मेरे इस ब्लॉग का उद्देश्य =

मेरे इस ब्लॉग का प्रमुख उद्देश्य सकारात्मकता को बढ़ावा देना हैं। मैं चाहे जिस मर्ज़ी मुद्दे पर लिखू, उसमे कही ना कही-कोई ना कोई सकारात्मक पहलु अवश्य होता हैं। चाहे वह स्थानीय मुद्दा हो या राष्ट्रीय मुद्दा, सरकारी मुद्दा हो या निजी मुद्दा, सामाजिक मुद्दा हो या व्यक्तिगत मुद्दा। चाहे जो भी-जैसा भी मुद्दा हो, हर बात में सकारात्मकता का पुट जरूर होता हैं। मेरे इस ब्लॉग में आपको कही भी नकारात्मक बात-भाव खोजने पर भी नहीं मिलेगा। चाहे वह शोषण हो या अत्याचार, भ्रष्टाचार-रिश्वतखोरी हो या अन्याय, कोई भी समस्या-परेशानी हो। मेरे इस ब्लॉग में हर बात-चीज़ का विश्लेषण-हल पूर्णरूपेण सकारात्मकता के साथ निकाला गया हैं। निष्पक्षता, सच्चाई, और ईमानदारी, मेरे इस ब्लॉग की खासियत हैं। बिना डर के, निसंकोच भाव से, खरी बात कही (लिखी) मिलेगी आपको मेरे इस ब्लॉग में। कोई भी-एक भी ऐसा मुद्दा नहीं हैं, जो मैंने ना उठाये हो। मैंने हरेक मुद्दे को, हर तरह के, हर किस्म के मुद्दों को उठाने का हर संभव प्रयास किया हैं। सकारात्मक ढंग से अभी तक हर तरह के मुद्दे मैंने उठाये हैं। जो भी हो-जैसा भी हो-जितना भी हो, सिर्फ सकारात्मक ढंग से ही अपनी बात कहना मेरे इस ब्लॉग की विशेषता हैं।
किसी को सुनाने या भावनाओं को ठेस पहुंचाने के लिए मैंने यह ब्लॉग लेखन-शुरू नहीं किया हैं। मैं अपने इस ब्लॉग के माध्यम से पीडितो की-शोषितों की-दीन दुखियों की आवाज़ पूर्ण-रूपेण सकारात्मकता के साथ प्रभावी ढंग से उठाना (बुलंद करना) चाहता हूँ। जिनकी कोई नहीं सुनता, जिन्हें कोई नहीं समझता, जो समाज की मुख्यधारा में शामिल नहीं हैं, जो अकेलेपन-एकाकीपन से झूझते हैं, रोते-कल्पते हुए आंसू बहाते हैं, उन्हें मैं इस ब्लॉग के माध्यम से सकारात्मक मंच मुहैया कराना चाहता हूँ। मैं अपने इस ब्लॉग के माध्यम से उनकी बातों को, उनकी समस्याओं को, उनकी भावनाओं को, उनके ज़ज्बातों को, उनकी तकलीफों को सकारात्मक ढंग से, दुनिया के सामने पेश करना चाहता हूँ।
मेरे इस ब्लॉग का एकमात्र उद्देश्य, एक मात्र लक्ष्य, और एक मात्र आधार सिर्फ और सिर्फ सकारात्मकता ही हैं। हर चीज़-बात-मुद्दे में सकारात्मकता ही हैं, नकारात्मकता का तो कही नामोनिशान भी नहीं हैं। इसीलिए मेरे इस ब्लॉग की पंचलाइन (टैगलाइन) ही हैं = "एक सशक्त-कदम सकारात्मकता की ओर..............." क्यूँ हैं ना??, अगर नहीं पता तो कृपया ज़रा नीचे ब्लॉग पढ़िए, ज्वाइन कीजिये, और कमेन्ट जरूर कीजिये, ताकि मुझे मेरी मेहनत-काम की रिपोर्ट मिल सके। मेरे ब्लॉग पर आने के लिए आप सभी पाठको को बहुत-बहुत हार्दिक धन्यवाद, कृपया अपने दोस्तों व अन्यो को भी इस सकारात्मकता से भरे ब्लॉग के बारे में अवश्य बताये। पुन: धन्यवाद।

Monday, October 25, 2010

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भ्रूण ह्त्या की इजाज़त दो.....
