मेरे इस ब्लॉग का उद्देश्य =

मेरे इस ब्लॉग का प्रमुख उद्देश्य सकारात्मकता को बढ़ावा देना हैं। मैं चाहे जिस मर्ज़ी मुद्दे पर लिखू, उसमे कही ना कही-कोई ना कोई सकारात्मक पहलु अवश्य होता हैं। चाहे वह स्थानीय मुद्दा हो या राष्ट्रीय मुद्दा, सरकारी मुद्दा हो या निजी मुद्दा, सामाजिक मुद्दा हो या व्यक्तिगत मुद्दा। चाहे जो भी-जैसा भी मुद्दा हो, हर बात में सकारात्मकता का पुट जरूर होता हैं। मेरे इस ब्लॉग में आपको कही भी नकारात्मक बात-भाव खोजने पर भी नहीं मिलेगा। चाहे वह शोषण हो या अत्याचार, भ्रष्टाचार-रिश्वतखोरी हो या अन्याय, कोई भी समस्या-परेशानी हो। मेरे इस ब्लॉग में हर बात-चीज़ का विश्लेषण-हल पूर्णरूपेण सकारात्मकता के साथ निकाला गया हैं। निष्पक्षता, सच्चाई, और ईमानदारी, मेरे इस ब्लॉग की खासियत हैं। बिना डर के, निसंकोच भाव से, खरी बात कही (लिखी) मिलेगी आपको मेरे इस ब्लॉग में। कोई भी-एक भी ऐसा मुद्दा नहीं हैं, जो मैंने ना उठाये हो। मैंने हरेक मुद्दे को, हर तरह के, हर किस्म के मुद्दों को उठाने का हर संभव प्रयास किया हैं। सकारात्मक ढंग से अभी तक हर तरह के मुद्दे मैंने उठाये हैं। जो भी हो-जैसा भी हो-जितना भी हो, सिर्फ सकारात्मक ढंग से ही अपनी बात कहना मेरे इस ब्लॉग की विशेषता हैं।
किसी को सुनाने या भावनाओं को ठेस पहुंचाने के लिए मैंने यह ब्लॉग लेखन-शुरू नहीं किया हैं। मैं अपने इस ब्लॉग के माध्यम से पीडितो की-शोषितों की-दीन दुखियों की आवाज़ पूर्ण-रूपेण सकारात्मकता के साथ प्रभावी ढंग से उठाना (बुलंद करना) चाहता हूँ। जिनकी कोई नहीं सुनता, जिन्हें कोई नहीं समझता, जो समाज की मुख्यधारा में शामिल नहीं हैं, जो अकेलेपन-एकाकीपन से झूझते हैं, रोते-कल्पते हुए आंसू बहाते हैं, उन्हें मैं इस ब्लॉग के माध्यम से सकारात्मक मंच मुहैया कराना चाहता हूँ। मैं अपने इस ब्लॉग के माध्यम से उनकी बातों को, उनकी समस्याओं को, उनकी भावनाओं को, उनके ज़ज्बातों को, उनकी तकलीफों को सकारात्मक ढंग से, दुनिया के सामने पेश करना चाहता हूँ।
मेरे इस ब्लॉग का एकमात्र उद्देश्य, एक मात्र लक्ष्य, और एक मात्र आधार सिर्फ और सिर्फ सकारात्मकता ही हैं। हर चीज़-बात-मुद्दे में सकारात्मकता ही हैं, नकारात्मकता का तो कही नामोनिशान भी नहीं हैं। इसीलिए मेरे इस ब्लॉग की पंचलाइन (टैगलाइन) ही हैं = "एक सशक्त-कदम सकारात्मकता की ओर..............." क्यूँ हैं ना??, अगर नहीं पता तो कृपया ज़रा नीचे ब्लॉग पढ़िए, ज्वाइन कीजिये, और कमेन्ट जरूर कीजिये, ताकि मुझे मेरी मेहनत-काम की रिपोर्ट मिल सके। मेरे ब्लॉग पर आने के लिए आप सभी पाठको को बहुत-बहुत हार्दिक धन्यवाद, कृपया अपने दोस्तों व अन्यो को भी इस सकारात्मकता से भरे ब्लॉग के बारे में अवश्य बताये। पुन: धन्यवाद।

Monday, August 30, 2010

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तेज़ाब का इस्तेमाल क्यों????

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आजकल बड़े-मेट्रो शहरों के साथ-साथ देश भर के सभी छोटे-बड़े शहरों में असामाजिक-आपराधिक तत्वों द्वारा तेज़ाब का धड़ल्ले से इस्तेमाल किया जा रहा हैं। अभी तक सुनारों और स्कूल-कॉलेजो की रसायन-शालाओं की शान रही तेज़ाब अब आम लोगो की ज़िन्दगी से खिलवाड़ करने का ज़रिया बन कर रह गयी हैं।

