Thursday, September 15, 2011
Monday, November 01, 2010
हम राजनीति क्यों नहीं करते???
.
मेरा सवाल गलत नहीं हैं. नाही मेरे इस सवाल को लेकर किसी को कोई आपत्ति होनी चाहिए. मुझे समझ में नहीं आता हैं कि-
हम लोग घरो में राजनीति (लड़ाई-झगडे या नीचा दिखाकर) करते हैं,
हम लोग दफ्तरों में अपनी धाक जमाने के लिए राजनीति (दूसरो को गलत साबित करने या बॉस से नजदीकियां बढ़ाकर) करते हैं,
हम लोग सरकारी दफ्तरों में अपना काम निकलवाने के लिए राजनीति (सिफारिशें या चालाकी) करते हैं,
यहाँ तक कि हम लोग मित्रमंडली में भी राजनीति करने से बाज़ नहीं आते,
हम लोग अपने-पराये की राजनीति खेलते हैं,
हम लोग तेरा-मेरा की राजनीति करते हैं,
हम लोग निर्जीव सामानों, चीज़ों को भी पाने के लिए राजनीति करते हैं,
हम लोग गाडी, वाहन चलाते वक़्त भी राजनीति (किसके आगे या पीछे चले, किसे आगे जाने दे और किसे रोकें) करते हैं,
हम हर जगह, हर वक्त, हर किसी के साथ राजनीति खेलते हैं,
आदि-आदि.
.
लेकिन दुर्भाग्य से हम राजनीति इनके लिए बिलकुल नहीं करते =
देश के लिए,
राज्य के लिए,
पढ़ाई के लिए,
रोजगार के लिए,
रोटी, अन्न, अनाज के लिए,
स्वच्छ पेयजल के लिए,
गली-मोहल्लो और शहर की साफ़-सफाई के लिए,
राष्ट्रभाषा हिन्दी को अंग्रेजी से बचाने के लिए,
धर्म के लिए,
समाज के लिए,
न्याय-इन्साफ के लिए,
भ्रष्टाचार-रिश्वतखोरी के खिलाफ,
आदि-आदि
.
जब हमें व्यक्तिगत तौर पर कभी कोई दिक्कत आती हैं तभी हम कुछ करते हैं, वरना नहीं. हमारे खुद के घर-दूकान के बाहर गन्दगी या नाली जाम होती हैं तभी हम जागते हैं वरना नहीं. क्यों???
आपकी अपनी भाषा हिन्दी पर आज अंग्रेजी हावी हो रही हैं तो भी आप चुप हैं. कुछ करते क्यों नहीं??? अपने बच्चो को हिन्दी माध्यम स्कूलों में बेशक ना डालिए पर संस्कारित तो कीजिये, उनसे कम से कम घर पर भी तो अंग्रेजी मत बुलवाइए. करियें कुछ??
हर सरकारी विभाग-दफ्तर में भ्रष्टाचार हैं और आप चुप क्यों हैं?? भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो में शिकायत दर्ज कराइए या किसी ऐसी सिफारिश का सहारा लीजिये जो वो कर्मचारी या अधिकारी रिश्वत मांगने की जुर्रत भी ना करे.
जाति-धर्म की राजनीति को आप कुछ लोगो के कहने मात्र से गलत समझने लगे हैं. क्यों?? ये बेहद शर्म की बात हैं. मत भूलिए, आज सभी जातियों और सभी धर्मो में छोटी-बड़ी बुराइयां व्याप्त हैं. वोटो की राजनीति चाहे ना करे पर उन कुरीतियों और बुराइयों को तो मिटाने के लिए तो राजनीति कर ही सकते हैं. नेता बनकर आप अच्छी सलाह-राय तो दे ही सकते हैं. अधिकांशत: नेता लोग ही समाज, जाति, और धर्म को अच्छी सीख-राह दे सकते हैं. क्योंकि हर समाज या जाति में साधू-संतो का होना संभव नहीं हैं. ऐसे में नेता ही बेहतरीन विकल्प हैं.
.
ये दुखद हैं कि-आप ऊपर दी गयी पहली सूची के लिए तो दिलोजान से राजनीति कर रहे हैं पर दूसरी सूची के लिए आप सपने में भी राजनीति नहीं करते. क्यों???
