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ये कैसा नारी सशक्तिकर्ण???
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आजकल हर ओर नारी सशक्तिकर्ण की बयार बह रही हैं। जिधर नज़र दौडाओ वही नारी सशक्तिकर्ण की बातें नज़र आ रही हैं। आज नारी सशक्तिकर्ण का इतना राग अलापा जा रहा हैं कि-"पुरुषो को हीन भावना महसूस होने लगी हैं।" सब और नारी की ही बात हो रही हैं, बेचारे पुरुषो को कोई पूछ ही नहीं रहा हैं। मानो, पुरुष वर्ग को कोई समस्या ही ना हो, सारी समस्याएं स्त्रियों की ही हो। ये भी भला कोई बात हुयी।
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तलाक के मामले भी शायद इन्ही कारणों से बढ़ रहे हैं। पहले पति-पत्नी में तनाव होने पर एक पक्ष (आमतौर पर पत्नी) शांत बना रहता था, जिससे तनाव नहीं बढ़ता था ओर वैवाहिक जीवन बचा रहता था। लेकिन, नारी अब सशक्त तो हुयी हैं, लेकिन शायद नकारात्मक रूप से। तभी तो सहनशक्ति समाप्त हो चली हैं, लड़ने को तो मानो तैयार ही रहती हो। मैं नारी जाति को सुना नहीं रहा हूँ, मैं तो उनकी एक कमी की तरफ ध्यान दिला रहा हूँ। पति कामधंधे के तनाव के साथ-साथ आर्थिक-सामाजिक रूप से भी परेशान रहता हैं। उनके गुस्से को शांत भाव से पी लेना चाहिए, बजाय लड़ने या बहस करने के।
(जहां पति-पत्नी दोनों कामकाजी हो वहाँ और बात हैं। क्योंकि उस स्थिति में दोनों ही तनावग्रस्त होते हैं, और दोनों को ही संयम, शांति से काम लेना होता हैं। यहाँ मुद्दा कामकाजी पति और घरेलु पत्नी का हैं।)
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मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि--"औरत को पति की मार सहनी चाहिए या पति को परमेश्वर समान मानते हुए उनके जुल्मो को सहना चाहिए।" मैं तो सिर्फ सूझबूझ, ठन्डे दिमाग से काम लेने का सुझाव देना चाह रहा हूँ। पति को गुस्से के वक़्त समझाने की बजाय थोड़ी देर बाद मौके की नजाकत और माहौल के शांत होने के बाद समझाना चाहिए।
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आज नारी सशक्तिकरण के नाम पर औरत हर क्षेत्र में दाखिल हो चुकी हैं। जो क्षेत्र कल तक पुरुषो के वर्चस्व वाले क्षेत्र माने जाते थे, वहाँ अब औरतो ने पैठ बना ली हैं। जैसे कि-ड्राइवर, टेक्सी ड्राइवर, फायर ब्रिगेड में, खेतो में ट्रक्टर से जुताई करना, युद्ध क्षेत्र, लड़ाकू विमान चलाना, कल-कारखानों में मजदूरी व मनेज़री का कार्य करना, और तमाम खेलकूद आदि। ये बहुत अच्छी बात हैं, और मैं औरतो की इस तरक्की से खुश हूँ और समस्त नारी-जाति को बधाई भी देता हूँ।
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लेकिन ये भी एक दुर्भाग्य हैं कि-"नारी सशक्तिकरण, नारी को मज़बूत करने के नाम पर परिवार तोड़ा जा रहा हैं। समाज की सबसे छोटी, शुरुवाती, और सबसे मज़बूत इकाई--परिवार--को तोड़ा जा रहा हैं। जोकि अंतत: सामाजिक बिखराव के रूप में सामने आयेगा। मेरी महिलाओं से एक ही दरख्वास्त, अपील हैं कि-"आप चाहे जितनी भी मज़बूत हो जाइए, लेकिन परिवार की नींव को ना दरकने दीजिये। अपनी सूझ-बूझ से, और ठन्डे दिमाग से काम लेते हुए, परिवार को एकजुट रखिये। कोई भी वाद-विवाद होने पर पति को गुस्से के वक़्त समझाने की बजाय थोड़ी देर बाद मौके की नजाकत और माहौल के शांत होने के बाद समझाइये। अपने सशक्त होने के अहम् को त्यागिये, और अपने होश संभालते हुए परिवार और अंतत: समाज को टूटने से बचाइये।"
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मुझे एक बात समझ में नहीं आती हैं कि--
औरत तलाक क्यों लेती हैं???
औरत तलाक लेते वक़्त पति से भत्ता क्यों मांगती हैं???
शादी से पहले भी तो माता-पिता के पास रहती थी, अब क्यों नहीं रह सकती????
अगर माता-पिता नहीं हैं तो भाइयों के पास क्यों नहीं रहती?????
इतना ही हैं तो खुद कमाकर क्यों नहीं खाती??
खुद कमाकर किराए का घर क्यों नहीं लेती???
एक तो पति को तलाक देकर छोडो और फिर उसके पैसो (भत्तो) पर ऐश क्यों????
आदि-आदि।
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विशेष = मैंने ये ब्लॉग पोस्ट महिलायों के खिलाफ नहीं लिखी हैं और नाही मैंने स्त्रियों की तरक्की से जलभुन कर ये सब लिखा हैं। मैंने ये सब उन मामलो को लेकर लिखा हैं जहां कई औरतो ने अहंकारवश, अकड़ में, अहंभाव से प्रेरित होकर तलाक लिया हैं और पति को और दबाने के लिए उसकी कमाई पर भी गिद्ध दृष्टि गडाते हुए अदालत से गुज़ारा-भत्ता मांग लिया। ये मेरे मन का दर्द हैं, मैं तलाक के बढ़ते मामलो और समाज में टूटकर बिखरते परिवारों को देखकर बेहद दुखी-चिंतित हूँ। ये ब्लॉग पोस्ट मैंने सिर्फ उन दपत्तियों के लिए लिखा हैं जहां सिर्फ पति ही कामकाजी हैं। पति को समझते हुए पत्नी को संयम-धैर्य से काम लेना चाहिए। जहां दोनों पति-पत्नी कामकाजी हो वहाँ होनो की बराबर ज़िम्मेदारी बनती हैं।
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धन्यवाद।
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FROM =
CHANDER KUMAR SONI,
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RAJASTHAN, INDIA.
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ऐसा करना उचित नही है ,.... इनको सोचना चाहिए ....
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