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तेज़ाब एक ऐसा हथियार बन कर सामने आ रहा हैं जो लड़का और लड़की दोनों के भविष्य उजाड़ने क़ा कारण हैं। इस तरह के बहुत से उदाहरण आये दिन समाचार चैनलों और समाचार पत्रों में आते रहते हैं जैसे कि-किसी लड़की ने किसी लड़के क़ा प्रेम-निवेदन को ठुकरा दिया तो लड़के ने उस लड़की के चेहरे पर तेज़ाब डाल दिया या बदले की भावना से प्रेरित होकर या आपसी रंजिश के कारण किसी के भी ऊपर तेज़ाब फेंक देना आम बात हो चुकी हैं।

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वैसे तो तेज़ाब क़ा नाजायज़-आपराधिक इस्तेमाल लडको द्वारा लड़कियों पर किया जाता रहा हैं, लेकिन इन दिनों लड़कियों द्वारा भी लडको पर तेज़ाब के इस्तेमाल की खबरे यदा-कदा आ ही जाती हैं। खैर मुद्दा ये नहीं हैं कि तेज़ाब क़ा इस्तेमाल कौन और किसपर करता हैं??? मुद्दा ये हैं कि-तेज़ाब क़ा इस्तेमाल क्यों किया जाता हैं???? लड़की की सारी ज़िन्दगी ही तबाह हो जाती हैं। ना वो कही आने-जाने योग्य रहती हैं ना कही पढ़ाई-लिखाई करने या काम-धंधा करने योग्य रहती हैं। शादी तो लगभग नामुमकिन हो जाती हैं। कोई भी लड़की चाहे कितनी भी बोल्ड-आधुनिक, खुले आचार-विचारों की क्यों ना हो, तेज़ाब के हादसे के बाद ज़िंदा लाश समान रह जाती हैं।

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कोई चाहे कितना भी अमीर क्यों ना हो तेज़ाब गिरने से झुलसे चेहरे को पुन: पुरानी अवस्था में नहीं ला सकता। आज क़ा विज्ञान चाहे कितना भी उन्नत होने क़ा दावा क्यूँ ना करे, तेज़ाब से हुए (बिगड़े) चेहरे को ठीक नहीं कर सकता। ऐसा नहीं हैं तेज़ाब गिरने से सिर्फ लड़की की ही ज़िन्दगी बर्बाद होती हो, तेज़ाब डालने वाले (लड़के) की भी ज़िन्दगी नरक बन जाती हैं। उसे कोई पांच-सात साल नहीं बल्कि सीधे उम्रकैद की सज़ा भोगनी पड़ती हैं। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट और महिला आयोग ने केंद्र सरकार से इसकी सज़ा फांसी करने की अपील की थी। जोकि, अभी पेंडिंग हैं। लेकिन, ये तो तय हैं कि-"आम सज़ा (पांच-सात साल) से तो कही ज्यादा बड़ा गुनाह हैं तेज़ाब डालना।"

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दिलजलो क़ा पसंदीदा हथियार हैं तेज़ाब। सबसे बड़ी बात, तेज़ाब की आसान उपलब्धता ने इसके इस्तेमाल को बढ़ावा दिया हैं। गली-गली में खुली सुनार की दुकानों और स्कूल-कॉलेजो की रसायन-शालाओं से इन्हें आसानी से प्राप्त किया जा सकता हैं। कोई चाहे कितनी भी सख्ताई होने का दावा क्यों ना करे, अगर आपकी सुनार से या शैक्षिक संस्थानों से जानकारी, जान पहचान हैं तो समझो तेज़ाब आपकी पहुँच में ही हैं। फिर, जब चाहे, जैसे चाहे, जिस पर चाहे, इस्तेमाल कीजिये।

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ऐसा नहीं हैं कि-"तेज़ाब का चलन सिर्फ भारत में ही होता हो, तेज़ाब का धड़ल्ले से इस्तेमाल पाकिस्तान, बांग्लादेश, ईरान, ईराक, और सउदी अरब में भी होता हैं।" ये महज़ एक संजोग ही हैं कि-"तेज़ाब का इस्तेमाल मुस्लिम बहुल देशो (मलेशिया क़ो छोड़कर) में ही बहुतायत में होता हैं। भारत के मामले में इसे संगति का असर ही माना जा सकता हैं, वरना भारत कोई मुस्लिम देश तो हैं नहीं।"

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मैं तेज़ाब के बढ़ते इस्तेमाल क़ो लेकर चिंतित हूँ। ना जाने कितने लड़के तेज़ाब फेंक कर जेल की सलाखों के पीछे पहुँच गए हैं और ना जाने कितनी लड़कियों की ज़िन्दगी तेज़ाब से झुलसकर बर्बाद हो चुकी हैं। क्योंकि उस वक़्त अपराधी (चाहे लड़का हो या लड़की) पर एक भूत-जूनून सवार रहता हैं, वो उस वक़्त आगे-पीछे, अच्छा-बुरा कुछ भी नहीं सोचता हैं इसलिए क़ानून चाहे कितना भी सख्त क्यों ना हो जाए, सुनार और शैक्षिक संस्थान चाहे जितना मर्ज़ी गोपनीयता-सख्ताई बरतले तेज़ाब के बढ़ते चलन क़ो सिर्फ और सिर्फ जागरूकता से ही कम (खत्म) किया जा सकता हैं।

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धन्यवाद।

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CHANDER KUMAR SONI,

L-5, MODEL TOWN, N.H.-15,

SRI GANGANAGAR-335001,

RAJASTHAN, INDIA.