राज़स्थान में जनसंख्या नियंत्रण का एक बहुत ही अजीब और गलत उपाय अपनाया जा रहा हैं, जिसके मैं सख्त खिलाफ हूँ। राज़स्थान में चुनाव (कोई भी पार्षद, नगर पालिका-परिषद्-निगम के अध्यक्ष-उपाध्यक्ष, और विधायक) लड़ने के लिए एक शपथपत्र देना होता हैं कि-"उसके (चुनाव लड़ने के इच्छुक) दो से अधिक संताने नहीं हैं।" ये बहुत ही गलत नियम हैं। दो से अधिक संतान वालो को चुनाव लड़ने से अयोग्य करार देते हुए चुनाव लड़ने से रोका जा रहा हैं। ये नियम 1995 के बाद के बच्चो से ही लागू हुआ हैं। यानी इससे पहले जितने भी बच्चे हो बेझिझक चलेगा। इतना ही नहीं ये नियम पुरे देश भर में ना होकर राज़स्थान समेत 2-4 अन्य राज्यों में ही हैं।
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कुछ कारण जिनकी वजह से मैं इस नियम के खिलाफ हूँ =
क्या मात्र दो-चार राज्यों में इस नियम के लागू होने से जनसंख्या नियंत्रण हो जाएगा???
राज़स्थान में दो सौ विधानसभा क्षेत्र यानी विधायक हैं, अगर औसतन प्रतिक्षेत्र 5 लोग चुनाव लड़े तो ये मात्र एक हज़ार ही हुआ। और करीब इतने ही नगर पालिका-परिषद्-निगम के अध्यक्ष-उपाध्यक्ष हैं। पार्षद दो से तीन हज़ार हुए। क्या इतने कम संख्या में लोगो को पाबन्द (बाध्य) करने मात्र से जनसंख्या काबू में आ जायेंगी???
मेरे शहर श्रीगंगानगर को ही लीजिये। यहाँ की जनसंख्या चार लाख से ज्यादा हैं पार्षद हैं पचास और एक-एक सभापति-उपसभापति। यानी चुनाव लड़ने वाले कुल लोग हुए तीन सौ (प्रति वार्ड छह व्यक्ति औसतन) व्यक्ति। अब मात्र तीन सौ लोगो को जनसंख्या के नियम (दो से ज्यादा बच्चो पर रोक लगाने) से क्या शहर की आबादी में कोई फर्क पडेगा??
नहीं ना, ठीक इसी तरह सारे राज्य (राजस्थान समेत अन्य राज्य जहां-जहां ये नियम लागू हैं) में इस तरह जनसंख्या नियंत्रण कैसे संभव हैं??