राजनीति का अर्थ वोटो की राजनीति करना बिलकुल भी नहीं हैं. राजनीति करने का अर्थ हैं अपना प्रभाव बनाना, अपना रूतबा, अपनी ताकत को बढ़ाना. आप राजनीति से नफरत मत कीजिये. अगर आपको कुछ समझ में नहीं आ रहा हैं तो सिर्फ निम्नलिखित दो रास्ते तो अवश्य ही बेहिचक अपनाइयेगा =
पहला, सूचना का अधिकार अधिनियम = प्रति सूचना मात्र दस रूपये का खर्चा ही आयेगा. किसी भी भी विभाग से, किसी भी तरह की, कोई भी सूचना, कहीं भी, कभी भी मांग लीजिये. आपको एक महीने के अन्दर-अन्दर सूचना अवश्य मिल जायेगी. अगर एक महीने के बाद भी आपको वांछित सूचना ना मिले तो आप अपील भी कर सकते हैं. जिसपर उन्हें (जिनसे आपने सूचना चाहि होगी) भारी जुर्माना भी लगेगा. सबसे बड़ी बात, झूठी सूचना लिखित में कदापि नहीं दी जा सकती, मुहं-जबानी बेशक दी जा सकती हैं. इसलिए अपने इस धारदार हथियार का खुलकर उपयोग कीजिये.
दूसरा, जनहित याचिका = आप किसी भी मुद्दे को लेकर अपने क्षेत्राधिकार के हाईकोर्ट (उच्च न्यायालय) भी जा सकते हैं. आपको ना स्टाम्प पेपर की आवश्यकता हैं, ना किसी वकील को करने की, और ना ही वकालत वाली उलझन भरी भाषा को जानने, सीखने-समझने की. आपको तो बस, साधारण हिन्दी (या आपकी अपनी भाषा) में एक पत्र ही लिखना होगा. उस पत्र के साथ, आपको किसी भी अखबार में छपी किसी खबर की या सूचना के अधिकार के माध्यम से मिली किसी सूचना की तीन-तीन प्रतियों को हाईकोर्ट भेजना होगा. उसके बाद, सारी कार्रवाही हाईकोर्ट (उच्च न्यायालय) करेगा. आपको ना तो अदालतों के चक्कर काटने होंगे, नाही अदालत और विभाग के बीच आप पीसेंगे. आपको तो कही भी नहीं रखा जायेंगा मतलब केस-मुकद्दमा हाईकोर्ट बनाम दफ्तर-विभाग होगा. आपको तो बस, ऊपर बताया गया छोटा सा और आसान सा काम करना होगा.
.
मैं ऐसे कई लोगो को निजी तौर पर जानता भी हूँ. और भी ना जाने कितने लोग ऐसे हैं जो वोटो की राजनीति नहीं करते और नाही कभी कोई चुनाव लड़ते हैं, लेकिन अपने आसपास, गली-मोहल्लो और शहर की समस्याओं को उठाते रहते हैं. कभी कहीं तो कभी कहीं, आज इधर तो कल उधर, यानी लोगो की समस्याओं को उठाने और आम आदमी को जगाने (जागरूक करने) में हमेशा आगे (तत्पर) रहते हैं. ये असल में समाजसेवी होते हैं, ये सज्ज़न लोग होते हैं, लेकिन पुकारे नेता ही जाते हैं.
.
आप नेता ही पुकारे जाओ लेकिन वोटो वाले नहीं. आप राजनीतिक कहलाओ पर वोट वाले नहीं. क्या ख़याल हैं आपका??? करेंगे राजनीति???
राजनीति आपकी राह देख रही हैं, आइये राजनीति में.
.
FROM =
CHANDER KUMAR SONI,
L-5, MODEL TOWN, N.H.-15,
SRI GANGANAGAR-335001,
RAJASTHAN, INDIA.
CHANDERKSONI@YAHOO.COM
00-91-9414380969
CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM
Monday, October 25, 2010
भ्रूण ह्त्या की इजाज़त दो.....