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Monday, August 23, 2010

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सिख जिंदाबाद, वाहेगुरु जिंदाबाद।
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जम्मू-कश्मीर में आजकल जो कुछ भी हो रहा हैं, वो घोर निन्दनीये हैं। 1985 के बाद में आतंकवाद ने पाँव फैलाने शुरू किये और कश्मीर के हालात तेज़ी से बदलने लगे। हालात इतनी तेज़ी से बदले, आतंकवादियों का नेटवर्क इतनी तेज़ी से फैला कि सरकार कुछ भी नहीं कर सकी। ना केंद्र सरकार और नाही राज्य सरकार। चाहे जिसकी भी गलती हो, चाहे राज्य सरकार की गलती हो या केंद्र सरकार की, चाहे जवाहर लाल नेहरु या महात्मा गांधी की गलती हो या ना हो। फिलहाल, इतिहास और अन्य बातों को एक तरफ करते हुए केंद्र और राज्य की दोनों सरकारों को संयुक्त रूप से तत्काल कड़ी कार्रवाही करनी चाहिए।

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सोचिये, क्या हासिल हो जाएगा अगर नेहरु या गांधी गलत साबित हो जायेंगे और क्या बिगड़ जाएगा अगर नेहरु या गांधी निर्दोष, बेगुनाह, सही निकल जायेंगे???? राज्य सरकार के गलत साबित होने या केंद्र सरकार के गलत साबित होने से क्या होगा??? कुछ नहीं होगा, उलटे दोनों सरकारे आमने-सामने आ जायेगी या गेंद एक-दुसरे के पाले में डाले जाने की नयी कवायदें शुरू हो जायेगी। सभी पक्षों को विशेषकर आम जनता (सिर्फ कश्मीर की ही नहीं बल्कि पुरे देश की) को इतिहास और पुराने नेताओं-लोगो की गलतियों-भूलो की तरफ ध्यान देने की बजाय मौजूदा समस्याओं के तत्काल समाधान के सम्बन्ध में सोचना चाहिए।

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इन बीतें बीस वर्षों में कश्मीरी पंडितों को करीब-करीब बेदखल कर दिया गया हैं। आज के वक्त में, वर्तमान में कश्मीरी पंडित पूरी तरह से घाटी से पलायन कर चुकें हैं। बमुश्किल, तीस-पैंतीस प्रतिशत ही कश्मीरी पंडित शेष रह गए हैं। आतंकवाद की मार और दोनों (केंद्र व् राज्य) सरकारों की लगातार अनदेखी ने कश्मीरी पंडितों के बुलंद हौसलों को डिगा दिया हैं। दोहरी मार को आखिर कब तक झेलते???, कर गए पलायन। आज नाममात्र के कश्मीरी पंडित ही कश्मीर घाटी में शेष रह गए हैं। उनके केसर के बागानों, कश्मीर की शान दोनों शालीमार और निशात बागो, उनके घरो, दुकानों, खेतों, आदि सभी चीजों पर फिलहाल मुसलमानों का कब्ज़ा हैं। कश्मीरी पंडितों के पलायन के बाद घाटी का सौन्दर्य नष्ट हो गया हैं, अब कश्मीर भारत का स्वर्ग नहीं रहा हैं। ये बात मैं नहीं कह रहा हूँ, इस बात की पुष्टि कश्मीर जाकर, घूमकर लौटे देशी व विदेशी पर्यटकों-सैलानियों से भी की जा सकती हैं।

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कश्मीर से हिन्दू, कश्मीरी पंडितों के पलायन या यूँ कहिये मुसलमानों द्वारा भगाने के बाद अब बारी सिखों की हैं। कश्मीर घाटी को हिन्दू विहीन करने के बाद अब सिख विहीन करने की तैयारी चल रही हैं। पाकिस्तान के समर्थन वाले आतंकवादी और कश्मीर के कट्टरपंथी मुसलमान इस मुहीम में शामिल हैं। उन्हें घाटी पूरी तरह से मुस्लिम बहुल चाहिए। कश्मीर में बहुसंख्यक आबादी मुसलमानों की ही हैं, लेकिन वे कश्मीर घाटी को शत-प्रतिशत मुस्लिम बहुल बनाने में लगे हुए हैं। जहां रहने-बसने, खाने-पीने, कमाने-कामधंधे करने, आदि सभी चीज़ों पर वे (मुसलमान) अपना सार्वभौमिक हक़ समझने लगे हैं। और अन्य कोई धर्म, पंथ, जाति, समुदाय उन्हें कश्मीर में फूटी आँख नहीं सुहा रहा हैं। हिन्दू विहीन करने के बाद अब पूरी कश्मीर घाटी को सिख विहीन करने की साज़िश रची जा रही हैं।

