मेरे इस ब्लॉग का उद्देश्य =

मेरे इस ब्लॉग का प्रमुख उद्देश्य सकारात्मकता को बढ़ावा देना हैं। मैं चाहे जिस मर्ज़ी मुद्दे पर लिखू, उसमे कही ना कही-कोई ना कोई सकारात्मक पहलु अवश्य होता हैं। चाहे वह स्थानीय मुद्दा हो या राष्ट्रीय मुद्दा, सरकारी मुद्दा हो या निजी मुद्दा, सामाजिक मुद्दा हो या व्यक्तिगत मुद्दा। चाहे जो भी-जैसा भी मुद्दा हो, हर बात में सकारात्मकता का पुट जरूर होता हैं। मेरे इस ब्लॉग में आपको कही भी नकारात्मक बात-भाव खोजने पर भी नहीं मिलेगा। चाहे वह शोषण हो या अत्याचार, भ्रष्टाचार-रिश्वतखोरी हो या अन्याय, कोई भी समस्या-परेशानी हो। मेरे इस ब्लॉग में हर बात-चीज़ का विश्लेषण-हल पूर्णरूपेण सकारात्मकता के साथ निकाला गया हैं। निष्पक्षता, सच्चाई, और ईमानदारी, मेरे इस ब्लॉग की खासियत हैं। बिना डर के, निसंकोच भाव से, खरी बात कही (लिखी) मिलेगी आपको मेरे इस ब्लॉग में। कोई भी-एक भी ऐसा मुद्दा नहीं हैं, जो मैंने ना उठाये हो। मैंने हरेक मुद्दे को, हर तरह के, हर किस्म के मुद्दों को उठाने का हर संभव प्रयास किया हैं। सकारात्मक ढंग से अभी तक हर तरह के मुद्दे मैंने उठाये हैं। जो भी हो-जैसा भी हो-जितना भी हो, सिर्फ सकारात्मक ढंग से ही अपनी बात कहना मेरे इस ब्लॉग की विशेषता हैं।
किसी को सुनाने या भावनाओं को ठेस पहुंचाने के लिए मैंने यह ब्लॉग लेखन-शुरू नहीं किया हैं। मैं अपने इस ब्लॉग के माध्यम से पीडितो की-शोषितों की-दीन दुखियों की आवाज़ पूर्ण-रूपेण सकारात्मकता के साथ प्रभावी ढंग से उठाना (बुलंद करना) चाहता हूँ। जिनकी कोई नहीं सुनता, जिन्हें कोई नहीं समझता, जो समाज की मुख्यधारा में शामिल नहीं हैं, जो अकेलेपन-एकाकीपन से झूझते हैं, रोते-कल्पते हुए आंसू बहाते हैं, उन्हें मैं इस ब्लॉग के माध्यम से सकारात्मक मंच मुहैया कराना चाहता हूँ। मैं अपने इस ब्लॉग के माध्यम से उनकी बातों को, उनकी समस्याओं को, उनकी भावनाओं को, उनके ज़ज्बातों को, उनकी तकलीफों को सकारात्मक ढंग से, दुनिया के सामने पेश करना चाहता हूँ।
मेरे इस ब्लॉग का एकमात्र उद्देश्य, एक मात्र लक्ष्य, और एक मात्र आधार सिर्फ और सिर्फ सकारात्मकता ही हैं। हर चीज़-बात-मुद्दे में सकारात्मकता ही हैं, नकारात्मकता का तो कही नामोनिशान भी नहीं हैं। इसीलिए मेरे इस ब्लॉग की पंचलाइन (टैगलाइन) ही हैं = "एक सशक्त-कदम सकारात्मकता की ओर..............." क्यूँ हैं ना??, अगर नहीं पता तो कृपया ज़रा नीचे ब्लॉग पढ़िए, ज्वाइन कीजिये, और कमेन्ट जरूर कीजिये, ताकि मुझे मेरी मेहनत-काम की रिपोर्ट मिल सके। मेरे ब्लॉग पर आने के लिए आप सभी पाठको को बहुत-बहुत हार्दिक धन्यवाद, कृपया अपने दोस्तों व अन्यो को भी इस सकारात्मकता से भरे ब्लॉग के बारे में अवश्य बताये। पुन: धन्यवाद।

Friday, January 29, 2010

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धर्म के नाम पर मची लूट, पर सब मौन।

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सुना आपने?? शिरड़ी के सत्य साईं मंदिर संस्थान ने भी धर्म के नाम पर लूट मचाने की पूरी तैयारी कर ली हैं। अब तक जो दर्शन लोगो को फ्री में होते थे, अब उन्ही दर्शनों के लिए जेब ढीली करनी पड़ेगी। लोगो को अपने आराध्य देव के, भगवान् के दर्शन मुफ्त में नहीं हो सकेंगे। यह फैसला घोर निंदनीय हैं, इस फैसले की जितनी निंदा की जाए, कम होगी। यह कोई अनोखा फैसला नहीं हैं और नाही यह कोई पहला मौक़ा हैं। ठीक इसी तरह का फैसला सन 2008 में वैष्णौ देवी मंदिर, जे&के में भी लिया गया था। ऐसा नहीं हैं की उस दफा विरोध-आलोचना नहीं की गयी थी, खूब की गयी थी, खूब हँगामा भी मचा था, लेकिन.........धर्म का मामला था, इसलिए आसानी से दबा दिया गया।

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वैष्णौ देवी मंदिर में तब विआईपी लोगो के लिए हेलीकाप्टर सुविधा शुरू की गयी थी, ताकि भक्तो को सीधा माता के गुफा के बाहर उतारा जा सके। यानी जो अमीर-धनवान और पहुँच वाला हैं, वो बिना चढ़ाई किये और बिना समय गंवाए सीधा माता के चरणों में शीश नवां सके और आमजन, गरीब आदमी पहले घंटो दुर्गम चढ़ाई करे और फिर लाइन में लगे। हेलीकाप्टर सुविधा शुरू करना बुरा या निंदनीय नहीं हैं, बुरा हैं उस सुविधा के इस्तेमाल करने की ऊँची कीमत, जोकि आम जन के हाथ में नहीं हैं। इस सुविधा की शुरुआत ही पैसा कमाने और अमीर लोगो को आकर्षित करने के लिए की गयी हैं। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण हैं, जब भगवान् ही भक्तो-भक्तो में भेद नहीं करता हैं, तो हम कौन होते हैं, ऐसा नीच-कर्म करने वाले?? ठीक हैं, हेलीकाप्टर का संचालन घाटा उठाकर नहीं किया जा सकता, लेकिन दाम???? दाम तो ऐसा तय करना चाहिए जो सबके लिए एक-समान हो। यह भी कोई बात हुई कि-दाम इतने ऊँचे रखे जाए जो आमजन के बूते की ही बात ना हो??

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यह तो थी वैष्णौ देवी मंदिर की बात, शिरड़ी के साईं बाबा मंदिर संस्थान ने तो हद ही पार कर दी हैं। मैंने तो यह बात कभी सपने में भी नहीं सोची थी। आप जानेंगे तो आप भी हैरान हुए बिना नहीं रह सकेंगे?? शिरड़ी के साईं बाबा संस्थान ने सुबह और दोपहर की आरती के तीन सौ रूपये, शाम की आरती के लिए पांच सौ रूपये, और मंदिर में प्रवेश करने या साईं बाबा के दर्शन मात्र करने के लिए प्रति व्यक्ति एक सौ रूपये तय किये हैं। क्या यह उचित हैं???