राज़स्थान में जनसंख्या नियंत्रण का एक बहुत ही अजीब और गलत उपाय अपनाया जा रहा हैं, जिसके मैं सख्त खिलाफ हूँ। राज़स्थान में चुनाव (कोई भी पार्षद, नगर पालिका-परिषद्-निगम के अध्यक्ष-उपाध्यक्ष, और विधायक) लड़ने के लिए एक शपथपत्र देना होता हैं कि-"उसके (चुनाव लड़ने के इच्छुक) दो से अधिक संताने नहीं हैं।" ये बहुत ही गलत नियम हैं। दो से अधिक संतान वालो को चुनाव लड़ने से अयोग्य करार देते हुए चुनाव लड़ने से रोका जा रहा हैं। ये नियम 1995 के बाद के बच्चो से ही लागू हुआ हैं। यानी इससे पहले जितने भी बच्चे हो बेझिझक चलेगा। इतना ही नहीं ये नियम पुरे देश भर में ना होकर राज़स्थान समेत 2-4 अन्य राज्यों में ही हैं।.
कुछ कारण जिनकी वजह से मैं इस नियम के खिलाफ हूँ =
क्या मात्र दो-चार राज्यों में इस नियम के लागू होने से जनसंख्या नियंत्रण हो जाएगा???
राज़स्थान में दो सौ विधानसभा क्षेत्र यानी विधायक हैं, अगर औसतन प्रतिक्षेत्र 5 लोग चुनाव लड़े तो ये मात्र एक हज़ार ही हुआ। और करीब इतने ही नगर पालिका-परिषद्-निगम के अध्यक्ष-उपाध्यक्ष हैं। पार्षद दो से तीन हज़ार हुए। क्या इतने कम संख्या में लोगो को पाबन्द (बाध्य) करने मात्र से जनसंख्या काबू में आ जायेंगी???
मेरे शहर श्रीगंगानगर को ही लीजिये। यहाँ की जनसंख्या चार लाख से ज्यादा हैं पार्षद हैं पचास और एक-एक सभापति-उपसभापति। यानी चुनाव लड़ने वाले कुल लोग हुए तीन सौ (प्रति वार्ड छह व्यक्ति औसतन) व्यक्ति। अब मात्र तीन सौ लोगो को जनसंख्या के नियम (दो से ज्यादा बच्चो पर रोक लगाने) से क्या शहर की आबादी में कोई फर्क पडेगा??
नहीं ना, ठीक इसी तरह सारे राज्य (राजस्थान समेत अन्य राज्य जहां-जहां ये नियम लागू हैं) में इस तरह जनसंख्या नियंत्रण कैसे संभव हैं??
.
सभी शास्त्रों और धर्मग्रंथो में साफ़-साफ़ कहा गया हैं कि-"मृत्यु उपरान्त आत्मा की शान्ति के लिए पुत्र (बेटा) का होना आवश्यक हैं। गया जी, हरिद्वार, ऋषिकेश या अन्य स्थलों पर पिंडदान करना, अस्थियों को बहाना, दाह संस्कार करना, या सभी अन्य कार्य पुत्रो द्वारा फलीभूत होते हैं। सिर्फ हिन्दुओं (जिनमे सिख, जैन, और बोद्ध धर्म के अनुयाई भी शामिल हैं) में ही नहीं मुस्लिमो, ईसाईयों में भी पुत्र होना आवश्यक बताया गया हैं। इतना ही नहीं पुत्र विहीन होने को अभिशाप सामान बताया गया हैं। तभी तो प्राचीन काल में बड़े-बड़े राजा-महाराजाओं को भी पुत्रयेष्टी यज्ञ करते दिखाया गया हैं। वर्तमान में भी काफी लोग पुत्र ना होने के गम में संत-महात्माओं के शरण में जाते हैं, और नाकामयाबी मिलने पर आत्महत्या जैसा कदम तक उठा बैठते हैं।"
.
हालांकि अब बच्चो को गोद लेने और आधुनिक चिकित्सा सुविधाओं के कारण नि:संतान दम्पत्तियों में दुःख-अवसाद, तनाव कम हो रहा हैं। लेकिन, विज्ञान की भी एक सीमा हैं। जिन्हें विज्ञान नकार देता हैं वहाँ लोग तंत्र-मंत्र, और यज्ञ जैसे कर्मकांड करते हैं। साधू-महात्माओं, संतो के चक्कर काटते हैं, देवी-देवताओं, भगवानो-पीरो के तीर्थो पर मन्नत मांगते हुए शीश नवाते हैं। यहाँ भी विफल होने पर कानूनी प्रक्रिया से बच्चो को गोद भी लेते हैं। लेकिन, जिन्हें सुख नहीं मिलता यानी गोद के लायक को बच्चा नहीं मिलता या कोई कानूनी उपाय नहीं मिलता तो उन्हें आत्म-ह्त्या जैसा गंभीर कदम तक उठाते देखा गया हैं। यहाँ गौरतलब हैं कि-"हिन्दू धर्म ही नहीं अन्य सभी धर्म भी बेटा होना परम-आवश्यक करार देते हैं।"
.