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सिख हिन्दुओं के रक्षक थे, हैं, और रहेंगे। सिख पंथ का प्रादुर्भाव-उदय हिन्दुओं की रक्षा के सद-उद्देश्य से किया गया था। मुसलमान शासको, मुगलों से हिन्दुओं को बचाने के लिए सिख धर्म का जन्म हुआ था। समय-समय पर जब भी हिन्दुओं पर कोई विपत्ति आई हैं, तब तब सिखों ने अपने प्राणों की परवाह भी ना करते हुए हिन्दुओं के जान-माल-इज्ज़त की रक्षा की हैं। मुसलमान इस तथ्य को जानते हैं कि-"जब तक सिख कौम का कश्मीर घाटी में वजूद हैं, तब तक हिन्दुओं को पूरी तरह से बेदखल नहीं किया जा सकता हैं। जितने हिन्दू, कश्मीरी पंडित पलायन कर गए तो कर गए, लेकिन बाकी बचे हिन्दुओं को पलायन करने को मजबूर करने के लिए, सिखों को मार्ग से हटाना होगा।" इसी साज़िश के तहत वे मुसलमान अब सिखों को भी कश्मीर छोड़कर जाने को मजबूर कर रहे हैं। लूटपाट कर, मारपीट कर, डरा धमका कर, माँ-बहन-बेटी-बहुओं की इज्ज़त से खेलकर वे किसी भी तरह इन हिन्दुओं के रक्षको, सिखों को सम्पूर्ण कश्मीर घाटी से बाहर कर देना चाहते हैं। ताकि सिख कौम के साथ-साथ हिन्दुओं को भी कश्मीर से बाहर निकाल सके और सम्पूर्ण कश्मीर घाटी में मुस्लिमो का शासन हो।

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मकसद साफ़ हैं, पाकिस्तान और आतंकियों को इन सभी घटनाक्रमों से लाभ हैं। कश्मीर की आज़ादी के नाम पर हिन्दुस्तान के टुकड़े करने और कश्मीर यानी हिन्दुस्तान के ताज पर कब्ज़ा करना यानी पाकिस्तान बनाना। कई मर्तबा प्रत्यक्ष और परोक्ष युद्धों में मात खा चुका पाकिस्तान इस बार नए तरीके से अपने नापाक इरादों में कामयाब होना चाहता हैं। तभी तो पत्थरबाजों को ट्रक भर-भर कर पत्थर पाकिस्तान से भेजा जा रहा हैं और रैलियों और प्रदर्शनों में पाकिस्तान के झंडे लहराने और पाकिस्तान समर्थित नारे लगाए जाने, आम बात हैं। हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि-"चुनाव करवाना कि-"जनता पाकिस्तान में रहना चाहती हैं या हिन्दुस्तान में??", खतरे से खाली नहीं हैं। कश्मीरी जनता भ्रमित हैं, आतंकित हैं, डरी हुई हैं। पाकिस्तान समर्थित आतंकवादियों और स्थानीय कश्मीरी कट्टरपंथियों के दबाव-धमकी में वो क्या फैसला सुना दे, कुछ कह नहीं सकते। तभी तो पाकिस्तान बारम्बार कश्मीर में इस सम्बन्ध में चुनाव चाहता हैं। ताकि चुनाव में गड़बड़ी फैला कर वो फैसला (चुनावी नतीजें) बदल दे। और ये संभव नहीं हैं, भला अपने देश के नागरिको से ही ये पूछना कि उन्हें पाकिस्तान रहना हैं या नहीं, निहायत ही बेवकूफी-बेतुका हैं।

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मेरे विचार से कश्मीर समस्या का एकमात्र समाधान यही हैं कि-"राज्य और केंद्र की दोनों सरकारें एकजुट होकर, आपसी मतभेदों को भुला कर, बिना गेंद एक-दुसरे के पाले में डाले, तुरंत इस समस्या से सख्ती से निपटें। सख्ती भूलकर भी आमजन के विरुद्ध नहीं होनी चाहिए, वरना वे और भी भड़क जायेंगे। सख्ती आमजनों की भीड़ में शामिल असामाजिक तत्वों के विरुद्ध होनी चाहिए। सख्ती कट्टरपंथियों के विरुद्ध होनी चाहिए। सख्ती पाकिस्तान के झंडे लहराने और पाकिस्तान समर्थित नारे लगाने वालो के विरुद्ध होनी चाहिए। इतना ही नहीं, अगर दोनों सरकारे एक ना होतो, कश्मीर की सरकार को तत्काल प्रभाव से भंग करते हुए वहाँ राष्ट्रपति शासन लगा देना चाहिए। देश के नेताओं में इच्छा शक्ति का नितांत अभाव हैं। इसलिए, क्योंकि राष्ट्रपति सेना के तीनो अंगो (जलसेना, थलसेना, और वायुसेना) का उच्चाधिकारी होता हैं इसलिए सीधे सैन्य कार्रवाही का हुक्म दिया जाना चाहिए। जब पाकिस्तान के लिए कोई नियम नहीं हैं तो भारत के लिए ही नियम क्यों???? पुरे कश्मीर को भारत में मिला लेना चाहिए। माना सीधे युद्ध में बहुत जान-माल का नुकसान होगा, लेकिन रोज़-रोज़ के क्लेश-तनाव से तो मुक्ति मिलेंगी।

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सिख कश्मीर में थे, हैं, और भविष्य में भी रहेंगे। सिख जिंदाबाद, वाहेगुरु जिंदाबाद। सिखों ने हमेशा हिन्दुओं की रक्षा की हैं, अब अगर जरुरत पड़ी तो सिखों की रक्षा हिन्दू करेंगे।

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आप अभी भी चुपचाप-शान्ति से बैठे हैं। क्या ये सब जानकर भी अब आपका खून नहीं खौल रहा हैं????