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सभी शास्त्रों और धर्मग्रंथो में साफ़-साफ़ कहा गया हैं कि-"मृत्यु उपरान्त आत्मा की शान्ति के लिए पुत्र (बेटा) का होना आवश्यक हैं। गया जी, हरिद्वार, ऋषिकेश या अन्य स्थलों पर पिंडदान करना, अस्थियों को बहाना, दाह संस्कार करना, या सभी अन्य कार्य पुत्रो द्वारा फलीभूत होते हैं सिर्फ हिन्दुओं (जिनमे सिख, जैन, और बोद्ध धर्म के अनुयाई भी शामिल हैं) में ही नहीं मुस्लिमो, ईसाईयों में भी पुत्र होना आवश्यक बताया गया हैं। इतना ही नहीं पुत्र विहीन होने को अभिशाप सामान बताया गया हैं। तभी तो प्राचीन काल में बड़े-बड़े राजा-महाराजाओं को भी पुत्रयेष्टी यज्ञ करते दिखाया गया हैं। वर्तमान में भी काफी लोग पुत्र ना होने के गम में संत-महात्माओं के शरण में जाते हैं, और नाकामयाबी मिलने पर आत्महत्या जैसा कदम तक उठा बैठते हैं।"
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हालांकि अब बच्चो को गोद लेने और आधुनिक चिकित्सा सुविधाओं के कारण नि:संतान दम्पत्तियों में दुःख-अवसाद, तनाव कम हो रहा हैं। लेकिन, विज्ञान की भी एक सीमा हैं। जिन्हें विज्ञान नकार देता हैं वहाँ लोग तंत्र-मंत्र, और यज्ञ जैसे कर्मकांड करते हैं। साधू-महात्माओं, संतो के चक्कर काटते हैं, देवी-देवताओं, भगवानो-पीरो के तीर्थो पर मन्नत मांगते हुए शीश नवाते हैं। यहाँ भी विफल होने पर कानूनी प्रक्रिया से बच्चो को गोद भी लेते हैं। लेकिन, जिन्हें सुख नहीं मिलता यानी गोद के लायक को बच्चा नहीं मिलता या कोई कानूनी उपाय नहीं मिलता तो उन्हें आत्म-ह्त्या जैसा गंभीर कदम तक उठाते देखा गया हैं। यहाँ गौरतलब हैं कि-"हिन्दू धर्म ही नहीं अन्य सभी धर्म भी बेटा होना परम-आवश्यक करार देते हैं।"
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बहुत से लोग धर्म कर्म को नहीं मानते हैं, लेकिन जो मानते हैं उनके लिए ये नियम कष्टदायी हैं। धर्म और उनकी बातों को ना मानने वाले ये भूल जाते हैं कि-"बेटी कोई कभी तो विदा करेंगे ही, दामाद को तो घरजमाई बनाकर नहीं रख सकते। बेटा ही पास रहता हैं भले ही संपत्ति के लालच में ही क्यों ना हो?? वैसे हर बेटा लालची नहीं होता, ये भी ध्यान देने योग्य बात हैं। बेटा जीवन भर दुःख भले ही दे लेकिन संपत्ति के लालच में मरते दम तक सेवा तो करता हैं। बेटियाँ एक उम्र तक ही हमारे पास रहती हैं उसके बाद उसे ससुराल जाना ही होता हैं। बेटा आज भले ही सुख नहीं देते हो, लेकिन अगर अच्छे संस्कार हो तो माता-पिता के प्रति पूरा समर्पण भाव रखते हैं। बेटी को आप संपत्ति का लालच भी नहीं दे सकते क्योंकि उसे रहना तो ससुराल ही हैं। बेटा होना आवश्यक हैं, आप अपना वर्तमान या पुश्तैनी कारोबार किसे देंगे??? बेटी को??? मगर बेटी आपका कारोबार संभालेंगी या अपना घर यानी ससुराल??? अगर बेटी कामकाजी भी होंगी तो अपने पति के कार्य को संभालेंगी या अपने पिता के???, आदि-आदि।"