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हिन्दुस्तान मंदिरों का देश हैं, यहाँ गली-गली, मोहल्ले-मोहल्ले में मंदिर या कोई अन्य धार्मिक-स्थल मिल जाएगा। इक्का-दुक्का मंदिरों को छोड़कर सभी मंदिर बम्पर कमाई कर रहे हैं, खूब चांदी कूट रहे हैं, देश भर के धार्मिक स्थल, आखिर धार्मिक देश जो हैं। देश भर के मंदिरों में टॉप 10 स्थानों पर उपरोक्त दोनों मंदिर (साईं बाबा और वैष्णौ देवी मंदिर) आते हैं। दोनों मंदिरों की कमाई देश भर में व्याप्त सभी मंदिरों की कुल कमाई से भी ज्यादा हैं, आये दिन इनका कोई ना कोई भक्त चांदी या सोने का सिंहासन या छत्र चढ़ाता रहता हैं। शुद्ध से शुद्धतम चांदी/सोने से निर्मित सिंहासन/छत्र के साथ-साथ इन्हें भारी मात्रा में दान-चढ़ावा भी तो प्राप्त होता हैं।

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यह बहुत ही बुरी बात हैं। जब ऐसे बड़े-बड़े, प्रसिद्ध मंदिर ही ऐसा करेंगे, तो देश के कोने-कोने में फैले छोटे-बड़े मंदिर ऐसा कौनसा कदम नहीं उठाएंगे?? भक्तो का तो जीना ही दुर्भर हो जाएगा, साधू-संत-महात्मा इन भोले-भाले भक्तो को अपनी चिकनी-चुपड़ी बातों से आये दिन बरगलाते रहते हैं। जब भगवानो के दर्शन बिना धन के संभव नहीं होगा तो आम आदमी-गरीब व्यक्ति क्या करेगा?? साधू-महात्मा आम जनता को ऐसी पट्टी/पाठ पढ़ाते हैं कि-"भक्तो को मंदिर ना जाना, घोर पाप, जीवन व्यर्थ जाना, आदि लगने लगता हैं।" उन्हें लगने लगता हैं कि-"अगर फला-फला मंदिर ना गए तो उनका जीवन ऐसे ही व्यर्थ चला जाएगा। अपने आराध्य देव-भगवान् से मुलाक़ात करना निहायत ही जरूरी हैं, चाहे उसके लिए कितने भी कष्ट (दुर्गम चढ़ाई करना, खतरनाक मोड़ से गुज़रना, खाने को अन्न ना हो लेकिन प्रसाद के लिए पैसा जरूर हो, आदि-आदि) क्यों ना सहने पड़े??"

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इसी बात का नाजायज लाभ, ये पण्डे-पुजारी, साधू-संत, और मंदिरों के मालिक उठाते हैं। भक्तो को भेड़ो की तरह हांकना कोई इनसे सीखें। भक्तो को किस तरह सत्संगों-समागमो में लाना हैं, भक्तो को किस तरह किसी विशेष मंदिर की और भेजना हैं, और भक्तो से मंदिरों में किस तरह से पैसा निकलवाना, दान कराना हैं, आदि मामलो के तो यह लोग विशेषज्ञ होते है। भगवान् ने अपने हर अवतारों में अपने भक्तो को भरपूर स्नेह दिया हैं। कही भी, कभी भी, किसी भी वक़्त, भगवान् ने भक्तो-भक्तो को अलग-अलग नहीं समझा हैं। उन्होंने सैदेव अपने सभी भक्तो को एकसमान माना हैं। फिर ना जाने क्यों, ये लोग भक्त-भक्त को आम और ख़ास, सामान्य और विआईपी, अमीर और गरीब, आदि भेदो में बाँट रहे हैं?? भक्त, भक्त होता हैं, भक्त भगवान् का होता हैं नाकि किसी मंदिर-देवालय का। ना जाने क्यों ये लोग ऐसा नीच-कर्म, घोर पाप कर रहे हैं???

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भगवान् और भक्तो के बीच की कड़ी (साधू-संत-महात्मा) भक्तो और भगवान् के बीच जानबूझ कर दूरियां पैदा कर रही हैं। जहां निश्छल प्रेमभाव होना चाहिए था, वहाँ ये लोग धन की दिवार खड़ी कर रहे हैं। भक्तो में भगवान् के प्रति मन के समर्पण की भावना होनी चाहिए, लेकिन दुर्भाग्य से ये लोग मन की बजाय धन के समर्पण की भावना पैदा कर रहे हैं। जब देश के सबसे ज्यादा कमाऊ-प्रसिद्ध मंदिर ऐसा कर रहे हो तो बाकी छोटे-बड़े मंदिर उनके नक्शेकदम पर नहीं चलेंगे?, इस बात की क्या गारंटी हैं???? मुझे समझ में नहीं आता कि-"एक तरफ हम कहते हैं कि-"भगवान् हमारे दिलो में ही हैं नाकि किस अन्य स्थान पर।" तो फिर क्यों इन मंदिरों में भगवान् को ढूंढते फिरते हैं?? क्यों हम भगवान् को घर में, मन में ही याद करने की बजाय मंदिर जाना ज्यादा पसंद करते हैं??"

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एक बात तो तय हैं कि-"हम चाहे जितना मर्ज़ी ऐतराज करले, चाहे जितना भी विरोध करले, ये लोग कभी नहीं सुधरेंगे। हम सब चाहे जितना भी, जैसा भी करले, ये लोग अपने खुले मुंह (ताकि धन-चढ़ावा, दान-दक्षिणा, आदि आये) को बंद नहीं करेंगे। इनसे किसी भी तरह की उम्मीद लगाना व्यर्थ हैं। चाहे ये लोग या मंदिर जितना मर्ज़ी कमाले, इनकी भूख नहीं मिटेगी। देश के बड़े लोग, बड़े लेखक-साहित्यकार, बड़े नेता-अभिनेता, देश के कर्णधार-राजनेता, आदि बड़े-बड़े, प्रभावशाली लोग इस मुद्दे पर कुछ नहीं बोलेंगे। इन लोगो की चुप्पी ऐसी होगी, मानो ये जन्मजात गूंगे हो। इसके लिए हमें ही कुछ करना होगा, कुछ नहीं बहुत कुछ। वैसे तो यह सब देना-ना देना, जाना-ना जाना, अपनी-अपनी आस्था का मामला हैं, लेकिन मेरे विचारों से भगवान् को कही कुछ देकर या जाकर पूजने की बजाय मन में या अपने-अपने घरो में ही पूज लेना ज्यादा उचित हैं। ना तो धन लगेगा, ना किसी पण्डे-पुजारी को कोई दान-दक्षिणा देना पड़ेगी, और ना ही किसी को किसी मंदिर में कोई चढ़ावा-दान आदि करना पडेगा। बस, घर में ही सच्चे मन से भगवान् को याद कीजिये, भगवान् खुद चल कर आपके पास आयेगा। आपको कही जाना नहीं पडेगा और ना ही कही कुछ खर्चना पडेगा। और शायद यही इन लोगो (पण्डे-पुजारी, साधू-संत-महात्मा, मंदिर-देवालय संस्थान, आदि) के लिए एक करारा तमाचा होगा।"

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धन्यवाद।

FROM =

CHANDER KUMAR SONI,

L-5, MODEL TOWN, N.H.-15,

SRI GANGANAGAR-335001,

RAJASTHAN, INDIA.

