्यों नहीं किया इस फिल्म का विरोध??
आदि-आदि कई सवालों के जवाब मुझे नहीं मिल रहे हैं। अगर आपके पास मेरे सवालों के जवाब हो तो कृपया जरूर दीजिएगा।
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सरेआम भारतीय संस्कृति की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। सरेआम, खुल्लम खुल्ला "अतिथि देवो भव:" की सनातन परम्परा का मखौल उड़ाया जा रहा हैं। लेकिन, दुर्भाग्य देखिये भारत की परम्परा-संस्कृति के ठेकेदार-पहरेदार मौन धारण किये हुए हैं। जहां उन्हें विरोध करना चाहिए, वहाँ तो सपने में भी विरोध नहीं करेंगे। और जहां विरोध नहीं होना चाहिए वहाँ सारी सीमाएं-हदें पार कर देंगे। ऐसा तो इनका चरित्र हैं। सारे देश को इन लोगो के चरित्र, इन लोगो की मानसिकता का एहसास होने लगा हैं।
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कहाँ गए भारत की सनातन संस्कृति की दुहाई देने वाले???, कहाँ हैं वे लोग, जो कथित रूप से खुद को रक्षक-पहरेदार, कहते हैं??? अब क्यों सामने नहीं आ रहे???, अपना-सा मुहं लेकर कहाँ छुप गए हैं कायर???
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"अतिथि देवो भव:" की समृद्ध परम्परा-संस्कृति वाले देश में अतिथि के जाने का इंतज़ार करना कितना दुर्भाग्य भरा हैं, इसका शायद इन्हें इल्म (अंदाजा) भी नहीं हैं। खुद भूखे रहकर भी अतिथि-मेहमान को भरपेट भोजन परोसना हमारी संस्कृति हैं, हमारी पहचान हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि-"इस फिल्म में कोई हिन्दू विरोधी टिप्पणी नहीं हैं, इसलिए उन्होंने विरोध ना किया हो??" या फिर कही यह कारण तो नहीं कि-"इस फिल्म में कोई मुस्लिम कलाकार या अभिनेता-अभिनेत्री नहीं हैं, इसलिए उन्होंने विरोध-प्रदर्शन ना किया हो??" आदि।
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फिल्म का विरोध ना करने का चाहे जो भी कारण हो, इनका असली रूप-चेहरा, असली नीतियाँ, कार्य-शैली जनता के सामने आ गया हैं। आमजन का विश्वास अब इन लोगो-इन संगठनो के ऊपर से उठ गया हैं। इनकी पोल खुल गयी हैं, आम जनता की नज़रो से गिर गए हैं ये सब लोग और ये सब संगठन। अरे भाई लोगो, फिल्म का विरोध चाहे ना करो पर शीर्षक का विरोध तो कीजिये। फिल्म तो मैंने भी नहीं देखी हैं, लेकिन शीर्षक (फिल्म का नाम) तो मुझे आपत्तिजनक लगा हैं। आपने बेकार-बेमतलब "बिल्लू" (असली नाम "बिल्लू बार्बर" शाहरुख खान अभिनीत) का विरोध किया था, लेकिन अब सार्थक रूप से, जरूरत समझते हुये फिल्म का ना सही, पर फिल्म के नाम (शीर्षक) का तो विरोध कीजिये।
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धन्यवाद।
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Wednesday, March 17, 2010

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नारियों का अभद्र और नकारात्मक चित्रण क्यों????

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आज हर जगह नारी-सशक्तिकर्ण की बातें हो रही हैं। देश के सबसे बडे और पुराने राजनितिक दल की अध्यक्षा महिला हैं, देश की राष्ट्रपति महिला हैं, राजस्थान-हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों की राज्यपाल महिला हैं, लोक सभा की सभापति भी महिला ही हैं। जहां भी नज़र डालो महिला सशक्तिकर्ण की बाते कही जा रही हैं। मोबाइल-दूरसंचार कम्पनियां महिलाओं के लिए अलग से स्पेशल प्लान्स ला रही हैं, बीमा कंपनिया ख़ास तौर पर महिलायों के लिए ही स्वास्थ्य-जीवन बीमा योजनाये ला रही हैं। सरकारों की तरफ से लड़कियों की पढ़ाई मुफ्त की जा रही हैं-उन्हें स्कूल आनेजाने के लिए फ्री साइकल दी जा रही हैं, यानी जहां कही भी नज़र दौडाओ महिला-नारी सशक्तिकर्ण की भावना ही नज़र आ रही हैं।