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कुछ लोग बेटा ना होने पर संपत्ति दान कर देने की बात कहते हैं, लेकिन ऐसा कहते समय वे भूल जाते हैं कि-"दान देने के मुद्दे पर आपके सगे-सम्बन्धियों और रिश्तेदारों में टकराव हो सकता हैं। जिन्होंने सारी जिंदगी में आपकी तरफ देखा भी नहीं होगा वो आपके मरने के बाद कुकुरमुत्तो की तरह सामने आने लगेंगे। आपके अगर कोई बेटा हुआ तो ठीक वरना आपकी संपत्ति आपके कथित "अपनों" द्वारा ही लूट ली जायेगी। जिस व्यक्ति या संस्था को आप दान देंगे वो भी बेवजह निशाने पर आ जायेंगी जैसे कि-"डरा धमका लिया होगा या बेहिसाब पैसे गलत कार्य में खर्च किये जायेंगे या इन्होने (दान देने वाला) मौखिक रूप से मुझे (संपत्ति का भूखा व्यक्ति) हिस्सा दिया था या ये तिरछी नज़र वाले भूखे आपके (मृतक के) वकील को ही खरीद डालेंगे और वकील कहलवा देगा कि-"भूल से इनका (खोटी नियत वाला) नाम डालना रह गया या बाद में दानदाता ने इस नाम (संपत्ति पर गिद्ध दृष्टि गड़ाएं लोग) पर सहमति दिखाई थी।" आदि-आदि कई बहानो से झगडा होने लगेगा।"
.वैसे भी ये सर्वविदित तथ्य हैं कि-बेटे को अपनी जमीन-जायदाद देने में जो सुख हैं वो परायो को देने में कहाँ??? बेटा नालायक ही निकलेगा ये डर क्या जायज़ हैं??? आप पहले ही बेटो के निकम्मे होने की भावना क्यों पाल बैठे हैं?? उन्हें लायक बनाइये, काबिल बनाइये। अगर आप उन्हें अच्छे संस्कार नहीं दे पाते या वे बिगड़ जाते हैं तो आप अपनी संपत्ति का लालच भी दे सकते हैं। लेकिन, बेटी बिगड़ी हुई निकल गयी तो?? ये आप कभी नहीं सोचते।
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मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि-"सभी को भ्रूण लिंग की जांच की इजाज़त होनी चाहिए या सभी को भ्रूण ह्त्या की इजाज़त मिलनी चाहिए।" मैं तो ये कह रहा हूँ कि-
"जिनके बेटा नहीं हैं उन्हें किसी भी सूरत में भ्रूण लिंग जांच की इजाज़त नहीं मिलनी चाहिए, लेकिन जिनके पहले एक बेटी हैं उन्हें इस बात की इजाज़त होनी चाहिए। क्योंकि एक बेटी के होने के बाद अगर दूसरी भी बेटी हो गयी तो बेटा कर नहीं सकते। और अगर तीसरी संतान बेटा हुयी तो राजनीति खतरे में पड़ जायेंगी। आम आदमी को इस नियम से कोई परेशानी नहीं हैं, लेकिन राजनीति में सक्रिय लोगो (नेता या कार्यकर्ता) को इस नियम से समस्या ही समस्या हैं। सभी को इजाज़त नहीं मिलनी चाहिए, लेकिन पहले से ही एक बेटी वालो को खासतौर पर इजाज़त प्रदान की जानी चाहिए।"
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सबसे बड़ी बात--ये पाप जरूर हैं, लेकिन मज़बूरी भी हैं। आप राजनीति छोड़ सकते हैं, आप पाप से बचने के लिए राजनीतिक करियर को तिलांजलि दे सकते हैं। लेकिन, हर कोई ऐसा नहीं कर सकता, जिसे राजनीति में काफी लंबा समय हो गया हैं उसे कोई ना कोई टिकडमबाज़ी करके किसी ना किसी तरीके से राजनीति को बचाना आवश्यक होगा। सबसे बढ़िया तो यही होगा कि-"इस नियम को ही रद्द कर दिया जाए। अगर ऐसा संभव ना हो या इच्छा ना हो तो मेरे कई सुझाव हैं जो मैं देना चाहूँगा।" ये भ्रूण लिंग निषेध अधिनियम सख्ती से पुरे देश में लागू नहीं हैं। कोई भी दो गुना या तीन गुना पैसा देकर लिंग जांच और गर्भपात करा सकता हैं। सबसे पहले तो इस नियम (दो से अधिक संतान) को पुरे देशभर में लागू किया जाए, तभी फायदा हैं। कुछेक राज्यों से कोई उत्साहजनक नतीजे नहीं मिल सकते। दूसरा, एक बेटी वालो को भ्रूण लिंग जांच की इजाज़त जायज़ तौर पर मिलनी ही चाहिए। तीसरा, इस नियम को सिर्फ राजनीति के क्षेत्र में ही लागू ना रखा जाए। इस नियम को अन्य क्षेत्रो (निजी व सरकारी दोनों) में भी लागू किया जाए। अगर निजी क्षेत्रो में ना लागू हो सके तो सभी सरकारी क्षेत्रो में तो लागू किया ही जा सकता हैं।
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(कृपया विचारमंथन करे और अपने विचार प्रदान करे।).