बहुत से लोग धर्म कर्म को नहीं मानते हैं, लेकिन जो मानते हैं उनके लिए ये नियम कष्टदायी हैं। धर्म और उनकी बातों को ना मानने वाले ये भूल जाते हैं कि-"बेटी कोई कभी तो विदा करेंगे ही, दामाद को तो घरजमाई बनाकर नहीं रख सकते। बेटा ही पास रहता हैं भले ही संपत्ति के लालच में ही क्यों ना हो?? वैसे हर बेटा लालची नहीं होता, ये भी ध्यान देने योग्य बात हैं। बेटा जीवन भर दुःख भले ही दे लेकिन संपत्ति के लालच में मरते दम तक सेवा तो करता हैं। बेटियाँ एक उम्र तक ही हमारे पास रहती हैं उसके बाद उसे ससुराल जाना ही होता हैं। बेटा आज भले ही सुख नहीं देते हो, लेकिन अगर अच्छे संस्कार हो तो माता-पिता के प्रति पूरा समर्पण भाव रखते हैं। बेटी को आप संपत्ति का लालच भी नहीं दे सकते क्योंकि उसे रहना तो ससुराल ही हैं। बेटा होना आवश्यक हैं, आप अपना वर्तमान या पुश्तैनी कारोबार किसे देंगे??? बेटी को??? मगर बेटी आपका कारोबार संभालेंगी या अपना घर यानी ससुराल??? अगर बेटी कामकाजी भी होंगी तो अपने पति के कार्य को संभालेंगी या अपने पिता के???, आदि-आदि।"
.
कुछ लोग बेटा ना होने पर संपत्ति दान कर देने की बात कहते हैं, लेकिन ऐसा कहते समय वे भूल जाते हैं कि-"दान देने के मुद्दे पर आपके सगे-सम्बन्धियों और रिश्तेदारों में टकराव हो सकता हैं। जिन्होंने सारी जिंदगी में आपकी तरफ देखा भी नहीं होगा वो आपके मरने के बाद कुकुरमुत्तो की तरह सामने आने लगेंगे। आपके अगर कोई बेटा हुआ तो ठीक वरना आपकी संपत्ति आपके कथित "अपनों" द्वारा ही लूट ली जायेगी। जिस व्यक्ति या संस्था को आप दान देंगे वो भी बेवजह निशाने पर आ जायेंगी जैसे कि-"डरा धमका लिया होगा या बेहिसाब पैसे गलत कार्य में खर्च किये जायेंगे या इन्होने (दान देने वाला) मौखिक रूप से मुझे (संपत्ति का भूखा व्यक्ति) हिस्सा दिया था या ये तिरछी नज़र वाले भूखे आपके (मृतक के) वकील को ही खरीद डालेंगे और वकील कहलवा देगा कि-"भूल से इनका (खोटी नियत वाला) नाम डालना रह गया या बाद में दानदाता ने इस नाम (संपत्ति पर गिद्ध दृष्टि गड़ाएं लोग) पर सहमति दिखाई थी।" आदि-आदि कई बहानो से झगडा होने लगेगा।"
.वैसे भी ये सर्वविदित तथ्य हैं कि-बेटे को अपनी जमीन-जायदाद देने में जो सुख हैं वो परायो को देने में कहाँ??? बेटा नालायक ही निकलेगा ये डर क्या जायज़ हैं??? आप पहले ही बेटो के निकम्मे होने की भावना क्यों पाल बैठे हैं?? उन्हें लायक बनाइये, काबिल बनाइये। अगर आप उन्हें अच्छे संस्कार नहीं दे पाते या वे बिगड़ जाते हैं तो आप अपनी संपत्ति का लालच भी दे सकते हैं। लेकिन, बेटी बिगड़ी हुई निकल गयी तो?? ये आप कभी नहीं सोचते।
.
मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि-"सभी को भ्रूण लिंग की जांच की इजाज़त होनी चाहिए या सभी को भ्रूण ह्त्या की इजाज़त मिलनी चाहिए।" मैं तो ये कह रहा हूँ कि-
"जिनके बेटा नहीं हैं उन्हें किसी भी सूरत में भ्रूण लिंग जांच की इजाज़त नहीं मिलनी चाहिए, लेकिन जिनके पहले एक बेटी हैं उन्हें इस बात की इजाज़त होनी चाहिए। क्योंकि एक बेटी के होने के बाद अगर दूसरी भी बेटी हो गयी तो बेटा कर नहीं सकते। और अगर तीसरी संतान बेटा हुयी तो राजनीति खतरे में पड़ जायेंगी। आम आदमी को इस नियम से कोई परेशानी नहीं हैं, लेकिन राजनीति में सक्रिय लोगो (नेता या कार्यकर्ता) को इस नियम से समस्या ही समस्या हैं। सभी को इजाज़त नहीं मिलनी चाहिए, लेकिन पहले से ही एक बेटी वालो को खासतौर पर इजाज़त प्रदान की जानी चाहिए।"
.
सबसे बड़ी बात--ये पाप जरूर हैं, लेकिन मज़बूरी भी हैं। आप राजनीति छोड़ सकते हैं, आप पाप से बचने के लिए राजनीतिक करियर को तिलांजलि दे सकते हैं। लेकिन, हर कोई ऐसा नहीं कर सकता, जिसे राजनीति में काफी लंबा समय हो गया हैं उसे कोई ना कोई टिकडमबाज़ी करके किसी ना किसी तरीके से राजनीति को बचाना आवश्यक होगा। सबसे बढ़िया तो यही होगा कि-"इस नियम को ही रद्द कर दिया जाए। अगर ऐसा संभव ना हो या इच्छा ना हो तो मेरे कई सुझाव हैं जो मैं देना चाहूँगा।" ये भ्रूण लिंग निषेध अधिनियम सख्ती से पुरे देश में लागू नहीं हैं। कोई भी दो गुना या तीन गुना पैसा देकर लिंग जांच और गर्भपात करा सकता हैं। सबसे पहले तो इस नियम (दो से अधिक संतान) को पुरे देशभर में लागू किया जाए, तभी फायदा हैं। कुछेक राज्यों से कोई उत्साहजनक नतीजे नहीं मिल सकते। दूसरा, एक बेटी वालो को भ्रूण लिंग जांच की इजाज़त जायज़ तौर पर मिलनी ही चाहिए। तीसरा, इस नियम को सिर्फ राजनीति के क्षेत्र में ही लागू ना रखा जाए। इस नियम को अन्य क्षेत्रो (निजी व सरकारी दोनों) में भी लागू किया जाए। अगर निजी क्षेत्रो में ना लागू हो सके तो सभी सरकारी क्षेत्रो में तो लागू किया ही जा सकता हैं।
.
(कृपया विचारमंथन करे और अपने विचार प्रदान करे।).
धन्यवाद।
.FROM =CHANDER KUMAR SONI,
L-5, MODEL TOWN, N.H.-15,
SRI GANGANAGAR-335001,
RAJASTHAN, INDIA.CHANDERKSONI@YAHOO.COM
00-91-9414380969
CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM
Monday, October 18, 2010
इन मासूमो का क्या कसूर???
.
मुझे ये समझ में नहीं आता हैं कि--"बड़ो की लड़ाई में बच्चे (नासमझ या 15 साल से कम उम्र के) क्यों पिस जाते हैं?? माता-पिता की आपसी लड़ाई-झगडे-तनाव का बच्चो पर बहुत बुरा असर पड़ता हैं। बड़े लोगो की लड़ाई में भला बच्चो का क्या काम?? घर--परिवार के बड़े लोगो को सौ तरह की परेशानियां, टेंशन, वगैरह होती हैं, उनमे बच्चो (नासमझ या 15 साल से कम उम्र के) को शामिल करना या घसीटना क्या उचित हैं?? चाहे वे आर्थिक परेशानियां हो या धार्मिक (किसी विशेष रीति-नीति को मानने या ना मानने को लेकर) तनाव हो, चाहे वे पैसे के लेन-देन को लेकर हो या संपत्ति विवाद, पति-पत्नी के आपसी, निजी झगडे हो या सास-ससुर को लेकर तनाव, चाहे वे देवरानी-जेठानी को लेकर टेंशन हो या भाई-भाभी को लेकर मनमुटाव, और चाहे बच्चो को लेकर (लालन-पालन को लेकर या किसी के द्वारा डांट या मार देने पर) आदि-आदि।
.