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नौकरियों में भी महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित की जा रही हैं, इनकम टैक्स में भी महिलाओं को ज्यादा बचत करने की सहुलियतों के साथ-साथ टैक्स में भी छूट प्रदान की जा रही हैं। और तो और हाल ही में सभी स्थानीय-क्षेत्रीय चुनावों में महिलाओं का आरक्षण पुरुषो के बराबर यानि 50 प्रतिशत कर दिया गया हैं, अब सभी स्थानीय निकायों (पंच-सरपंच-डायरेक्टर, जिला प्रमुख, पार्षद, और नगर पालिकाओं-परिषदों-और निगमों) में आधी सत्ता-भागीदारी महिलाओं के हाथ में ही होगी। बहुत सी जगहों पर तो विकास कार्यो का, जनहित के कार्यो का, और सारे इलाके का सारा दारोमदार इन्ही के सर होगा। महिलाओं से जुडे अपराधो (छेड़छाड़, बलात्कार, यौन शोषण, दहेज़ ह्त्या, आदि) पर क़ानून भी पहले के मुकाबले काफी सख्त किये जा रहे हैं, वो भी गैर-जमानती।

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प्रिय पाठको, महिलायों-नारियों के लिए बहुत कुछ किया जा रहा हैं, बहुत कुछ किये जाने की योजनाये बनाई जा रही हैं। हर तरफ-हर जगह महिला सशक्तिकर्ण की बयार बह रही हैं। लेकिन, मुझे एक बात बहुत कचोटती हैं, मुझे समझ में नहीं आता हैं कि-"नाटको में, टेलीविजन धारावाहिकों में, फिल्मो में, नारी का किरदार कठोर, पत्थर-दिल, क्रूर, और नकारात्मक क्यों दिखाया जाता हैं???" यह कैसा नारी सशक्तिकर्ण हैं?, एक तरफ हम नारी के पक्ष की, हक़ की बातें करते हैं और दूसरी तरफ हमही उन्हें नाटको-धारावाहिकों में नकारात्मक रूप से प्रस्तुत करते हैं।

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क्या इससे नारी सशक्तिकर्ण हो सकता हैं?????, क्या इससे नारियों को वो मान-सम्मान, बराबरी का हक़, जिसकी वो वाकई हकदार हैं, मिल सकता हैं???, एक तरफ हम नारियों के पिछडेपन-दुर्दशा के लिए परोक्ष रूप से पुरुषो को ज़िम्मेदार ठहराते हैं और दूसरी तरफ हम नारियों को ही अभद्रता और नकारात्मकता की साक्षात मूर्ति बताने में लगे हुए हैं। पहले बचपन में (सात-आठ साल पहले) परिवार वालो के साथ, टाइमपास के लिए, काफी धारावाहिक-नाटक देखा करता था। लेकिन अब मैं हालांकि नाटक-धारावाहिक कम ही देखता हूँ, लेकिन यदा-कदा इन सिरियलो पर नज़र ड़ाल ही लेता हूँ। मैं इक्का-दुक्का नाटक (शिक्षाप्रद व मनोरंजक) ही देखता हूँ, लेकिन मेरे नाटको के शुरू होने से पहले पांच-सात मिनट पहले का नाटक देखना पड़ ही जाता हैं। उन नाटको में नारी का जो रूप दिखाया जाता हैं, उसे देखकर मेरा मन खराब हो जाता हैं। नारियों का-महिलायों का ऐसा चरित्रहीन और घटिया प्रदर्शन किया जाता हैं कि-"मुझे नारी सशक्तिकर्ण की तमाम बातें ढकोसला-बकवास लगने लगती हैं।"