CHANDERKSONI@YAHOO.COM

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Friday, January 22, 2010

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क्यों लौटे स्वदेश???
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पिछले कई दिनों से भारत छोड़ कर विदेश नौकरी करने गए या विदेश में ही बस चुके (सैटल हो चुके) लोगो से स्वदेश लौटने की अपील की जा रही हैं। कभी विदेश मंत्रालय तो कभी वित्त मंत्रालय देशहित में स्वदेश लौट आने की अपील कर रहा हैं। कभी यह अपील प्रधानमन्त्री की तरफ से की जा रही हैं, तो कभी राष्ट्रपति की ओर से। प्रधानमन्त्री जी पिछले महीने पहले अमेरिका गए हुए थे, वहाँ हुए "प्रवासी भारतीय सम्मलेन" में उन्होंने यह अपील वहाँ मौजूद भारतवंशियों से की। इसी तरह की अपील भारत के उप-राष्ट्रपति ने भी दक्षिण अफ्रीका और उसके आसपास स्थित देशो में नौकरी कर रहे या बस चुके लोगो से की।
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कुछ सवाल जिनके जवाब मुझे भारत सरकार से चाहिए =
क्यों की जा रही हैं उनसे ऐसी अपील??,
क्यों उन्हें अपनी जमी-जमाई नौकरी छोड़कर भारत लौट आने की प्रेरणा दी जा रही हैं??,
ऐसा क्या मिल जाएगा उन्हें भारत आकर??,
क्या करेगी सरकार उन्हें भारत वापस लाकर??,
देश में नौकरी मांग रहे लोगो को तो नौकरी दे नहीं सकते, उन्हें क्या "मूंगफली" देना चाहते हैं??,
ऐशोआराम की जिंदगी जी रहे लोग क्यों आयेंगे भारत??,
यह देखने आये कि-"यहाँ आधी आबादी (47% से ज्यादा) रोजाना एक डॉलर (पचास रूपये) से भी कम कमाती हैं??"
यह देखने कि-"18-25% लोगो को "एक समय का भोजन" ही नसीब होता हैं??"
या यह देखने कि-"लोग नशा करके सडको पर "लावारिश" पड़े रहते हैं??"
यह देखने आये कि-"यहाँ सड़को की हालत "बेहतरीन" हैं??"
यह देखे कि-"यहाँ रेल लाईने बेहद "सुरक्षित" हैं??"
वहाँ पांच दिन ही काम करना होता हैं, वो भी बिना ओवर टाइम के। यहाँ ओवर टाइम के साथ सारे हफ्ते काम करे??
वहाँ सुरक्षित, अपराधमुक्त और खुले समाज को छोड़ कर यहाँ बेहद असुरक्षित, अपराध-भरा और संकीर्ण विचारों वाले देश में आये??
जितनी कमाई वहाँ एक महीने में हो, यहाँ एक साल में आकर कमाए??
या फिर इसलिए कि-"यहाँ का पानी "अमृत-तुल्य" हैं??"
यह देखने कि-"बिजली की आपूर्ति "निर्बाध" रूप से होती हैं??"
यह देखने कि-"बिजली की दरे "न्यूनतम" हैं??"
यह देखने कि-"बिजली "चौबीसों घंटे" उपलब्ध होती हैं??"
यह देखने कि-"राशन की दुकानों पर "लाईने" ही नहीं लगती??"
यह देखने कि-"रसोई गैस सिलेंडर "घर" ही आ जाता हैं??"
यह देखने कि-"समय पर सिलेंडर की "आपूर्ति" मिल जाती हैं??"
यह देखने कि-"यहाँ का प्रशासन "चुस्त-स्फूर्त" हैं??"
यह देखने कि-"यहाँ के सरकारी विभागों में "आमजन की सुनवाई" हैं??"
यह देखने कि-"सरकारी कामकाज "बिना किसी कागजी औपचारिकता" के साथ होता हैं??"
या यह देखने कि-"सरकारी बाबू-अफसर "ईमानदार" हैं??"
यह देखने कि-"रिश्वतखोरी "गंभीर अपराध" हैं और रिश्वतखोरी का तो "नामोनिशान" ही नहीं हैं??"
यह देखने कि-"अदालते "जल्द-से-जल्द" फैसला सुनाती हैं??"
यह देखने कि-"अदालते "तारीख-पर-तारीख" नही देती हैं??"
यह देखने कि-"यहाँ की अदालतों में मुकद्दमे "लम्बे नहीं" खींचे जाते हैं व प्रकरणों का निपटारा "तुरंत" होता हैं??"
यह देखने कि-"मोबाइल सेवायें "आला दर्जे" की हैं??"
यह देखने कि-"फ़ोन मिलाते ही "मिल जाता हैं" और बात "बीचमे कटने" का तो सवाल ही नहीं??"
यह देखने कि-"बाढ़-भूकंप, आदि प्राकृतिक आपदा में सरकार तुरंत "जागती" हैं??"
यह देखने कि-"बाढ़-भूकंप, आदि में किसी की "जान नहीं जाती", कोई "हताहत" नहीं होता??"
यह देखने कि-"यहाँ कही भी "भ्रष्टाचार" नहीं हैं??"
यह देखने कि-"यहाँ "लाल-फीताशाही" नहीं हैं??"
या यह देखने कि-"यहाँ उधोगो की स्थापना करना "बेहद आसान" हैं??"
यह देखने कि-"उधोगो की स्थापना करवाने में सरकारी अफसरों-बाबुओं की "विशेष रुचि" रहती हैं??"
यह देखने कि-"बिना रिश्वत दिए, बिना घूस खिलाये, लाल-फीताशाही से दूर रहते हुए, उधोगो की स्थापना करना "बेहद सरल" हैं??"
यह देखने कि-"पुलिस बिना आना-कानी किये "फ़ौरन केस दर्ज" कर लेती हैं??"
यह देखने कि-"पुलिस अदालती फरमान का पालन "त्वरित गति" से करती हैं??"
यह देखने कि-"पुलिस मुजरिमों-अपराधियों की गिरफ्तारी "हाथो-हाथ" कर लेती हैं??"
या यह देखने कि-"क़ानून के हाथ "बहुत लम्बे" हैं??"
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उपरोक्त कारणों से बुला रहे हैं ना उन्हें स्वदेश???, नहीं??? अच्छा-अच्छा अब मैं समझा, आप उन्हें यह सब भी देखने के लिए बुला रहे हैं =
यह देखने कि-"बीपीएल लोगो को कार्ड "प्राथमिकता के साथ" प्रदान किया जाता हैं??"
यह देखने कि-"सरकारी हॉस्पिटल में "बेहतरीन" चिकित्सा सुविधा मिलती हैं??"
यह देखने कि-"इलाज़ में कोई लापरवाही-कोताही "नहीं बरती" जाती हैं??"
यह देखने कि-"लापरवाही होने कि दशा में मरीजों को "तत्काल राहत" दी जाती हैं??"
यह देखने कि-"बिना "कागजी औपचारिकता" के भर्ती भी कर लिया जाता हैं??"
यह देखने कि-"खांसी-जुकाम-सरदर्द, आदि की सामान्य दवाइयों में हर चौथी दवा "नकली-मिलावटी" हैं??"
यह देखने कि-"एड्स, कैंसर, आदि गंभीर बीमारियों की दवाइयों में हर छठी दवा "नकली-मिलावटी हैं??"
यह देखने कि-"यहाँ के नेता "सच्चे और वादों के पक्के" हैं??"
यह देखने कि-"यहाँ के नेता विकासदूत हैं??"
या यह देखने कि-"झूठ बोलना, बेईमानी करना, दल बदलना, आदि नेताओं के "ईश्वर-प्रदत्त वरदान" हैं??"
या यह देखने कि-"यहाँ के नेताओं के सफ़ेद-चमकते हुए-और झकाझक कपड़ो के पीछे उनकी काली करतूते और उनकी रंगीन-आशिक मिजाजी छूपी होती हैं??"
यह देखने कि-"यहाँ की पढ़ाई-लिखाई "उम्दा-किस्म" की हैं??"
यह देखने कि-"परीक्षा परिणाम "उल्लेखनीय" होते हैं??"
यह देखने कि-"यहाँ अध्यापको कि ही नहीं वरन विद्यार्थियों कि भी "शत-प्रतिशत" हाजिरी होती हैं??"