धन्यवाद।
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FROM =CHANDER KUMAR SONI,
L-5, MODEL TOWN, N.H.-15,
SRI GANGANAGAR-335001,
RAJASTHAN, INDIA.
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Monday, October 18, 2010

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इन मासूमो का क्या कसूर???
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मुझे ये समझ में नहीं आता हैं कि--"बड़ो की लड़ाई में बच्चे (नासमझ या 15 साल से कम उम्र के) क्यों पिस जाते हैं?? माता-पिता की आपसी लड़ाई-झगडे-तनाव का बच्चो पर बहुत बुरा असर पड़ता हैं। बड़े लोगो की लड़ाई में भला बच्चो का क्या काम?? घर--परिवार के बड़े लोगो को सौ तरह की परेशानियां, टेंशन, वगैरह होती हैं, उनमे बच्चो (नासमझ या 15 साल से कम उम्र के) को शामिल करना या घसीटना क्या उचित हैं?? चाहे वे आर्थिक परेशानियां हो या धार्मिक (किसी विशेष रीति-नीति को मानने या ना मानने को लेकर) तनाव हो, चाहे वे पैसे के लेन-देन को लेकर हो या संपत्ति विवाद, पति-पत्नी के आपसी, निजी झगडे हो या सास-ससुर को लेकर तनाव, चाहे वे देवरानी-जेठानी को लेकर टेंशन हो या भाई-भाभी को लेकर मनमुटाव, और चाहे बच्चो को लेकर (लालन-पालन को लेकर या किसी के द्वारा डांट या मार देने पर) आदि-आदि।
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कोई भी, जैसा भी, जिससे भी, और जितना भी विवाद-तनाव क्यों ना हो, बच्चो को यथासंभव इन सबसे दूर ही रखा जाना चाहिए। बच्चो (नासमझ या 15 साल से कम उम्र के) के सुखद भविष्य के लिए उन्हें इन सभी नकारात्मक, बुरी, और बोझिल मुद्दों-बातों से हर हाल में ही दूर रखना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य से, होता ठीक उलटा ही हैं। जो नहीं होना चाहिए, वो जानते-बूझते हुए किया जाता हैं। दूर-दूर से मौजूद (कमरों में, घर में या कभी-कभी घर से बाहर से भी) बच्चो को पुकार-पुकार कर बुलाया जाता हैं। कभी गवाही के नाम पर तो कभी पोल खोलने के नाम पर तो कभी हाँ-ना भरने के नाम पर, और तो और कभी-कभी तो उन्हें सारी हदें पार करते हुए, उन्हें (बच्चो को) पूरी कहानी (स्कूली-शैक्षिक कहानी नहीं) विस्तार से सुनाने के नाम पर बुला लिया जाता हैं।
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ये अभिभावक लोग जाने-अनजाने इन मासूमो (नासमझ या 15 साल से कम उम्र के) के साथ कैसा क्रूर खेल खेल जाते हैं??, इसका उन्हें (माता-पिता या अभिभावकों को) जब तक अहसास होता हैं तब तक बहुत देर हो चुकी होती हैं। बच्चो में बुरे संस्कार डल चुके होते हैं, इतिहास गवाह हैं और खुद विज्ञान भी इस बात को मानता हैं कि-"लड़ाई-दंगा, उठापटक, हिंसा, तनाव, और टेंशन से गुजरने वाले बच्चो पर बेहद बुरा असर पड़ता हैं। उनके भी भविष्य में हिंसक और तनावग्रष्ट होने की संभावना अधिक रहती हैं। बड़े होने प वे काफी जिद्दी, उद्दंड, गुस्सैल, और नकारात्मक विचारों वाले साबित हो सकते हैं। विवाह होने के बाद ये संभावना भी प्रबल रहती हैं कि-"उनका परिवार, बीवी-बच्चे भी वो सब झेल सकते हैं जो उन्होंने झेला होता हैं। क्योंकि उन्हें ये सब जायज़ और उचित प्रतीत होता हैं। इस तरह पीढ़ी-दर-पीढ़ी ये समस्या आगे हस्तांतरित होती जाती हैं।"