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मैं आपको कुछ नकारात्मक भावों वाली कुछ महिला अदाकाराओं-कलाकारों की याद दिलाना चाहूँगा। मंदिरा (क्यूंकि सास भी कभी बहु थी.....स्टार प्लस), पल्लवी (कहानी घर-घर की.....स्टार प्लस), कोमोलिका (कसौटी ज़िन्दगी की.....स्टार प्लस), अम्माजी और मृणालिनी (छोटी बहु.....जी टीवी), और अम्माजी (ना आना इस देश लाडो.....कलर्स), आदि-आदि। यह तो उदाहरण-मात्र हैं। फेहरिस्ट तो काफी लम्बी-चौड़ी हैं। उपरोक्त उदाहरणों की महिला खलनायिकाओं को अगर आप देख लेंगे तो दांतों तले ऊंगली दबा लेंगे। कई नाटको में तो पुरुष-मर्द किरदारों से कही ज्यादा खतरनाक-शातिर-और चालबाज़ यह महिला खलनायिकाएं होती हैं। एक-दुसरे की बातें इधर-उधर करना, कमरे के अन्दर बिना दरवाजा खटखटाए घुस जाना, एकदुसरे को नुक्सान पहुंचाने की जी जान से कोशिश करना, पकडे जाने या चाल विफल होने पर घडियाली आंसू बहाना, आदि इनकी खासियत हैं।

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टेलीविजन धारावाहिकों के बाद नंबर आता हैं फिल्मो का। मैंने हालांकि एक भी ऐसी फिल्में नहीं देखी हैं, लेकिन टीवी पर आने वाले प्रोमो, और विज्ञापन कहानी कह जाते हैं। ऊपर से, अखबारों-पत्रिकाओं में छपने वाली फोटोएं तस्वीर साफ़ कर देती हैं। अव्वल तो, जानबूझकर प्रेस-मीडिया को बुला कर बेबाक-बोल्ड टिप्पणी की जाती हैं, ताकि मेरे और आप जैसो को (जो ऐसी बकवास-अश्लील फिल्में नहीं देखते हैं) खबर दिखाकर फिल्म के प्रति उत्सुकता जगाने का प्रयास करते हैं। मल्लिका शेहरावत, राखी सावंत, सेलिना जेटली, तनुश्री दत्ता, कंगना राणावत, बिपाशा बसु, और करीना कपूर, आदि कई इस कतार में हैं। चाहे वे पैसा कमाने के लिए ऐसी फिल्में-एल्बम करते हो, या चाहे वे ऐसे हकीकत में ना हो, लेकिन उन्हें भूलना नहीं चाहिए कि-"आम दर्शक उनकी नक़ल करता हैं, आप असल में ऐसे हैं या नहीं इसकी समझ आमतौर पर दर्शको में नहीं होती हैं, और सबसे बड़ी बात एक नारी होने के नाते आपको अन्य नारियों की इज्ज़त का ख्याल भी रखना चाहिए। भडकीले-अश्लील कपडे पहन कर आप क्या सन्देश देना चाहती हैं??? कपडे चाहे जैसे भी पहनिए लेकिन मकसद-भावना शुद्ध होनी चाहिए। बहुत सी फिल्में ऐसी हैं, जिनमें हीरोइनो (जैसे कि-मंदाकिनी, डिम्पल कपाडिया, करिश्मा कपूर, माधुरी दीक्षित, नूतन, सायरा बानो, नर्गिस, हेमा मालिनी, रेखा, और हेलेन, आदि) ने काफी कम कपडे पहने थे, फिर भी अश्लील नहीं लगी, इसका कोई तो कारण होगा??"

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ये सारी क़वायदें तभी सफल होगी, नारी-सशक्तिकर्ण के तमान प्रयास तभी सफल होंगे जब टेलीविजन के नाटको, धारावाहिकों, और फिल्मो में नारियों का अभद्र और नकारात्मक चित्रण को रोका जाएगा। इसके लिए अकेले सरकार के करने से कुछ नहीं होगा, आम जनता और कलाकारों-अभिनेत्रियों के करने से ही कुछ हो सकता हैं। नाटक-धारावाहिक-और फिल्में ऐसी होनी चाहिए जो समाज को चरित्रवान बनाने की शिक्षा दे, जो समाज को महिलायों की योग्यता-उपयोगिता-और समानता का सन्देश दे। जिनको देख कर समाज को अच्छा सन्देश मिले। नैतिक-अनैतिक, गलत-सही, और चरित्रहीन और चरित्रवान के बीच का फर्क बताये।

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सबसे बड़ी बात, आम लोगो और अभिनेत्रियों-कलाकारों से पहले सरकार को पहल करते हुए सख्त से सख्त कदम उठाने चाहिए। सरकार को इन दो बातों का विशेष ध्यान-ख्याल रखना होगा कि-"पहला, अश्लीलता का पैमाना कपड़ो की मात्रा से नहीं बल्कि भावों-मकसद से नापना होगा, दूसरा, क़ानून इतना सख्त भी ना हो कि पुरुष-वर्ग जी ही ना सके और इतना ढीला भी ना हो कि अपराधी के बचने की गुंजाइश बचे।"