यह देखने कि-"यहाँ नक़ल तो हो ही नहीं सकती, "असंभव" हैं नक़ल करना??"
यह देखने कि-"नकलचियों को "कड़ी-सख्त सज़ा" दी जाती हैं??"
यह देखने कि-"यातायात "बेहद सुरक्षित और व्यवस्थित" हैं, सड़क हादसे तो "नाममात्र" ही होते हैं??"

यह देखने कि-"सड़क हादसों में तो मौत होने का सवाल ही नहीं उठता??"
यह देखने कि-"यहाँ यातायात नियमो की पालना "कठोरता से" की जाती हैं??"
यह देखने कि-"यहाँ हर व्यक्ति सीट बेल्ट और हेलमेट का प्रयोग "अनिवार्य रूप से" करता हैं??"
यह देखने कि-"ड्राइविंग लाइसेंस "कड़ी परीक्षा" देने के बाद ही मिलता हैं??"
यह देखने कि-"यहाँ सड़के "हेमामालिनी के गालो" कि तरह चमकती हैं??"
यह देखने कि-"यहाँ के लोग साफ़-सफाई "पसंद" हैं??"
यह देखने कि-"कूड़ा गिराने-कचरा फैलाने वाले को "भारी अर्थ-दंड" भुगतना पड़ता हैं??"
यह देखने कि-"सफाई कर्मचारी "वक़्त का पाबन्द" हैं??"
यह देखने कि-"नाले-नालियों-सीवरेज की "नियमित रूप से" पूरी सफाई की जाती हैं??"
या यह देखने कि-"लोग "समय पर और पूरा" टैक्स भरते हैं??"
यह देखने कि-"भारत में "सबसे कम" कर की चोरी होती हैं??"
यह देखने कि-"लोगो में प्रेम-प्यार-मोहब्बत कूट-कूट कर भरी हैं??"

यह देखने कि-"हिन्दू-मुसलमान "परस्पर प्रेमभाव से सगे भाई" की तरह रहते हैं??"
यह देखने कि-"हिन्दुओ-मुसलमानों में दंगा-फसाद होना "अत्यंत दुर्लभ" ही हैं??"
यह देखने कि-"मंदिरों के बाहर (दीवारों पर या खम्भों पर) हरा रंग लगाने और मस्जिदों के बाहर केसरिया रंग पोतने से "कुछ भी नहीं" होता हैं??"
या यह देखने कि-"मुसलमान गायो की और हिन्दू सुअरो की "पूरी इज्ज़त" करते हैं??"
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अगर इन्ही उपरोक्त कारणों से उन्हें विदेश छोड़कर स्वदेश लौट आने को कहा जा रहा हैं, तो फिर तो वे आ लिए......... फिर तो वे जरूर ही आ लेंगे......... किसलिए आये स्वदेश??, क्या हैं भारत में??, उन्हें निमंत्रण देने मात्र से क्या वे स्वदेश आ जायेंगे?? कोई शादी का निमंत्रण थोड़ी ना हैं, जो दौड़े चले आये कि-"चलिए, हिन्दुस्तान में खातिरदारी की जायेगी।" कोई ठोस कारण भी तो होना चाहिए, तभी तो हम उन्हें भारत वापस बुलाने का कारण बता पायेंगे। माना कि-"जिन हालातो में वे भारत छोड़कर गए थे, अब वो हालात भारत के नहीं हैं।" लेकिन, फिर भी अभी भारत इतना आकर्षण भी पैदा नहीं कर सका हैं जो वे भारत की तरफ रुख करे। आई.टी. उधोग, कम्प्यूटर उधोग, सूचना-दूरसंचार उधोग, स्टील-लोहा-इस्पात उधोग, आदि कुछ ही उधोग हैं, जिनकी प्रगति तेज़ मानी जा सकती हैं, और जो भारत वंशियों को पुन: लौट आने की प्रेरणा दे सकते हैं।
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लेकिन, सोचने वाली बात यह हैं कि-"क्या इन गिने-चुने, चुनिन्दा उधोगो के सहारे भारत को आकर्षित देश माना जा सकता हैं??? ऊंगली पर गिनने लायक इन उपक्रमों, उधोगो से क्या भारत छोड़ कर जा चुके लोग वापस आ सकते हैं????" अगर सच में ही, उन्हें पुन: स्वदेश में ही देखना, उन्हें देश के लिए कुछ करते देखना, चाहते हैं-"तो कुछ सार्थक करना होगा। हमें (सरकार, निजी कम्पनियां और आमजन) आंकड़ो के मकड़जाल से बाहर निकलना होगा, कुछ ऐसा करना होगा, जो हमारे साथ-साथ उन्हें (नौकरी करने या बसने के लिए विदेश जा चुके और विदेश में मौजूद भारत-वंशियों को) भी दिखे। हमें तो आप (सरकार) जो दिखाएँगे, हम आँख मूँद कर मान लेंगे, लेकिन फायदा तभी हैं, जब विदेश में नौकरी कर रहे या बस चुके भारत-वंशियों को भी कुछ दिखे। उन्हें कुछ नज़र आयेगा तभी तो वे भारत आने की सोचेंगे, और हमारा मकसद हल हो सकेगा।"
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धन्यवाद।
FROM =
CHANDER KUMAR SONI,
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Saturday, January 16, 2010

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कुछ सीखो अपने दुश्मन चीन से।
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हाल ही में एक फैसले के अनुसार चीन में सार्वजनिक स्थानों पर थूकने की बुरी आदत वालो सरकारी मकान छोडना पड़ सकता हैं। चीन के समृद्ध माने जाने वाले शहर गुआन्ग्झाओ के भूमि एवं आवास प्रबंधन विभाग की नई योजना के मुताबिक़ सार्वजनिक स्थानों पर जहां-तहां थूकने वाले, कूड़ा-करकट फैलाने वाले, ज्यादा शोर-शराबा, हल्ला मचाने वाले, और जुआ खेलने वाले लोगो को सरकारी मकान की सुविधा छोड़ने का दंड भुगतना पडेगा। अगले हफ्ते तक यह योजना लागू कर दी जाएगी।
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क्या भारत के पास लागू करने के लिए ऐसी कोई योजना हैं???? हम हर राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मंच से, हर बार यही राग अलापते रहते हैं कि-"2020 तक भारत विकासशील देश से विकसित देश में तब्दील हो जाएगा। हम तब चीन के समकक्ष होंगे।" और इस दावे को सच दिखाने के लिए यह तर्क दिया जाता हैं कि-"2020 तक भारत की आधी आबादी युवा (45 साल से कम उम्र की होगी) और चीन बुढ़ा देश ही रह जाएगा क्योंकि चीन की आबादी बढ़नी अब धीमी हो गयी हैं और तब ज्यादातर जनसंख्या बूढी ही होगी। जबकि भारत की आबादी युवा और ऊर्जावान होगी।"
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लेकिन मैं भारत के इस दावे को सिरे से खारिज करता हूँ। अगर के भारत के तर्क को मान भी लिया जाए, क़ुबूल भी कर लिया जाए, तो भी बहुत से सवाल अनुत्तरित ही रह जाते हैं। जिनके जवाब मेरे हिसाब से भारत सरकार के पास हैं ही नहीं और अगर हैं तो जनता को देना नहीं चाहेगी, वोट बैंक का मसला जो ठहरा। कुछ जवाब मांगते सवाल, जो मैं आम जनता की ओर से सरकार से पूछना चाहूँगा =
01. जनसंख्या चीन की बढ़नी रुकेगी या हमारी????
02. जैसे-जैसे भारत के लोगो के पास काम आ रहा हैं, पैसा आ रहा हैं, जागरूकता आ रही हैं, ऐसे मैं कैसे माना जा सकता हैं कि"लोग पहले की तरह ही बच्चे करेंगे??
03. बढती महंगाई, बढ़ते खर्चो को देखकर आम आदमी खुद की जरूरतें पूरी नहीं कर पा रहा हैं, क्या आप कहेंगे उनसे-"घबराइये नहीं खर्चे हम उठाएंगे, आप बस बच्चे जनिये, आखिर चीन को जो पछाड़ना हैं।"
04. लोगबाग़ अब जागरूक हो गए हैं, उन्हें अहसास हो गया हैं कि-"बच्चे पालना अब बहुत खर्चीला काम हो गया हैं।"

