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ये किसी सौतन से कम नहीं।
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आज तक आपने जितनी भी सौतनों के बारे में सुना होगा, उन सभी सौतनो से ज्यादा खतरनाक और घातक सौतन हैं ये कामधंधा, नौकरी। हैरान ना होइए मैं सौ प्रतिशत सच, सोलह आने सत्य कह रहा हूँ। आजकल की भागती-दौड़ती, व्यस्त और तेजरफ्तार ज़िन्दगी में सब और धन का ही बोलबाला हैं। जिसे देखो वो पैसे के पीछे भाग रहा हैं। मानो, पैसा ही सब कुछ हो, पैसा ही पानी और प्राणवायु की तरह महत्तवपूर्ण हो।
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नौकरी, कामधंधा, व्यापार आदि अब सौतन का रूप धरते जा रहे हैं। एक ऐसी सौतन जिससे कमोबेश हर औरत जूझ रही हैं। हर व्यक्ति अपनी बीवी और बच्चो से दूर होता जा रहा हैं। जब देखो पैसा, पैसा, और पैसा की ही रट लगाए रखता हैं व्यक्ति। चाहे कोई नौकरी करता हो या बिजनेस करता हो, या दुकानदारी या कामधंधा करता हो, सब इतने व्यस्त हो चुके हैं की उन्हें अपने परिवार का ही ख्याल नहीं रहा हैं। नज़र बस अपनी ड्यूटी पर ही लगी रहती हैं। परिवार की तरफ से तो नज़र ही फेर ली गयी हैं।
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जिन परिवारों में पति के साथ-साथ पत्नी भी नौकरी करती हो वहाँ तो हालात विकट हो जाते हैं। वहाँ बच्चो का और बूढ़े/उम्रदराज माता-पिता का ख्याल ईश्वर ही रखता हैं। सुबह दोनों पति-पत्नी दफ्तर के लिए तैयार होने और बच्चो को स्कूल भेजने (यदि स्कूल जाने लायक हो तो) में ही व्यस्त हो जाते हैं और फिर शाम को (अक्सर देर रात) को घर आने के बाद खाना-वाना खा-पीकर सो जाते हैं। माँ-बाप के लिए तो बस दुआ-सलाम ही शेष रह जाती हैं।
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खैर बात करते हैं, जहां सिर्फ पति या पुरुष नौकरी करता हो। पुरुष अब काफी व्यस्त हो गया हैं, जल्दी पैसा कमाने की धुन, जल्द से जल्द अमीर बनने की ललक, और बाज़ार में मौजूद गला-काटूँ कम्पीटीशन ने व्यक्ति को उलझा दिया हैं। जब देखो काम-काम-काम, पैसा-पैसा-पैसा, बस यही एक आदमी की ज़िन्दगी और ज़ीने का मकसद रह गया हैं। परिवार में बीवी तो बस घर लायक ही हैं जो खाना बना दे, कपडे धो/प्रेस करदे, आदि-आदि। बच्चे सिर-हाथ-पैर दबा दे, या कोई छोटे-मोटे काम करदे आदि-आदि।
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अब ये नौकरी, कामधंधा क्या किसी सौतन से कम हैं?? माना कामकाज करना, नौकरी करनी जरुरी हैं लेकिन इतनी भी क्या जरुरी कि-"व्यक्ति अपने परिवार, अपने बीवी-बच्चो को ही भुला दे??" चलिए जो भी हो, अब तो स्थिति ये हो गयी हैं कि-"वर्किंग डेज़ के साथ-साथ अब व्यक्ति ओवर-टाइम भी देने लगा हैं, ताकि थोड़ा ज्यादा धन कमा सके। इसके साथ-साथ अब व्यक्ति छुट्टी के दिन भी व्यस्त रहने लगा हैं। कभी दफ्तर के तनाव के कारण छुट्टी का दिन बेकार हो जाता हैं तो कभी दफ्तर का कार्य पुरुष छुट्टी के दिन घर ले आता हैं। छुट्टी के दिन भी एन्जॉय करने कि बजाय चिंताग्रस्त पति/पुरुष अगले दिन की रूपरेखा बनाने लगता हैं। जिससे पुरे परिवार का मज़ा किरकिरा हो जाता हैं।
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बच्चे भले ही अपने दोस्तों के साथ या पड़ोस/गली के बच्चो से मिल ले, खेल ले लेकिन पत्नी...??? अगर पत्नी किट्टी-पार्टी या पड़ोसनो से गप्पे लड़ा ले तो भी कब तक और कितना??? पत्नी और बच्चो को पति=पापा का तो साथ नहीं मिला। परिवार पति/पुरुष के बिना अधूरा होता हैं, पड़ोस के लोग, पडोसने, गली-मोहल्लो के बच्चे परिवार का हिस्सा कदापि नहीं हो सकते। सब कुछ जरुरी हैं, पैसा कमाना जरूरी हैं, नौकरी-कामधंधा सब जरुरी हैं, लेकिन परिवार भी जरुरी हैं। आपके बीवी-बच्चो को आपकी आवश्यकता हैंउन्हें समय दीजिये, उनके साथ वक़्त गुज़ारिये। उनके साथ-साथ आपको भी सुकून मिलेगा, सारी चिंताएं, सारी टेंशन, सब दूर भाग जायेंगी। चाहे कितना भी जरुरी क्यों ना हो, चाहे कितनी भी तनख्वाह क्यों ना हो, छुट्टी का दिन परिवार को दीजिये। बाकी दिन / कार्यदिवस को चाहे हाड़तोड़ मेहनत कीजिये, खूब खून-पसीना बहाइये, लंबा ओवरटाइम कीजिये, लेकिन छुट्टी के दिन परिवार के साथ रहिये।
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तो आप कबसे छुट्टियों का परिवार के लिए उपयोग करेंगे और इस सौतन से छुटकारा दिलाएंगे???
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FROM =
CHANDER KUMAR SONI,
L-5, MODEL TOWN, N.H.-15,
SRI GANGANAGAR-335001,
RAJASTHAN, INDIA.
CHANDERKSONI@YAHOO.COM
00-91-9414380969
CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM
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Sahee hai Guru!
ReplyDeleteइतना गहन अध्यनन और इतनी गहरी बातें अच्छी लगी. बेहतरीन पोस्ट
ReplyDeletesautan se chutkara dilane ka acha pryas kiya hai chander sir
ReplyDeleteसही लिखा है । पैसा जिंदगी की ज़रुरत है , जिंदगी नहीं ।
ReplyDeleteअरे हाँ , आपकी टिप्पणी डिलीट नहीं हुई । अब तो छपी हुई है ।
ReplyDeleteउम्दा चिंतन.
ReplyDeleteमैने एक बार लिखा था...
जीवन के लघु पथ कटान में
रिश्तों के सब तार बह गए.
उम्दा चिंतन.
ReplyDeleteमैने एक बार लिखा था...
जीवन के लघु पथ कटान में
रिश्तों के सब तार बह गए.
अच्छा विश्लेषण....समय -नियोजन बहुत जरूरी है.. ज़िन्दगी भी जीना चाहिए अपने परिवार के साथ
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