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धन्यवाद।

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Thursday, March 11, 2010

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भावनाओं की अभिव्यक्ति बेहद जरूरी।

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भावनाओं की अभिव्यक्ति बेहद जरूरी हैं। हम में से ज्यादातर लोग अपनी भावनाओं को व्यक्त करने की बजाय दबाना शायद ज्यादा उचित समझते हैं। हम रोजाना जितने भी समस्याओं से दो-चार होते हैं, हमें जितनी भी परेशानियां उठानी पड़ती हैं, हमें जितने भी दुःख-तनाव झेलने पड़ते हैं, उन सबके मूल में भावनाओं को दबाना या व्यक्त ना करना ही हैं। हमने तो मानो अपनी भावनाओं को व्यक्त ना करने की मानो कसम ही खा ली हो। मन में क्या आ रहा हैं?, दिमाग में क्या उलझन चल रही हैं?, दिल में क्या बात हैं??, आदि कई बातों-भावनाओ को हम उभारने की बजाय दबाना ज्यादा मुफीद समझते हैं।

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चाहे कितना भी नुक्सान क्यों ना हो जाए?, चाहे कितना भी उलटफेर क्यों ना हो जाए?, हम भावनाओं को दबा देंगे, लेकिन व्यक्त नहीं करेंगे???, पता नहीं ऐसी कौनसी वजह, कौनसी मजबूरी हैं जो हम ऐसा करते हैं??, वो भी एक या दो बार नहीं बल्कि लगभग हर बार। अपने भावों को दबाना, अपनी भावनाओं को दबाना, अपना ही नुक्सान करता हैं, दुसरे का कुछ नहीं बिगड़ता, वो बेचारा तो आपके अन्दर भी नहीं झाँक सकता। जो आपकी भावनाओं को समझ सके, आपके विचारों को जान सके, जो आपके दिलोदिमाग में चल रही बातों-सवालों, उलझनों को भी देख सके। .


कुछ उदाहरण मैं यहाँ देना चाहूँगा, ताकि आपको पता चल सके कि-"भावनाओ की अभिव्यक्ति कितनी जरूरी हैं??" =

1. दो दोस्त थे, एकदम पक्के दोस्त। दोनों बचपन से ही साथ-साथ पढ़ते थे, स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद दोनों ने आपस में सलाह करके एक ही कॉलेज में पढ़ाई की। बाद में एक दोस्त को सट्टे-जुए की बुरी लत लग गयी। वो दुसरे दोस्त को भी सट्टे के अड्डे पर ले जाता था, लेकिन दुसरे दोस्त ने हमेशा उसे मना किया। लेकिन उसे ऐसी लत लग चुकी थी, उसको सिवा सट्टे-जुए के कुछ ना दिखता था। एक बार पुलिस ने वहाँ छापा मारा और उसे उसके साथियों सहित गिरफ्तार कर लिया। जमानत पर छूटने के बाद, उसने पहला काम यही किया कि-"अपने उस दोस्त को गद्दार करार देते हुए उसको थप्पड़ दे मारा और बचपन की भाई जैसी दोस्ती तोड़ दी।" यहाँ उस दोस्त की गलती यह थी कि-"उसने अपनी भावनाओं को व्यक्त नहीं किया यानी कोई अफ़सोस जाहिर नहीं किया। बस, थप्पड़ को याद रखने की बात कहकर चला गया।"

2. एक पति-पत्नी थे। दोनों में शादी के कुछ साल खूब प्रेम रहा, लेकिन बाद में हालात बदलने शुरू हो गए। दरअसल, पति को तगड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा था, लेकिन वह यह बात घर पर शो/प्रकट नहीं होने दे रहा था। उसकी पत्नी जब प्यार-रोमांस के मूड में होती, तो वह गुस्सा हो बैठता। और जब उसका मूड प्यार का होता तो उसकी पत्नी अपनी व्यस्तता जाहिर कर देती। यानी दोनों ही अपनी भावनाओं को व्यक्त नहीं कर पा रहे थे। धीरे-धीरे नौबत तलाक तक आ पहुंची। यह तो भला हो मैरिज कोंउन्सलर का, जो उन्होंने दोनों को साथ बिठाकर सारी बातें साफ़ की, तब कही जाकर उन दोनों के बीच पैदा हुई ग़लतफ़हमियाँ दूर हुई। और दोनों तलाक जैसी विभीषिका से बच सके। यहाँ गलती दोनों की थी, दोनों ही असली बात-अपनी परेशानियों को व्यक्त नहीं करते थे। दोनों में दुराव-छिपाव था, दोनों अगर चाहते तो खुलकर बातचीत करके मसला सुलझा सकते थे। पर दुर्भाग्य से ऐसा हुआ नहीं।