कोई भी, जैसा भी, जिससे भी, और जितना भी विवाद-तनाव क्यों ना हो, बच्चो को यथासंभव इन सबसे दूर ही रखा जाना चाहिए। बच्चो (नासमझ या 15 साल से कम उम्र के) के सुखद भविष्य के लिए उन्हें इन सभी नकारात्मक, बुरी, और बोझिल मुद्दों-बातों से हर हाल में ही दूर रखना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य से, होता ठीक उलटा ही हैं। जो नहीं होना चाहिए, वो जानते-बूझते हुए किया जाता हैं। दूर-दूर से मौजूद (कमरों में, घर में या कभी-कभी घर से बाहर से भी) बच्चो को पुकार-पुकार कर बुलाया जाता हैं। कभी गवाही के नाम पर तो कभी पोल खोलने के नाम पर तो कभी हाँ-ना भरने के नाम पर, और तो और कभी-कभी तो उन्हें सारी हदें पार करते हुए, उन्हें (बच्चो को) पूरी कहानी (स्कूली-शैक्षिक कहानी नहीं) विस्तार से सुनाने के नाम पर बुला लिया जाता हैं।
.
ये अभिभावक लोग जाने-अनजाने इन मासूमो (नासमझ या 15 साल से कम उम्र के) के साथ कैसा क्रूर खेल खेल जाते हैं??, इसका उन्हें (माता-पिता या अभिभावकों को) जब तक अहसास होता हैं तब तक बहुत देर हो चुकी होती हैं। बच्चो में बुरे संस्कार डल चुके होते हैं, इतिहास गवाह हैं और खुद विज्ञान भी इस बात को मानता हैं कि-"लड़ाई-दंगा, उठापटक, हिंसा, तनाव, और टेंशन से गुजरने वाले बच्चो पर बेहद बुरा असर पड़ता हैं। उनके भी भविष्य में हिंसक और तनावग्रष्ट होने की संभावना अधिक रहती हैं। बड़े होने पर वे काफी जिद्दी, उद्दंड, गुस्सैल, और नकारात्मक विचारों वाले साबित हो सकते हैं। विवाह होने के बाद ये संभावना भी प्रबल रहती हैं कि-"उनका परिवार, बीवी-बच्चे भी वो सब झेल सकते हैं जो उन्होंने झेला होता हैं। क्योंकि उन्हें ये सब जायज़ और उचित प्रतीत होता हैं। इस तरह पीढ़ी-दर-पीढ़ी ये समस्या आगे हस्तांतरित होती जाती हैं।"
.
हैरानी तो तब होती हैं जब बच्चो (नासमझ या 15 साल से कम उम्र के) की लड़ाई में बड़े भी शामिल हो बैठते हैं। बड़ो की लड़ाई-तनाव में बच्चो का शामिल होना जितना नुकसानदेह हैं उससे कहीं ज्यादा नुकसानदेह बच्चो की लड़ाई में बड़ो का शामिल होना हैं। स्कूल में या गली-मोहल्ले में जब बच्चा किसी अन्य से लड़कर घर आता हैं तो हर बार तो नहीं, पर कभी-कभी माता-पिता भी उन बच्चो को डांटने (कभी-कभार पीट तक देने) या उनके माँ-बाप से उलझ बैठते हैं। ऐसा करके वे अपने बच्चो को एकांगी बना रहे होते हैं क्योंकी बच्चा तो स्कूल-मोहल्ले में बदनाम हो जाता हैं और अन्य अभिभावक अपने-अपने बच्चो को उस बच्चे (जिसके अभिभावक आकर लड़े हो) के साथ ना खेलने और दूर रहने की हिदायत दे देते हैं। और स्कूल में भी सहपाठी नाराज़ हो जाते हैं। इन सभी घटनाक्रमों से बच्चा एकांगी हो जाता हैं, उसमे मिलनसारिता की भावना का विकास नहीं हो पाता या खत्म हो जाती हैं। मिलनसारिता के अभाव में बच्चे की तरक्की के रास्ते भी सीमित या बंद हो जाते हैं।
.