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हैरानी तो तब होती हैं जब बच्चो (नासमझ या 15 साल से कम उम्र के) की लड़ाई में बड़े भी शामिल हो बैठते हैं। बड़ो की लड़ाई-तनाव में बच्चो का शामिल होना जितना नुकसानदेह हैं उससे कहीं ज्यादा नुकसानदेह बच्चो की लड़ाई में बड़ो का शामिल होना हैं। स्कूल में या गली-मोहल्ले में जब बच्चा किसी अन्य से लड़कर घर आता हैं तो हर बार तो नहीं, पर कभी-कभी माता-पिता भी उन बच्चो को डांटने (कभी-कभार पीट तक देने) या उनके माँ-बाप से उलझ बैठते हैं। ऐसा करके वे अपने बच्चो को एकांगी बना रहे होते हैं क्योंकी बच्चा तो स्कूल-मोहल्ले में बदनाम हो जाता हैं और अन्य अभिभावक अपने-अपने बच्चो को उस बच्चे (जिसके अभिभावक आकर लड़े हो) के साथ ना खेलने और दूर रहने की हिदायत दे देते हैं। और स्कूल में भी सहपाठी नाराज़ हो जाते हैं। इन सभी घटनाक्रमों से बच्चा एकांगी हो जाता हैं, उसमे मिलनसारिता की भावना का विकास नहीं हो पाता या खत्म हो जाती हैं। मिलनसारिता के अभाव में बच्चे की तरक्की के रास्ते भी सीमित या बंद हो जाते हैं।
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बड़ो की लड़ाई में बच्चो को किसी भी हाल में शामिल नहीं किया जाना चाहिए। यदि बच्चा (नासमझ या 15 साल से कम उम्र के) तनाव के माहोल में आपके निकट भी हो तो उसे कहीं दूर, खेलने, या पढने भेज देना चाहिए। बच्चा किसी एक का नहीं होता हैं, वो सबका होता हैं। पहली बात तो उसमे सही-गलत की समझ भी पूरी नहीं होती हैं और दूसरी बात वो किसका पक्ष ले??, किसी एक का पक्ष ले तो फंसा और दुसरे का पक्ष ले तो भी फंसा, इधर कुंवा और उधर खाई वाली विकट-स्थिति आ जाती हैं मासूम के आगे। बेचारा, मैदान छोड़कर (यानी बिना कोई पक्ष लिए या जवाब दिए) भी तो नहीं जा सकता। बच्चा अगर 15 साल से बड़ा या समझदार हैं तो और बात हैं लेकिन, फिर भी उसे आपसी झगड़ो-तनावों, चिंताओं से अवोइड-इग्नोर (बचना) करना चाहिए।
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बच्चा जिस माहोल में पलेगा-बढेगा, वैसे ही उसके संस्कार होंगे। अगर वो लड़ाई-झगडा, दंगा-फसाद, मार-पी, तनाव, टेंशन, आदि माहोल में रहेगा तो उसे वो माहोल अजीब नहीं लगेगा। भविष्य में वो बच्चा वोही सब करेगा जो उसने अपने बाल्यावष्ठा में देखा होगा। फिर उसे ये सब करने में कोई झिझक या डर या नफरत नहीं होगी, वो इसे सामान्य और साधारण सी बात मानने लगेगा, जिससे ये तनाव, ये कारात्मक माहोल आगे-से-आगे, पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता जाएगा। अच्छा खानदान या घराना उसे ही कहा जाता हैं जहां पीढ़ी-से-पीढ़ी अच्छे संस्कार चले आ रहे हो। अगर आप गलत हो जायेंगे तो घराने का नाम लुप्त-ख़त्म हो जाएगा। फिर आप या आपके नीचे की पीढ़ी जब अच्छा प्रयास करेगी तो वो घराना नहीं बल्कि मात्र अच्छे परिवार का ही नाम कर पाएंगी। अच्छा घराना या खानदान बनाने के लिए पुन: पीढ़ियों तक अच्छा बना रहना पडेगा, यानी की मतलब साफ़ हैं। उजाड़ना हो तो मात्र एक ही पीढ़ी काफी हैं और बनाना या विकसित करना होतो कई पीढियां खपानी-लगानी-गुजारनी पड़ती हैं।

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तो आपका क्या फैसला हैं??, जायेंगे बच्चो के बीच या उन्हें खेलने-कूदने-मौजमस्ती मारने देंगे??