3. इसी तरह के एक मामले में एक पति को पत्नी के चरित्र पर शक था। उसने कई बार पूछा, पर उसकी पत्नी मज़ाक में टाल जाती। ऐसे ही एक बार पति को गुस्सा आ गया और उसने थप्पड़ दे मारा। तब उसकी पत्नी बोली-"मेरा कोई ऐसा चक्कर नहीं था, तभी तो मैं इसे आपका मज़ाक समझती थी।" तब कही जाकर, थोड़ी बहुत बहस के बाद, मामला शांत हुआ। यहाँ पति ने अपनी नाराजगी-गुस्से को स्पष्ट प्रकट ना करते हुए पत्नी से गंभीर होकर नहीं पूछा, वही पत्नी ने मामले को मज़ाक में लेते हुए, इसका सीरियसली (गंभीरता से) जवाब देना उचित नहीं समझा, जबकि एक औरत के लिए यह सवाल सबसे दुश्वार सवाल होता हैं।

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उपरोक्त दोनों मामले, कोई ख़ास मामले नहीं हैं। यह तो बिलकुल ही मामूली-आम मामले हैं, जिनका सामना शायद आपने या आपके किसी जान-पहचान वाले ने अवश्य किया होगा। इन मामलो में कुछ विशेष नहीं करना होता हैं, बस अपनी भावनाओं को समय-समय पर व्यक्त करते रहना चाहिए। भावनाएं नहीं दबेगी, तो सारी बातें-कहानियां साफ़ रहेगी। दुराव-छिपाव होने की शुरुआत भावनाओं को दबाने से ही होती हैं। कोई भी बात अपने अन्दर दबा कर नहीं रखनी चाहिए, वरना एक ना एक दिन मामला बिगड़ता हैं और भावनाएं ज्वालामुखी के लावे की तरह फट कर बाहर आती हैं।

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क्यों दबाते हैं अपनी भावनाओं को??, क्यों हम अपनी बात को कहकर अपने दिलोदिमाग को हल्का नहीं करते??, क्यों हम अन्दर ही अन्दर घुटते रहते हैं??, कितने ही डाक्टर-वैज्ञानिक कहते हैं कि-"दिल में कुछ दबाकर रखना, दिमाग में कोई ना कोई उलझन-परेशानी का लगातार चलते रहना, या अपने दिल की बात कहकर मन हल्का ना करना, कई बीमारियों की जड़ हैं। शुगर, ब्लडप्रैसर, दिल और दिमाग की कई बीमारियों को खुला न्यौता देता हैं तनाव और भावनाओं को दबाना।" फिर भी ना जाने हम क्यों भावनाओं को व्यक्त करने में कंजूसी करते है?? भावनाओं को खुलकर, निर्भीक होकर व्यक्त करना चाहिए। हाँ, कुछेक मामलो में (मजबूर होना, किसी के सम्मान की रक्षा के लिए, आदि कारणों से) भावनाओं को दबाना उचित, माना जा सकता हैं। लेकिन जहां नुक्सान होता हो, जहां परिवार में कलह/बिखराव पैदा होता हो, या कही ग़लतफहमी पैदा होती हो, तो भावनाओ को छिपाना कहाँ की समझदारी हैं??

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धन्यवाद।

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Friday, March 05, 2010

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भगदड़ कब तक??????