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धन्यवाद।

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Monday, August 16, 2010

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ये कैसा नारी सशक्तिकर्ण???
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आजकल हर ओर नारी सशक्तिकर्ण की बयार बह रही हैं। जिधर नज़र दौडाओ वही नारी सशक्तिकर्ण की बातें नज़र आ रही हैं। आज नारी सशक्तिकर्ण का इतना राग अलापा जा रहा हैं कि-"पुरुषो को हीन भावना महसूस होने लगी हैं।" सब और नारी की ही बात हो रही हैं, बेचारे पुरुषो को कोई पूछ ही नहीं रहा हैं। मानो, पुरुष वर्ग को कोई समस्या ही ना हो, सारी समस्याएं स्त्रियों की ही हो। ये भी भला कोई बात हुयी।

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तलाक के मामले भी शायद इन्ही कारणों से बढ़ रहे हैं। पहले पति-पत्नी में तनाव होने पर एक पक्ष (आमतौर पर पत्नी) शांत बना रहता था, जिससे तनाव नहीं बढ़ता था ओर वैवाहिक जीवन बचा रहता था। लेकिन, नारी अब सशक्त तो हुयी हैं, लेकिन शायद नकारात्मक रूप से। तभी तो सहनशक्ति समाप्त हो चली हैं, लड़ने को तो मानो तैयार ही रहती हो। मैं नारी जाति को सुना नहीं रहा हूँ, मैं तो उनकी एक कमी की तरफ ध्यान दिला रहा हूँ। पति कामधंधे के तनाव के साथ-साथ आर्थिक-सामाजिक रूप से भी परेशान रहता हैं। उनके गुस्से को शांत भाव से पी लेना चाहिए, बजाय लड़ने या बहस करने के।

(जहां पति-पत्नी दोनों कामकाजी हो वहाँ और बात हैं। क्योंकि उस स्थिति में दोनों ही तनावग्रस्त होते हैं, और दोनों को ही संयम, शांति से काम लेना होता हैं। यहाँ मुद्दा कामकाजी पति और घरेलु पत्नी का हैं।)

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मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि--"औरत को पति की मार सहनी चाहिए या पति को परमेश्वर समान मानते हुए उनके जुल्मो को सहना चाहिए।" मैं तो सिर्फ सूझबूझ, ठन्डे दिमाग से काम लेने का सुझाव देना चाह रहा हूँ। पति को गुस्से के वक़्त समझाने की बजाय थोड़ी देर बाद मौके की नजाकत और माहौल के शांत होने के बाद समझाना चाहिए।

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आज नारी सशक्तिकरण के नाम पर औरत हर क्षेत्र में दाखिल हो चुकी हैं। जो क्षेत्र कल तक पुरुषो के वर्चस्व वाले क्षेत्र माने जाते थे, वहाँ अब औरतो ने पैठ बना ली हैं। जैसे कि-ड्राइवर, टेक्सी ड्राइवर, फायर ब्रिगेड में, खेतो में ट्रक्टर से जुताई करना, युद्ध क्षेत्र, लड़ाकू विमान चलाना, कल-कारखानों में मजदूरी व मनेज़री का कार्य करना, और तमाम खेलकूद आदि। ये बहुत अच्छी बात हैं, और मैं औरतो की इस तरक्की से खुश हूँ और समस्त नारी-जाति को बधाई भी देता हूँ।

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लेकिन ये भी एक दुर्भाग्य हैं कि-"नारी सशक्तिकरण, नारी को मज़बूत करने के नाम पर परिवार तोड़ा जा रहा हैं। समाज की सबसे छोटी, शुरुवाती, और सबसे मज़बूत इकाई--परिवार--को तोड़ा जा रहा हैं। जोकि अंतत: सामाजिक बिखराव के रूप में सामने आयेगा। मेरी महिलाओं से एक ही दरख्वास्त, अपील हैं कि-"आप चाहे जितनी भी मज़बूत हो जाइए, लेकिन परिवार की नींव को ना दरकने दीजिये। अपनी सूझ-बूझ से, और ठन्डे दिमाग से काम लेते हुए, परिवार को एकजुट रखिये। कोई भी वाद-विवाद होने पर पति को गुस्से के वक़्त समझाने की बजाय थोड़ी देर बाद मौके की नजाकत और माहौल के शांत होने के बाद समझाइये। अपने सशक्त होने के अहम् को त्यागिये, और अपने होश संभालते हुए परिवार और अंतत: समाज को टूटने से बचाइये।"
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मुझे एक बात समझ में नहीं आती हैं कि--
औरत तलाक क्यों लेती हैं???
औरत तलाक लेते वक़्त पति से भत्ता क्यों मांगती हैं???
शादी से पहले भी तो माता-पिता के पास रहती थी, अब क्यों नहीं रह सकती????
अगर माता-पिता नहीं हैं तो भाइयों के पास क्यों नहीं रहती?????
इतना ही हैं तो खुद कमाकर क्यों नहीं खाती??