05. ग्रामीण क्षेत्रो में भी अब तेजी से जागरूकता आ रही हैं, शहरी क्षेत्रो में तो अधिकाँश लोग अब दो नहीं बल्कि "हम दो हमारा एक" की नीति अपना चुके हैं।
06. ज्यादा बच्चे होने से क्या उनके लालन-पालन पर खर्चा नहीं होगा, बच्चे जब बड़े हो जायेंगे तब क्या उनकी पढ़ाई-लिखाई, ट्युशन-किताबो, और खाने-पीने पर खर्चा नहीं आयेगा???
07. अगर सरकार इन बच्चो और युवाओं का खर्चा खुद वहन करेंगी (हालांकि ऐसा हो नहीं सकता), तब क्या राजकोष-खजाने पर बोझ नहीं पडेगा??
08. तब (2020 में) आम लोगो के खाने-पीने के लिए इतना अनाज उत्पादन कहाँ से कर पाएगी भारत सरकार???
09. क्या भारत सरकार ने इतनी नौकरियों की प्लानिंग कर रखी हैं, कि-"भविष्य में उनकी बेरोजगारी को दूर किया जा सके??
10. अगर नहीं, तो बेरोजगारी से पैदा होने वाले सामाजिक-आर्थिक अपराधो से सरकार कैसे निपटेंगी??
जनसंख्या के हिसाब से भारत विश्व में दुसरे नंबर पर हैं और क्षेत्रफल के लिहाज़ से सातवे स्थान पर।

11. अभी यह स्थिति हैं, तो क्या आगे की कल्पना क्या भारत सरकार ने नहीं की हैं????
12. आज भारत में इतनी भूखमरी, अकाल, महंगाई, गरीबी, बेरोजगारी, आदि हैं। 2020 में, जब जनसंख्या आज के मुकाबले काफी अधिक होगी, तब क्या होगा इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता हैं???
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हालांकि चीन के साथ हमारा एक बार भीषण युद्ध भी हो चुका हैं। चीन ने हमारे एक विशाल भू-भाग पर कब्ज़ा भी ज़माया हुआ हैं। चीन भारत के दुश्मनों का मित्र हैं, चीन भारत की तरक्की, भारत के अमन-चैन का दुश्मन हैं। चीन भरोसे लायक नहीं हैं, चीन भारत को तोड़ना चाहता हैं, चीन की कुदृष्टि भारत के दूर-दराज़ के राज्यों पर कब्ज़ा करने की हैं।
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लेकिन फिर भी में एक बात कहना चाहूँगा-"चीन हमारा दुश्मन भले ही हो, लेकिन दुश्मन को पराजित करने के लिए यह आवश्यक हैं कि-"हम उसकी ताकत को अपनी ताकत बनाए, उसकी अच्छी आदतों को अपनाए। तभी हम उसका मुकाबला कर सकेंगे।" अपनी बुराइयों को त्यागने और दूसरो की अच्छाइयो को अपनाने में कैसी शर्म??? दुनिया के अन्य विकसित देशो के समकक्ष आने के लिए हमारा स्वयं का विकसित होना अतिआवश्यक हैं। अगर चीन विकसित देशो की कतार में शामिल होने के लिए एक कदम उठाता हैं, तो हमें दो कदम उठाने चाहिए। भारत को यह नहीं भूलना चाहिए कि-"अब तक जो लड़ाई हमने लड़ी हैं, वो सिर्फ ट्रेलर ही था। असली लड़ाई तो अब शुरू होनी हैं, जिसमे जीत के लिए हमें कई अन्य देशो की जरूरत पड़ेगी। अब तक की लड़ाई दो-तीन देशो के सामने ही थी, अब लड़ाई विश्व समुदाय के समक्ष लड़ी जानी हैं। इसलिए हमें स्वयं का विकसित होना जरुरी हैं। चाहे भले ही हमें इसके लिए अपने दुश्मन की अच्छाइयों को ही क्यों ना अपनाना पड़े??

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मेरी भारत सरकार से एक ही गुजारिश हैं कि-"चीन से हमारी लड़ाई युवा-ऊर्जावान जनसंख्या जैसे झूठे-भ्रामक आंकड़ो के दलदल में फंस कर लड़ने की बजाय, सार्थक आंकड़ो (शिक्षा, रोजगार, टैलेंट, सामर्थ्य, भरपेट व पौषटिक भोजन, न्यूनतम अपराध दर, कम से कम महंगाई दर, न्यूनतम गरीबी, बढ़ी हुई सकल घरेलु/प्रति व्यक्ति आय, भ्रष्टाचार मुक्त शासन-प्रशासन, कड़ी-सख्त व तीव्र रफ़्तार क़ानून-न्यायिक प्रणाली, आदि) के सहारे लड़ी जाए।"

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और सबसे बड़ी बात-"चीन के चक्कर में उलझने की बजाय, सारा ध्यान अपनी तरफ, अपने लोगो के विकास और समस्या-समाधान की तरफ लगाइए। ताकि हम विकसित देशो की कतार में 2020 तक शामिल ही नहीं बल्कि सबसे अग्रिम पंक्ति में खड़े हो। और........और........चीन हमसे कोसो दूर हो।"