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हालांकि आज मेरे पास ब्लॉग लिखने का वक़्त नहीं था और नाही मैं आज ब्लॉग पोस्ट करने की सोच कर बैठा था। लेकिन वाकया ही ऐसा घटित हो गया की मुझे आज आपात-स्थिति में ब्लॉग लेखन करना पडा। मेरा ब्लॉग लेखन आज नहीं करना था, इसका सबसे बड़ा सबूत यही हैं कि-"यह मेरा अभी तक का सबसे छोटा ब्लॉग पोस्ट हैं और सबसे ज्यादा जल्दी में लिखा हुआ भी।"

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कल सभी खबरिया समाचार पत्र और समाचार चैनल एक दुखांत घटना से परिपूर्ण थे। बाबा कृपालु जी महाराज के आश्रम में मची भगदड़ में साठ से ज्यादा लोग मारे गए और असंख्य लोग घायल हो गए। मारे गए लोगो में बच्चो और महिलायों की संख्या ज्यादा हैं। यह बहुत ही दिल देहला देने वाला नज़ारा था, कमजोर दिल के लोगो की तो हालत ही बिगड़ गयी होगी। मैं तो कई देर तक गंभीर सोच में पड़ गया, लेकिन क्यूंकि यह ब्लॉग पोस्ट जल्दी में की गयी हैं, इसलिए ज्यादा लम्बा ना लिखते हुए सिर्फ अपनी चिंताओं और सवालों को व्यक्त कर रहा हूँ।

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मेरे मन में निम्नलिखित चिंताएं-सवाल व्याप्त थे =

कब तक मचती रहेगी ऐसी जानलेवा भगदड़???

कब तक लोग बाबाओं-साधू-संतो की भीड़ भरी और असुरक्षित समागमो में जाते रहेंगे???

कब तक बाबा लोगो की सेवा करने या आशीर्वाद लेने के चक्कर में लोग मरने जाते रहेंगे??

आये दिन ऐसे हादसे, ऐसी दुखद घटनाओं की खबरे आती रहती हैं। कब रुकेंगी ऐसी खबरे आनी???

लोग पुरानी मौतों को भूलते नहीं कि कोई नयी घटना हो जाती हैं। जिम्मेदार कौन??

किसी को जाने से मैं रोक नहीं रहा हूँ लेकिन सुरक्षा व्यवस्था की जानकारी भी तो भक्तो को होनी चाहिए।

लोगो को दीर्ध आयु, तरक्की का आशीर्वाद देने वाले बाबा के सामने ही लोग काल-कवलित क्यों हो जाते हैं??

आम दिनों की बजाय बड़े महोत्सवो में ही क्यों जाते हैं लोग??

जबकि लोगो को पहले से ही भीड़ होने, असुरक्षा और असुविधा होने की पूरी जानकारी होती हैं।

क्या बड़े दिनों में या महोत्सवो में बाबा ज्यादा दमदार-तगड़ा आशीर्वाद देते हैं??

ना जाने कितने लोग इन भगदड़ो में मारे जा चुके हैं, और आगे भी ना जाने कितने लोग मारे जाएँगे??

इन मौतों से बाबा या संत महात्मा कोई सबक लेंगे, इसमें तो मुझे शंशय हैं।

लेकिन इन मौतों से आम जनता और प्रशासन कब सबक लेगा??

मृतकों-घायलों को कुछेक हज़ार या लाख की आर्थिक मदद क्या सार्थक हैं???

कब तक मुआवजा बाँट कर लोगो का ध्यान भटकाने की कोशिश की जाती रहेगी??

जितनी इनकी कमाई हैं, उसके आगे तो ये मुआवजा ऊंट के मूंह में जीरे के सामान हैं।

मैं यहाँ मुआवजा राशि बढाने के लिए नहीं कह रहा हूँ, मैं यहाँ अनमोल जिंदगियों की कीमत समझने के लिए कह रहा हूँ।

वो अनमोल जिंदगी जिसका आंकलन आप रुपयों में करते हैं। जबकि वो अरबो रुपयों से भी कही ज्यादा कीमती हैं।

उन बच्चो, उन विधवाओं की कुछ सोचिये?? जिन्हें आप मुआवजा रुपी लोलिपॉप से बहलाना चाहते हैं।

उन बुजुर्गो के सम्बन्ध में सोचिये जिनका एकमात्र कमाऊ बेटा या बेटी आपकी भगदड़ में आपकी (भगवान् की) प्यारी हो गयी।

आदि-आदि।

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और भी बहुत सारे-कई सवाल मेरे मन में उठ रहे हैं, लेकिन क्यूंकि जल्दी में होने और वक़्त ना होने के कारण मैं आज इतना ही ब्लॉग में लिख रहा हूँ। सभी मृतकों और घायलों को मेरी, मेरे ब्लॉग, और मेरे ब्लॉग के सभी पाठको की तरफ से हार्दिक संवेदना।

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धन्यवाद।

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CHANDER KUMAR SONI,

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RAJASTHAN, INDIA.

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