खुद कमाकर किराए का घर क्यों नहीं लेती???

एक तो पति को तलाक देकर छोडो और फिर उसके पैसो (भत्तो) पर ऐश क्यों????

आदि-आदि।
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विशेष = मैंने ये ब्लॉग पोस्ट महिलायों के खिलाफ नहीं लिखी हैं और नाही मैंने स्त्रियों की तरक्की से जलभुन कर ये सब लिखा हैं। मैंने ये सब उन मामलो को लेकर लिखा हैं जहां कई औरतो ने अहंकारवश, अकड़ में, अहंभाव से प्रेरित होकर तलाक लिया हैं और पति को और दबाने के लिए उसकी कमाई पर भी गिद्ध दृष्टि गडाते हुए अदालत से गुज़ारा-भत्ता मांग लिया। ये मेरे मन का दर्द हैं, मैं तलाक के बढ़ते मामलो और समाज में टूटकर बिखरते परिवारों को देखकर बेहद दुखी-चिंतित हूँ। ये ब्लॉग पोस्ट मैंने सिर्फ उन दपत्तियों के लिए लिखा हैं जहां सिर्फ पति ही कामकाजी हैं। पति को समझते हुए पत्नी को संयम-धैर्य से काम लेना चाहिए। जहां दोनों पति-पत्नी कामकाजी हो वहाँ होनो की बराबर ज़िम्मेदारी बनती हैं।

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धन्यवाद।

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Monday, August 09, 2010

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नदियाँ जोड़ें, देश बचाएं।

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आपको शायद याद होगा कि-"केंद्र की पूर्ववर्ती सरकार ने देश भर की सभी नदियों को जोड़ने का अरबो रुपयों का एक मास्टर प्लान बनाया था।" और शायद ये भी एक तथ्य आपको मालूम होगा कि-"मौजूदा केंद्र सरकार ने उस प्रस्ताव को राजनितिक कारणों से ठण्डे बस्ते में डाला हुआ हैं।"

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देश भर में सिंचाई के लिए और पीने के लिए (पेयजल) पानी की जबरदस्त किल्लत हैं, लेकिन ये किल्लत विशेष रूप से समूचे उत्तर भारत में ही हैं। दक्षिण भारत में अलग नदियाँ हैं और पूर्वी राज्यों में पानी की कोई ख़ास किल्लत नहीं हैं। इसी किल्लत, इसी पानी की कमी को दूर करने के लिए पूर्ववर्ती केंद्र सरकार ने देश की सभी नदियों को जोड़ने का अरबो रुपयों का मास्टर प्लान बनाया था। लेकिन ये देश का दुर्भाग्य हैं कि-"मौजूदा सरकार ने इस अहम् जलीय मुद्दे को ठण्डे बस्ते में डाला हुआ हैं।"

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उत्तर भारत में पानी का मुख्य और एकमात्र स्त्रोत पहाडो और हिमालय से आने वाला जल ही हैं। जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश में तो पानी पहाडो और हिमालय से आ जाता हैं। कई नदियाँ तो चीन से भी इन दोनों राज्यों में प्रवेश करती हैं। लेकिन राज़स्थान, हरियाणा, पंजाब, उत्तरप्रदेश, राजधानी दिल्ली, मध्यप्रदेश, आदि उत्तरी राज्यों में पानी हिमाचल और जम्मू-कश्मीर होकर ही आता हैं। लेकिन, सभी राज्यों में सबसे ज्यादा पानी की किल्लत राजस्थान में हैं। सब राज्यों से बड़ा और सब राज्यों से सबसे ज्यादा सूखा राज्य राज़स्थान ही हैं। सबसे ज्यादा सूखाग्रस्त और अकालग्रस्त और पानी का सबसे ज्यादा जरूरतमंद राज्य राज़स्थान हैं।

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यहाँ पानी सीधे नहीं आता हैं। राजधानी दिल्ली, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, पंजाब, और हरियाणा जैसे राज्य सीधे हिमाचल प्रदेश से जुड़े हुए हैं। लेकिन राजस्थान का पानी हिमाचल प्रदेश से वाया पंजाब और हरियाणा होकर आता हैं, इसलिए राज़स्थान को पानी कम मिल रहा हैं क्योंकि पंजाब और हरियाणा राज्य के हिस्से का पानी पी गए हैं यानी दे नहीं रहे हैं। पंजाब को कुछ कहो तो वो ये मुद्दा ये कहकर हरियाणा के ऊपर ड़ाल देता हैं कि-"हरियाणा पंजाब को पूरा पानी नहीं दे रहा हैं।" और जब हरियाणा को कुछ कहे तो वो गेंद केंद्र सरकार और हिमाचल प्रदेश के पाले में ड़ाल देता हैं। यानी राज़स्थान फिलहाल सूखा और अकाल के साथ-साथ पानी की किल्लत की दोहरी मार झेल रहा हैं।

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आप सभी पाठको की जानकारी के लिए बता दूं कि-"राजस्थान सरकार ने इस सम्बन्ध में काफी सालो से सुप्रीम कोर्ट और केंद्र सरकार की कई समितियों में विभिन्न याचिकाएं दाखिल कर रखी हैं। कोर्ट का तो आप जानते ही कितनी जल्दी फैसला आता हैं और केंद्र सरकार किसी भी राज्य पंजाब और राजस्थान के पक्ष में निर्णय नहीं ले पा रही हैं।"