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धन्यवाद।

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CHANDER KUMAR SONI,

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Sunday, January 10, 2010

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भला हो इस हाड़-कम्कपाती भीषण सर्दी का।
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अरे-अरे हैरान मत होइए, मैं किसी को सर्दी से मरने की बददुआ नहीं दे रहा हूँ। मैं तो सर्दी की भलाई की कामना एक विशेष कारण से कर रहा हूँ। मुझे भी सर्दी लगती हैं, मैं भी आखिर एक इंसान ही हूँ, मुझे भी ठण्ड का भली-भाँती एहसास हैं। मैं एक संवेदनशील व्यक्ति हूँ, मुझसे लोगो को सर्दी से झूझते-कांपते नहीं देखा जाता हैं। मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि-"लोगो की रोग प्रतिरोधक क्षमता को मज़बूत बनाए रखना, लोगो को ठण्ड-सर्दी से बचाए रखना। लोगो को, बच्चो को, बूढों को, और विशेषकर मरीजो को खांसी, जुकाम, गला खराब, आदि सर्दीजनित तकलीफों से दूर रखना।"
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लेकिन फिर भी मैं एक स्पेशल कारण से हाड़ कम्कपा देने वाली इस भीषण सर्दी की भलाई की कामना ही कर रहा हूँ। जी हाँ, और वो विशेष कारण हैं="सर्दी ने लोगो के बीच जाने-अनजाने प्रेमभाव को बढ़ा दिया हैं।" जैसा की आप सब जानते ही हैं कि-"सर्दी से बचाव के लिए लोग अलाव तापते हैं। अमीर हो या गरीब हर किसी के लिए चौबिसो घंटे हीटर चलाना किफायती/संभव नहीं हैं, इसलिए हर कोई अलाव तापना-आग जलाकर हाथ सेंकना पसंद करता हैं।"
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बस यही कारण हैं जिसकी वजह से मैं कह रहा हूँ-"भला हो इस हाड़-कम्कपाती भीषण सर्दी का।" इस अलाव तापने ने तो अनायास ही लोगो के बीच प्रेम पैदा कर दिया हैं। इस अलाव ने तो वो काम कर दिखाया हैं, जो बड़े-बड़े धुरंधर नहीं कर पाए। अपने हैं या पराय, दोस्त हैं या दुश्मन, लाभ देने वाला हैं या हानि, ऊँचे ओहदे-जाति का हैं या नीची, आदि सारे भेद भुला दिए हैं इस अलाव तापने ने। अलाव ताप कर सर्दी भगाने के साथ-साथ लोगो के बीच मौजूद मनभेद, मतभेद, गुस्सा-नाराजगी, और अलगाव को भी भगाया जा सकता हैं।
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अगर मेरी उपरोक्त बात पर यकीन ना हो तो ज़रा अपने आस-पास नज़र उठा कर देखिये। मैं कुछ उदाहरण देना चाहूँगा =
01. बाज़ार के दो पडोसी दुकानदारों के बीच (सामान के कारण दूकान छिपने की बात को लेकर) काफी समय से खटपट चल रही थी। कल जब मैं किसी कार्य से बाज़ार गया हुआ था, तो यह देखकर हैरानी हुई कि-"दोनों दुकानदार हाथ सेंक रहे थे।" एक दूकान वाले ने अपनी दूकान के आगे कचरे का ढेर लगाकर अलाव जला रखा था।
02. हमारी फैक्ट्री के किन्ही दो श्रमिको में किसी बात को लेकर बोलचाल हो गयी। नौबत हाथापाई तक भी पहुँच जाती अगर अन्य लेबर बीच में ना पड़ती तो। घंटे-दो घंटे बाद दृश्य ही बदल चुका था, अब दोनों लेबर साथ-साथ बायलर के समक्ष खड़े थे।
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वाकये और भी बहुत हैं, पर उपरोक्त दो उदाहरण मेरी आँखों-देखी वाकये हैं। अगर आप नज़रे घुमाकर देखेंगे, तो आप को भी ऐसे या इससे मिलते-जुलते काफी वाकये मिल सकते हैं। हो सकता हैं आपको मेरी बातें झूठी या गप्प लगे, पर हैं इसमें सच्चाई। याद कीजिये, हो सकता हैं कि-"आपने भी कभी चलते-फिरते किसी को अलाव तापने का निमंत्रण दिया हो, जिसे आप पसंद ना करते हो।" या फिर-"आपको किसी ऐसे व्यक्ति ने अलाव तापने-हाथ सेंकने का निमंत्रण दिया हो, जो आपसे नफरत करता हो।" हो सकता हैं कि-"आपका जवाब ना में हो या आपको ऐसे कोई वाकये याद ना आये।" परन्तु मेरे साथ तो ऐसा बहुत दफा हो चुका हैं और हो रहा हैं, और विश्वास हैं कि भविष्य में भी ऐसा होता रहेगा।
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वैसे आपके साथ ना सही, कही आते-जाते आपके कानो में यह शब्द तो अवश्य पड़े होंगे कि-"यार, कहाँ ठण्ड में फिर रहा हैं, आजा थोड़ा गरम हो ले।" या फिर सरदारों-पंजाबियों में यह तो जरूर ही सुना होगा कि-"छड यार, सारी गल्लां छड, बस नाल आके हाथ सेंकले।" और अगर ऐसा कुछ नहीं सुना हैं-"तो जनाब, कान खुले रखकर घर से बाहर तो निकलिए। अलाव ने कैसे-कैसे चमत्कार किये हैं और क्या कर रही हैं??, इसके लाईव (चश्मदीद) गवाह बनिए।"
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अलाव तापने ने तो वाकई अनोखा काम कर दिखाया हैं। अपने-पराये, छोटे-बड़े, दोस्त-दुश्मन, लाभ देने वाला-हानि देंने वाला, ऊँचे ओहदे-जाति वाले और नीची ओहदे-जाति वालो, आदि सारे भेद-बंधन भुला दिए हैं इस अलाव तापने ने। मुझे तो विश्वास नहीं होता कि-"अलाव ताप कर सर्दी भगाने के साथ-साथ लोगो के बीच मौजूद मनभेद, मतभेद, गुस्सा-नाराजगी, और अलगाव को भी भगाया जा सकता हैं।"
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अब तो आप सब समझ गए होंगे कि-"आप सब तो ठण्ड के खत्म हो जाने की प्रार्थना में लगे हुए हो और क्यों मैं सर्दी के प्रकोप के जारी रहने कि प्रार्थनाएं कर रहा हूँ???"हालांकि, कुछ लोग कह सकते हैं कि-"अलाव तापने से कोई गुस्सा-नाराजगी खत्म नहीं होती हैं??, अलाव तापना समय गुजारने का माध्यम मात्र हैं।" लेकिन उनकी इस बात का मेरे पास एक ही जवाब हैं कि-"अगर किन्ही दो (या ज्यादा) जनों में ना बनती हो तो साथ अलाव तापने की बजाय अलग अलाव नहीं क्यों नहीं ताप लेते??" और सबसे बड़ी बात-"साथ अलाव तापने से दोनों (या ज्यादा) विरोधियों के हाथ एक ही दिशा में होते हैं" और मेरा मानना हैं कि-"आज हाथ एक दिशा में हैं, कल विचार-सोच, और समझौता भी एक ही दिशा में होगा।"
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कई स्थानों पर तो अनजान आदमियों क़ा ग्रुप भी अलाव तापता मिल जाता हैं, जो एक दुसरे को जानते तक नहीं। बस कही आग जलती मिली नहीं कि-"एक-एक करके कई लोग इकट्ठे होकर अलाव तापने-हाथ सेंकने लगते हैं।" ऐसे दृश्य दिली सुकून प्रदान करते हैं। क्या ऐसे मनोरम दृश्य देखकर कोई कह सकता हैं कि-"अलाव तापना प्रेम भाव नहीं बढाता हैं या नफरत-घृणा-या बैर भाव कम नहीं करता हैं।" इसीलिए मैं कह रहा हूँ कि-"भला हो इस हाड़-कम्कपाती भीषण सर्दी का।" क्यों कुछ समझे कि नहीं?????, समझ गए तो कहिये मेरे साथ-"भला हो इस हाड़-कम्कपाती भीषण सर्दी क़ा जो लोगो के बीच अनायास ही प्रेमभाव पैदा कर रही हैं।"
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धन्यवाद।
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Tuesday, January 05, 2010

:: हॉकरो को सच में "रीढ़ की हड्डी" मानिए ::



अभी कुछ दिनों पहले श्री गंगानगर के सभी हॉकर्स की मीटिंग हुई। यह मीटिंग शहर के सभी हॉकरो के संगठन "हॉकर यूनियन" के बैनर तले हुई थी। इस मीटिंग में करीब-करीब सारे हॉकर और सभी छोटे-बडे अखबारों के सम्पादक-मालिक शामिल हुए। इस मीटिंग में इस संगठन के वर्तमान अध्यक्ष को लगातार पांचवी बार अध्यक्ष चुना गया।



इस मीटिंग में हॉकरो की खूब बड़ाई की गयी, उनकी तारीफों के पुल बांधे गए, उन्हें (हॉकरो को) सभी अखबार वालो (सम्पादक-मालिक) ने अखबार-समाचार पत्र के लिए रीढ़ की हड्डी तक कहा। सभी के सभी हॉकरो की तारीफ़ पर तारीफ किये जा रहे थे, सभी हॉकरो के सम्मान में बढ़ा-चढ़ा कर बखान दे रहे थे। कोई कुछ तो कोई कुछ कह रहा था, हर किसी के आकर्षण का केंद्र एकमात्र हॉकर ही थे। इसी तरह कुछेक घंटो में यह मीटिंग ख़त्म हो गयी और सभी के सभी अपने-अपने ठिकानों पर चले गए।