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धन्यवाद।
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Monday, October 11, 2010

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ये कैसी उलटी गंगा बह निकली??
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हाल ही में मैं (लगभग 5 दिन पहले) शहर की एक नामी (टॉप 5 में गिनी जाने वाली) मोबाइल की दूकान पर खडा था। तभी वहाँ एक 22-23 साल की कॉलेज जाने वाली युवती आई और अपना मोबाइल दुकानदार को पकड़ा दिया और सिर्फ इतना कहा--"बढ़िया-बढ़िया फ़िल्में ड़ाल दीजिये, मैं शाम को ले जाउंगी।"
दुकानदार बोला--"अभी ले जाइए, 10-15 मिनट में दे देता हूँ।"
मैंने दुकानदार से माज़रा पूछा--"ये चक्कर क्या हैं??, उसने कुछ बोला ही नहीं, बस मोबाइल पकडाया और पैसे देकर चलती बनी। ये मामला हैं क्या???"
दुकानदार--"यार बी.एफ. (ब्लू / अश्लील फिल्म) का चक्कर हैं।"
मेरी हंसी छुट गयी, मुझे लगा शायद मेरे साथ मज़ाक कर रहा हैं। मैंने कहा--"सीधे-सीधे बता ना यार, क्यों बकवास कर रहा हैं??, नहीं बताना चाहता तो साफ़ बोल दे।"
दुकानदार--"यार, सच कह रहा हूँ, वो हमारी परमानेंट (फिक्स) ग्राहक हैं, तभी तो मोबाइल देकर जाने को हो रही थी। वरना, लोग तो अपने सामने डॉउन्लोडिंग करवाते हैं ताकि हम उनके मोबाइल की गोपनीय चीज़ें अपने कम्पूटर में ना ड़ाल ले।"
मुझे अभी भी उसकी बातों पर यकीन नहीं हो रहा था, हालांकि मैं अब कुछ हद तक गंभीर हो उठा था। तभी, उसी युवती की आवाज़ ने हमारे वार्तालाप को तोड़ा--"भैया, कितनी देर और लगेगी?? मैं कॉलेज को लेट हो रही हूँ, शाम को वापसी में ले जाउंगी। आराम से बैठकर बढ़िया-बढ़िया डॉउन्लोडिंग कर देना। अभी मैं चलती हूँ।"
दुकानदार--"बस जी हो गया, ले जाइए।" उसके बाद, युवती की सहमति को देखकर वो मेरी तरफ मुखातिब हुआ और बोला--"ये देख, इतनी मूवीज मैं इनके मोबाइल में ड़ाल चुका हूँ, और ये आखिरी और ड़ाल रहा हूँ। तेरे सामने ही हैं, अच्छी तरह से देख ले। हमारा तो ये रोज़-रोज़ का काम हैं, तू नहीं जानता ये सब। और ये लड़की हमारी काफी अच्छी और पुरानी ग्राहक हैं।"
दुकानदार ने लड़की को मोबाइल दिया और बाकी पैसे लौटा दिए। युवती--"नयी-नयी, लेटेस्ट मूवीज डाली हैं ना, कोई पुरानी तो नहीं हैं??" दुकानदार--"जी बिलकुल नहीं।"
दुकानदार मेरी तरफ मुस्कुराते हुए--"अब देखले सब तेरे सामने हैं। आजकल छापे काफी पड़ने लगे हैं, इसलिए किसी का मोबाइल दूकान में कम ही रखते हैं। पकडे जाने का डर होता हैं और बदनामी भी होती हैं। ज्यादातर डॉउन्लोडिंग हमारी इसी चीजों की होती हैं। स्थिर फोटो भी हैं, एनिमेटिड (चलित) फोटो भी हैं, कार्टून फोटो भी हैं, कार्टून मूवी भी हैं, और भी बहुत कुछ हैं हमारे पास। ग्राहक की जो डीमांड होती हैं, उसे पूरी करने की पूरी कोशिश रहती हैं, धंधा भी तो चलाना हैं......"