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सूखा और अकाल तो दूर कई राज्यों में कमोबेश हर साल बाढ़ भी आती हैं। बिहार तो हर साल बाढ़ की चपेट में आ ही जाता हैं। कभी कोई नदी उफन उठती हैं तो कभी कोई, यानी हर साल किसी ना किसी नदी में बाढ़ आ ही जाती हैं। जान का नुकसान चाहे ना होता हो लेकिन संपत्ति और माल का नुकसान तो होता ही हैं। लाखो लोग बेघरबार हो जाते हैं, उनके रहने-सहने, ठहराव, पुर्नवास के लिए सरकार के करोडो रूपये स्वाहा हो जाते हैं। साथ ही जनजीवन अस्त-व्यस्त हो जाता हैं। वरना जितने समय बाढ़ के कारण ये लोग कोई कामधंधा नहीं कर पाते अगर ये समय बिना बाढ़ के हो तो लाखो-करोडो रूपये सरकार के खाते में टैक्स व अन्य मदों (राहत के कार्यो में जाया ना हो) में आ सकते हैं।

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इसी बाढ़ और अकाल-सूखे की समस्या के समाधान के लिए सभी नदियों को जोड़ा जाना था, ताकि जहां पानी ज्यादा हो वहाँ पानी का स्तर कम किया जा सके और जहां पानी की गंभीर कमी हो वहाँ इसकी पूर्ति की जा सके। लेकिन राजनीति कहलो या इच्छा-शक्ति की कमी, राज़स्थान सूखे, अकाल, और प्यास से तड़प रहा हैं और बिहार बाढ़ में डूब कर मर रहा हैं। सभी उत्तरी राज्यों को पानी सीधे पडोसी राज्य से मिल रहा हैं। लेकिन राज़स्थान को पानी दो-तीन राज्यों से होकर (गुजर कर) मिल रहा हैं, राजस्थान देश का सबसे ज्यादा सूखा और अकालग्रस्त राज्य हैं। उसे पानी की तत्काल आवश्यकता हैं। लेकिन पंजाब राज़स्थान का पानी रोके बैठा हैं, पंजाब झूठ बोलकर, बेबुनियाद बात (हरियाणा पर आरोप लगाना) कर रहा हैं। राज्य सरकार ने कई सालो से, काफी सालो से केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट में विभिन्न याचिकाएं दायर कर रखी हैं। लेकिन न्याय नहीं मिला। कब मिलेगा, कैसे मिलेगा कुछ कह नहीं सकते।

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इसलिए अब वक़्त आ गया हैं = देश भर की सभी नदियों को तत्काल जोड़ा जाए और पानी पर राज्यों की बजाय केंद्र का हक़-अधिकार दिया जाए। राज्यों की आपसी लड़ाई, मतभेदों को समाप्त करने का यही एक कारगर और सफल उपाय हैं कि-"सभी नदियों को जोड़ दिया जाए और पानी पर राज्यों का हक़/अधिकार समाप्त करते हुए सभी ताकत केंद्र सरकार को दे दी जाए।"

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एक अति-महत्तवपूर्ण सूचना = सभी पाठको को बता देना चाहता हूँ कि-"मौजूदा सरकार ने सत्ता में आने के बाद इस दिशा में सकारात्मक कदम उठाया (या तैयारी) था, लेकिन तत्कालीन सत्ताधारी दल और मौजूदा विपक्षियों ने ये कहकर उपहास / मज़ाक उड़ाया कि-"तुम कौनसा नया काम कर रहे हो???, तुम कर क्या रहे हो??, हमारा ही कार्य तुम कर रहे हो, ताकि जनता तुम्हे इस कार्य का श्रेय दे।" हम आम जनता के द्वार पर जायेंगे और उन्हें बता देंगे कि-"तुमने कुछ नहीं किया हैं, ये प्रोजेक्ट तो हमारा बनाया हुआ, हमारा फाइनल किया हुआ हैं। इस कार्य का श्रेय हमारा हैं और हम ही लेंगे।" बस उसके बाद मौजूदा सरकार ने इस अहम् मुद्दे को ठण्डे बस्ते में ड़ाल दिया, जो दुर्भाग्य से अब तक ठण्डे बस्ते में ही पडा हैं।"