लेकिन मैंने यह ब्लॉग ऐसे ही या टाईमपास के लिए नहीं लिखा हैं। मैं इस ब्लॉग के माध्यम से हॉकरो की आवाज़ बुलंद करना चाहता हूँ और मुझे विश्वास हैं कि-"जो भी यह ब्लॉग पढेगा वो हॉकरो के बारे में अवश्य सोचेगा।" मेरा मकसद किसी की बुराई करना या किसी की तरफ ऊंगली उठाना नहीं हैं। मैं सिर्फ और सिर्फ सकारात्मकता के लिए ही लिखता था, लिखता हूँ, और आगे भी लिखता रहूंगा। इस बार भी मैं हॉकरो के मान-सम्मान को बचाए रखने और उनके शोषण को रोकने के लिए ही लिख रहा हूँ।



अभी कुछ दिनों पहले हुई मीटिंग में हॉकरो को अखबार-समाचार पत्र के लिए रीढ़ की हड्डी तक कहा गया। लेकिन, क्या किसी ने उनकी दुर्दशा की तरफ देखा हैं?, हॉकर किस तरह और किन परिस्थितियों में कार्य करता हैं, इस तरफ किसी ने नज़र भी डाली?? उन्हें (हॉकरो को) रीढ़ की हड्डी बताने मात्र से कुछ नहीं होगा, उन्हें रीढ़ की हड्डी मानना ही होगा। जिस तरह हम सब अपनी-अपनी कमर/रीढ़ की हड्डी का विशेष ख्याल रखते हैं, उसी तरह इनका भी विशेष ख्याल रखना होगा। जिस तरह हम यह जानते हैं कि-"रीढ़ की हड्डी में गड़बड़ होने से हम अपंग-लाचार हो जाते हैं।" उसी तरह अखबार वाले भी इस बात को अच्छी तरह से समझते हैं, परन्तु ना जाने क्यों वे इनकी (हॉकरो की) भूमिका को नज़र-अंदाज करते हैं??



मैं समस्त समाचार-पत्रों के संपादको/मालिको का ध्यान हॉकरो को मिलने वाले कम कमीशन की ओर दिलाना चाहता हूँ। पाठको क्या आपने कभी सोचा हैं कि-"हॉकर भाई कितने मामूली कमीशन पर काम करते हैं??, सर्दी-गर्मी उन्हें हर रोज़ सुबह पांच बजे उठना पड़ता हैं। उन्हें किसी भी दिन-किसी भी मौके पर, किसी भी बिमारी या दुःख-दर्द में भी छुट्टी नहीं मिलती हैं। क्योंकि सिर्फ वे ही जानते हैं कि-"किस-किस घर/दूकान में अखबार बांटना हैं??" जिस दिन वे (हॉकर) नहीं आ पाते उस दिन पाठको को अखबार नहीं मिल पाता। समाचार पत्र वाले (कुछेक को छोड़कर) भी कोई अन्य व्यक्ति नहीं भेज पाते, क्योंकि अन्य व्यक्ति कुछेक घरो/दुकानों को जानता हैं, बाकियों को नहीं।



मुझे यह कहने में ज़रा भी शर्म-संकोच या डर नहीं है कि-"कुछेक समाचार-पत्र वालो को छोड़कर अमूमन हरेक अखबार वाला हॉकर को तंग-परेशान, और शोषण भी करता हैं।" ज्यादातर हॉकर अपने पेट या कहिये नौकरी की खातिर शोषण-जुल्म को सहता रहता हैं। यदा-कदा अति होने पर भले ही वह अखबार छोड़ दे पर दुसरे अखबार वाले के यहाँ ऐसा नहीं होगा, इसकी कोई गारंटी नहीं। बाकी सच्चाई तो यही हैं कि-"शोषण पर बगावत करने या शिकायत करने वाले दुर्लभ ही होते हैं।"



मैं सभी समाचारपत्रों और अखबारों के संपादको-मालिको से पूछना चाहता हूँ कि-"उन्होंने हॉकरो के कल्याण-उत्थान के लिए क्या किया हैं??, हॉकरो के लिए क्या उन्होंने कोई नीतियाँ बनाई हैं?" मीटिंगों में, बैठकों में तो बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, लेकिन हॉकरो के लिए करते कुछ नहीं। अपने ऊपर हों रहे जुल्म-अत्याचार-और शोषण से आजिज आकर जब कोई हॉकर विद्रोह कर बैठता हैं, तो आप उसे निकालते वक़्त ही नहीं लगाते। फट से दुसरे हॉकर का इंतज़ाम आप कर लेते हैं। लेकिन आप इतना भी नहीं सोचते कि-"उसकी मांग, उसकी इच्छा जायज़ भी हैं या नहीं????" बस किसी हॉकर ने मुंह खोला नहीं कि............



मेरी इस बात पर कुछ अखबार वाले आपत्ति उठा सकते हैं। वे कह सकते हैं कि-"अखबार तो हॉकर सिर्फ दो या तीन घंटे ही बाँटते हैं, इसके लिए उन्हें क्या दे और कितना दे???" लेकिन सम्पादक/मालिक महोदय मैं जो कह रहा हूँ वो आप अभी भी नहीं समझे हैं। आप यह क्यों नहीं देखते-सोचते कि-"उनके दो-तीन घंटे आपके पूरे दिन से भी ज्यादा हैं, आप पूरे दिन अखबार के लिए खबरे ढूंढते हैं, फिर खबरों की एडिटिंग (काँट-छांट) करते हैं, उसके बाद आपका अखबार छपता हैं। माना कि-"सारा काम, सारी मेहनत आप खुद करते हैं, लेकिन किसके लिए?? पाठको के लिए ना??? और जब पाठको तक ही अखबार नहीं पहुँच पायेगा तो आपकी मेहनत व्यर्थ नहीं चली जायेगी??" इसीलिए मैं कह रहा हूँ कि-"आप लोगो के पूरे दिन के बराबर की मेहनत हॉकर के 2-3 घंटे की मेहनत हैं। आपकी मेहनत को सफल बनाने और आपकी मेहनत को व्यर्थ ना होने से बचाने वाला यह आपका "मामूली" हॉकर हैं।"


आप लोगो के लिए युआईटी ने काफी बड़ी पत्रकार कालोनी भी काटी हैं। लेकिन आप अकेले ही उस कालोनी के वर्तमान या भविष्य के निवासी हैं। कभी आपने इन हॉकरो के लिए सोचा हैं???, आप पूरी कालोनी ना सही कही छोटा-सा भूखंड या अपनी ही पत्रकार कालोनी की कुछ जगह इनके लिए अलोट करवा सकते थे। भले ही वह कालोनी सरकार ने सिर्फ पत्रकारों के लिए ही काटी हो, लेकिन अगर आप सरकार को हॉकरो की अहमियत और उनके योगदान के बारे में बताते तो क्या सरकार हॉकरो के लिए कुछ ना करती???? आपकी नीयत में शुरू से ही खोट था, तभी तो आपने अपने समाचारपत्रों के इन असली कर्णधारों-हीरो को जानबूझ कर नज़रअंदाज़ कर दिया।


आप सब (सम्पादक-मालिक) भलीभाँति जानते हैं, हीरा एक बहूमूल्य पत्थर हैं, सभी धातुओं से भी कीमती। लेकिन हीरे की खुद की कीमत बहुत मामूली होती हैं, उसकी कीमत उसकी तराशी से बढती हैं। हीरा उसे तराशने वालो की मेहरबानी-दया से ही अनमोल हों पाता हैं। ठीक हीरे की तरह आपके अखबार की कीमत भी हॉकर से ही बढती हैं। माना कि-"समाचारपत्र में आने वाली खबरें, उसकी भाषा, उसकी सच्चाई और ईमानदारी, और स्पष्टीकरण पर बहुत कुछ निर्भर करता हैं, पर इन सब चीजों को पाठको तक पहुंचाने वाला भी तो हॉकर ही हैं।"