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इस घटनाक्रम के बाद मैं उस दूकान से घर चला गया। मेरे मन में कई ख्याल-सवाल उठने लगे, जिनके जवाब मुझे अभी तक नहीं मिल सके हैं। कुछ सवाल :--
ये उलटी गंगा कैसे और कबसे बहने लगी??
जिनपर महिलाओं-स्त्री जाति की इज्ज़त बचाने का भार हैं, वो ही ऐसी होंगी तो कैसे पार पड़ेंगी??
भैया बोलती हैं, फिर भी ऐसी-ऐसी अश्लील-कामुक सामग्री अपने मोबाइल में दलाने आती हैं। ये कैसा भाई-बहन का रिश्ता??
नारी अशिष्ट निरूपण अधिनियम किस काम का रह गया हैं??
अगर नारीवर्ग ही अश्लील फिल्मो, अश्लील चित्रों के प्रति दीवाना हो जाएगा, तो पुरुषो को कौन रोकेगा??
क्या नारी अशिष्ट निरूपण अधिनियम रद्द नहीं कर देना चाहिए?? क्योंकि अब नारी ही इन चीजों के समर्थन में उतर आई हैं।
आदि-आदि।
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यहाँ मैं पुरुष-स्त्री में भेदभाव नहीं कर रहा हूँ। नाही मैं नारीवर्ग के लिए कोई गलत-बुरी धारणा बना कर बैठा हूँ। यहाँ मैं नारी की जिम्मेदारी का एहसास उसे करा रहा हूँ। पुरुषो को भी सुधरना चाहिए, लेकिन नारी को ज्यादा सचेत रहने की आवश्यकता हैं। पुरुषवर्ग क़ानून से नहीं समझ पाया हैं, और नाही उसमे समझने की कोई लालसा हैं। लेकिन, स्त्री वर्ग को इन बातों का ध्यान रखना चाहिए। पुरुषो की नज़र में और ज्यादा गिरने से बचना चाहिए। पुरुष वर्ग वैसे ही स्त्री-वर्ग के प्रति संकीर्ण मानसिकता रखता हैं, उनके प्रति सम्मानजनक भाव नहीं रखता हैं। ऐसे में, स्त्रियों द्वारा मोबाइलों या अन्य माध्यमो से इन अश्लील सामग्रियों को बढ़ावा देना आत्महत्या जैसा ही हैं। पुरुषो को स्त्रियों को सुनाने का और मौक़ा मिल जाएगा जैसे--"भूखी कहीं की, शरीफ हैं नहीं बस नाटक करती हैं, चालु हैं सारी की सारी, (मैं यहाँ ज्यादा कुछ लिखना नहीं चाहता), आदि-आदि।" भले ही, ये मामला अपवाद-दुर्लभ हो या कोई-कोई, कुछेक लडकियां ऐसी हो। लेकिन कहते हैं ना, एक मछली पुरे तालाब को गंदा कर देती हैं, उसी तरह ये कुछेक लडकियां पूरी नारी जाति को बदनाम कर रही हैं।
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तो अब नारी-जाति इस उलटी बहती गंगा को रोकने के लिए कब, क्या, और कैसे करेंगी???
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धन्यवाद।
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