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धन्यवाद।

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Monday, August 02, 2010

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ये किसी सौतन से कम नहीं।
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आज तक आपने जितनी भी सौतनों के बारे में सुना होगा, उन सभी सौतनो से ज्यादा खतरनाक और घातक सौतन हैं ये कामधंधा, नौकरी। हैरान ना होइए मैं सौ प्रतिशत सच, सोलह आने सत्य कह रहा हूँ। आजकल की भागती-दौड़ती, व्यस्त और तेजरफ्तार ज़िन्दगी में सब और धन का ही बोलबाला हैं। जिसे देखो वो पैसे के पीछे भाग रहा हैं। मानो, पैसा ही सब कुछ हो, पैसा ही पानी और प्राणवायु की तरह महत्तवपूर्ण हो।
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नौकरी, कामधंधा, व्यापार आदि अब सौतन का रूप धरते जा रहे हैं। एक ऐसी सौतन जिससे कमोबेश हर औरत जूझ रही हैं। हर व्यक्ति अपनी बीवी और बच्चो से दूर होता जा रहा हैं। जब देखो पैसा, पैसा, और पैसा की ही रट लगाए रखता हैं व्यक्ति। चाहे कोई नौकरी करता हो या बिजनेस करता हो, या दुकानदारी या कामधंधा करता हो, सब इतने व्यस्त हो चुके हैं की उन्हें अपने परिवार का ही ख्याल नहीं रहा हैं। नज़र बस अपनी ड्यूटी पर ही लगी रहती हैं। परिवार की तरफ से तो नज़र ही फेर ली गयी हैं।
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जिन परिवारों में पति के साथ-साथ पत्नी भी नौकरी करती हो वहाँ तो हालात विकट हो जाते हैं। वहाँ बच्चो का और बूढ़े/उम्रदराज माता-पिता का ख्याल ईश्वर ही रखता हैं। सुबह दोनों पति-पत्नी दफ्तर के लिए तैयार होने और बच्चो को स्कूल भेजने (यदि स्कूल जाने लायक हो तो) में ही व्यस्त हो जाते हैं और फिर शाम को (अक्सर देर रात) को घर आने के बाद खाना-वाना खा-पीकर सो जाते हैं। माँ-बाप के लिए तो बस दुआ-सलाम ही शेष रह जाती हैं।
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खैर बात करते हैं, जहां सिर्फ पति या पुरुष नौकरी करता हो। पुरुष अब काफी व्यस्त हो गया हैं, जल्दी पैसा कमाने की धुन, जल्द से जल्द अमीर बनने की ललक, और बाज़ार में मौजूद गला-काटूँ कम्पीटीशन ने व्यक्ति को उलझा दिया हैं। जब देखो काम-काम-काम, पैसा-पैसा-पैसा, बस यही एक आदमी की ज़िन्दगी और ज़ीने का मकसद रह गया हैं। परिवार में बीवी तो बस घर लायक ही हैं जो खाना बना दे, कपडे धो/प्रेस करदे, आदि-आदि। बच्चे सिर-हाथ-पैर दबा दे, या कोई छोटे-मोटे काम करदे आदि-आदि।
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अब ये नौकरी, कामधंधा क्या किसी सौतन से कम हैं?? माना कामकाज करना, नौकरी करनी जरुरी हैं लेकिन इतनी भी क्या जरुरी कि-"व्यक्ति अपने परिवार, अपने बीवी-बच्चो को ही भुला दे??" चलिए जो भी हो, अब तो स्थिति ये हो गयी हैं कि-"वर्किंग डेज़ के साथ-साथ अब व्यक्ति ओवर-टाइम भी देने लगा हैं, ताकि थोड़ा ज्यादा धन कमा सके। इसके साथ-साथ अब व्यक्ति छुट्टी के दिन भी व्यस्त रहने लगा हैं। कभी दफ्तर के तनाव के कारण छुट्टी का दिन बेकार हो जाता हैं तो कभी दफ्तर का कार्य पुरुष छुट्टी के दिन घर ले आता हैं। छुट्टी के दिन भी एन्जॉय करने कि बजाय चिंताग्रस्त पति/पुरुष अगले दिन की रूपरेखा बनाने लगता हैं। जिससे पुरे परिवार का मज़ा किरकिरा हो जाता हैं।
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बच्चे भले ही अपने दोस्तों के साथ या पड़ोस/गली के बच्चो से मिल ले, खेल ले लेकिन पत्नी...??? अगर पत्नी किट्टी-पार्टी या पड़ोसनो से गप्पे लड़ा ले तो भी कब तक और कितना??? पत्नी और बच्चो को पति=पापा का तो साथ नहीं मिला। परिवार पति/पुरुष के बिना अधूरा होता हैं, पड़ोस के लोग, पडोसने, गली-मोहल्लो के बच्चे परिवार का हिस्सा कदापि नहीं हो सकते। सब कुछ जरुरी हैं, पैसा कमाना जरूरी हैं, नौकरी-कामधंधा सब जरुरी हैं, लेकिन परिवार भी जरुरी हैं। आपके बीवी-बच्चो को आपकी आवश्यकता हैंउन्हें समय दीजिये, उनके साथ वक़्त गुज़ारिये। उनके साथ-साथ आपको भी सुकून मिलेगा, सारी चिंताएं, सारी टेंशन, सब दूर भाग जायेंगी। चाहे कितना भी जरुरी क्यों ना हो, चाहे कितनी भी तनख्वाह क्यों ना हो, छुट्टी का दिन परिवार को दीजिये। बाकी दिन / कार्यदिवस को चाहे हाड़तोड़ मेहनत कीजिये, खूब खून-पसीना बहाइये, लंबा ओवरटाइम कीजिये, लेकिन छुट्टी के दिन परिवार के साथ रहिये।
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तो आप कबसे छुट्टियों का परिवार के लिए उपयोग करेंगे और इस सौतन से छुटकारा दिलाएंगे???
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