आप हॉकर के योगदान और अहमियत को क्यों नहीं देखते हैं??????, आप उसकी काबिलियत को क्यों नहीं परखते हैं???, आप अपने अखबार को घर-घर पहुंचाने वाले को रीढ़ की हड्डी कहते हैं, पर कुछ करते क्यों नहीं??, क्या उन्हें (हॉकरो को) "रीढ़ की हड्डी" की उपमा देने मात्र से उनका उत्थान-कल्याण हो सकता हैं?? यह हॉकर ही असली कर्णधार हैं। अखबार और पाठको के बीच की मज़बूत कड़ी हैं हॉकर। कृपया इनके सम्बन्ध में कुछ कीजिये। ज़रा सोचिये, उनके बारे में विचार तो कीजिये।

हॉकरो पर होने वाले जुल्म-शोषण-अत्याचार की मुख्य वजह उनमे एकता ना होना और उनमे बिखराव होना हैं। पर महज किसी में बिखराव होने या एकता ना होने मात्र से कोई किसी का शोषण करता हैं, तो वह निन्दनिय हैं।

धन्यवाद।

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Friday, January 01, 2010

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नए साल की हार्दिक शुभकामनाएं।



आप सभी मेरे ब्लॉग-पाठको, मेरे यारो-मित्रो, मेरे सभी परिजनों-सम्बन्धियों, रिश्ते-नातेदारो, और शुभचिंतको को मेरी तरफ से नए साल की हार्दिक शुभकामनाएं। नववर्ष आप सभी के लिए ढेरो खुशियाँ, समृद्धियाँ, और सुख-शान्ति लाये। ऐसी मेरी ईश्वर से सद-प्रार्थना हैं।



पिछ्ला साल अपनी अच्छी-बुरी, खट्टी-मीठी यादों को लेकर बीत गया हैं। और आज नए साल, नई उमंग का आप-मैं, और हम सभी ने जोरदार ढंग से स्वागत किया हैं। और ज़ाहिर हैं, नए साल के स्वागत के साथ-साथ आपने कोई नया संकल्प भी जरूर लिया होगा। बीते पिछले साल की गलतियों-भूलो से सबक-शिक्षा लेते हुए आपने अवश्य ही कोई अच्छा-सर्वउपयोगी प्रण-संकल्प लिया होगा।



मैंने भी एक नहीं कई संकल्प लिए हैं। जी हाँ, इन कई संकल्पों में कुछ मेरे लिए, कुछ परिवार के लिए, तो कुछ दूसरो के लिए हैं। मैं आपको अपने एक भी संकल्प के बारे में अभी नहीं बताउंगा, अगले साल की शुरुआत में या जब भी यह संकल्प पूरे हो जायेंगे तब बताउंगा।



आज ही नए साल के पहले दिन, मैंने अपने एक दोस्त से वैसे ही उसके नए साल के संकल्प के बारे में पूछ लिया, तो उसका जवाब आया-"अरे कैसा संकल्प यार, किसका संकल्प लूं, कैसा संकल्प लूं, मैं तो पढ़ाई-लिखाई से ही फ्री नहीं हो पा रहा हूँ। आज सब लोगो ने नए साल का स्वागत जशन मना कर किया, और मैं एक हफ्ते बाद बेंगलुरु में होने वाले इंटरव्यु की तैयारियों में डूबा रहा। और तू संकल्प की बात कर रहा हैं..............."



दोस्तों, आप में से भी कई लोग या आपकी जानकारी में, ऐसे लोग हो सकते हैं, जिन्होंने कोई प्रण ना लिया हो या ज़िन्दगी की भाग-दौड़ में उन्हें प्रण लेने का विचार ही ना आया हो। होता हैं, दुनिया में सब कुछ होता हैं, एक दुनिया ऐसी भी हैं जिनके लिए प्रण-संकल्प किसी सब्जबाग़-धोखे से कम ना हो। लेकिन मैं आप सभी पाठको बता देना चाहता हूँ कि-"प्रण या संकल्प कोई पहाड़ जितनी बड़ी चीज़ नहीं हैं, यह कोई ऐसी चीज़ नहीं हैं जिसको लेने के लिए कोई पात्रता (उम्र-हैसियत-पढ़ाई-या कोई और क्वालिफिकेशन) आवश्यक हो। आप पिछले साल की भूलो को सुधारने या ना दोहराने का संकल्प ले सकते हैं। आप कुछ अपने लिए, कुछ परिवार के लिए, तो कुछ दूसरो के लिए, संकल्प ले सकते हैं।"



सबसे बड़ी बात मैं आपको बता देना चाहता हूँ कि-"संकल्प या प्रण आप कभी भी, कही भी, किसी भी वक़्त, और कितनी भी ली सकते हैं। आप एक संकल्प भी ले सकते हैं या ज्यादा संकल्प भी ले सकते हैं, लेकिन ले वही जो आप पूरे कर सके। संकल्प लेने के लिए किसी नए साल के आने या किसी साल के बीतने का इंतज़ार नहीं किया जा सकता हैं। नए साल की शुरुआत में प्रण लेने का सिर्फ यही महत्तव हैं, कि-"आप उस प्रण को पूरा करने की पूरी कोशिश करे, बस।" उन लोगो ने जिन्होंने नए साल की शुरुआत में कोई संकल्प नहीं लिया हैं, उनके लिए मैं कुछ संकल्प-प्रण बता रहा हूँ, जो वे अपनी सहूलियत-सुविधा के अनुसार ले सकते हैं =



आप खुद की कोई बुरी आदत (गुस्सा, गाली-गलौच, जलन की भावना, आदि) छोड़ने/कम करने का प्रण ले सकते हैं, आप कोई नशा (बीडी, सिगरेट, जर्दा-गुटका, आदि) त्यागने/कम करने का प्रण ले सकते हैं, आप बिजली की एक-एक इकाई बचाने का प्रण ले सकते हैं, आप थाली में जूठा भोजन ना छोड़ने का संकल्प ले सकते हैं, आप यातायात नियमो का पालन करने का संकल्प ले सकते हैं, आप पानी की एक-एक बूँद सहेजने का प्रण ले सकते हैं, आप अपने नकारात्मक विचारों को बदलने का प्रण ले सकते हैं, आप महीने या हफ्ते या साल में कभी भी अनाथो-वृद्धो-विधवाओं की सेवा करने का संकल्प ले सकते हैं, आप फ़ोन-मोबाइल-बिजली-पानी आदि का बिल समय पर भरने का संकल्प ले सकते हैं, आप नियमित रूप से पूरा-बिना किसी चोरी के टैक्स/कर अदा करने का संकल्प ले सकते हैं, आप सच्चाई-ईमानदारी जैसे नैतिक मूल्यों पर आने या अडिग रहने का संकल्प ले सकते हैं, आप अपने परिवार-बीवी-बच्चो को अधिक समय-देखभाल देने का संकल्प ले सकते हैं, आप अपने बिजनेस-व्यापार, काम-धंधे को उन्नति-ऊँचाई पर ले जाने का प्रण ले सकते हैं, आप समाजसेवा करने का प्रण ले सकते हैं, आदि-आदि........और भी बहुत कुछ हैं संकल्प-प्रण लेने योग्य......



अब मैंने आपको कई सुझाव दे दिए हैं, आगे आपकी मर्ज़ी कि-"संकल्प ले या ना ले?, ले तो कौनसा ले?, और ना ले तो क्यों ना ले??" मैं इस विषय में कुछ नहीं कहूंगा। इसी के साथ हैप्पी न्यू इयर, स्वागतम वर्ष 2010



नववर्ष आप सभी के लिए ढेरो खुशियाँ, समृद्धियाँ, और सुख-शान्ति लाये।



धन्यवाद।



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CHANDER KUMAR SONI,


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