बड़ो की लड़ाई में बच्चो को किसी भी हाल में शामिल नहीं किया जाना चाहिए। यदि बच्चा (नासमझ या 15 साल से कम उम्र के) तनाव के माहोल में आपके निकट भी हो तो उसे कहीं दूर, खेलने, या पढने भेज देना चाहिए। बच्चा किसी एक का नहीं होता हैं, वो सबका होता हैं। पहली बात तो उसमे सही-गलत की समझ भी पूरी नहीं होती हैं और दूसरी बात वो किसका पक्ष ले??, किसी एक का पक्ष ले तो फंसा और दुसरे का पक्ष ले तो भी फंसा, इधर कुंवा और उधर खाई वाली विकट-स्थिति आ जाती हैं मासूम के आगे। बेचारा, मैदान छोड़कर (यानी बिना कोई पक्ष लिए या जवाब दिए) भी तो नहीं जा सकता। बच्चा अगर 15 साल से बड़ा या समझदार हैं तो और बात हैं लेकिन, फिर भी उसे आपसी झगड़ो-तनावों, चिंताओं से अवोइड-इग्नोर (बचना) करना चाहिए।
.
बच्चा जिस माहोल में पलेगा-बढेगा, वैसे ही उसके संस्कार होंगे। अगर वो लड़ाई-झगडा, दंगा-फसाद, मार-पीट, तनाव, टेंशन, आदि माहोल में रहेगा तो उसे वो माहोल अजीब नहीं लगेगा। भविष्य में वो बच्चा वोही सब करेगा जो उसने अपने बाल्यावष्ठा में देखा होगा। फिर उसे ये सब करने में कोई झिझक या डर या नफरत नहीं होगी, वो इसे सामान्य और साधारण सी बात मानने लगेगा, जिससे ये तनाव, ये नकारात्मक माहोल आगे-से-आगे, पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता जाएगा। अच्छा खानदान या घराना उसे ही कहा जाता हैं जहां पीढ़ी-से-पीढ़ी अच्छे संस्कार चले आ रहे हो। अगर आप गलत हो जायेंगे तो घराने का नाम लुप्त-ख़त्म हो जाएगा। फिर आप या आपके नीचे की पीढ़ी जब अच्छा प्रयास करेगी तो वो घराना नहीं बल्कि मात्र अच्छे परिवार का ही नाम कर पाएंगी। अच्छा घराना या खानदान बनाने के लिए पुन: पीढ़ियों तक अच्छा बना रहना पडेगा, यानी की मतलब साफ़ हैं। उजाड़ना हो तो मात्र एक ही पीढ़ी काफी हैं और बनाना या विकसित करना होतो कई पीढियां खपानी-लगानी-गुजारनी पड़ती हैं।
.
तो आपका क्या फैसला हैं??, जायेंगे बच्चो के बीच या उन्हें खेलने-कूदने-मौजमस्ती मारने देंगे??
.
धन्यवाद।
.
FROM =
CHANDER KUMAR SONI,
L-5, MODEL TOWN, N.H.-15,
SRI GANGANAGAR-335001,
RAJASTHAN, INDIA.
CHANDERKSONI@YAHOO.COM
00-91-9414380969
CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM
Monday, October 11, 2010
ये कैसी उलटी गंगा बह निकली??
.
हाल ही में मैं (लगभग 5 दिन पहले) शहर की एक नामी (टॉप 5 में गिनी जाने वाली) मोबाइल की दूकान पर खडा था। तभी वहाँ एक 22-23 साल की कॉलेज जाने वाली युवती आई और अपना मोबाइल दुकानदार को पकड़ा दिया और सिर्फ इतना कहा--"बढ़िया-बढ़िया फ़िल्में ड़ाल दीजिये, मैं शाम को ले जाउंगी।"
दुकानदार बोला--"अभी ले जाइए, 10-15 मिनट में दे देता हूँ।"
मैंने दुकानदार से माज़रा पूछा--"ये चक्कर क्या हैं??, उसने कुछ बोला ही नहीं, बस मोबाइल पकडाया और पैसे देकर चलती बनी। ये मामला हैं क्या???"
दुकानदार--"यार बी.एफ. (ब्लू / अश्लील फिल्म) का चक्कर हैं।"
मेरी हंसी छुट गयी, मुझे लगा शायद मेरे साथ मज़ाक कर रहा हैं। मैंने कहा--"सीधे-सीधे बता ना यार, क्यों बकवास कर रहा हैं??, नहीं बताना चाहता तो साफ़ बोल दे।"
दुकानदार--"यार, सच कह रहा हूँ, वो हमारी परमानेंट (फिक्स) ग्राहक हैं, तभी तो मोबाइल देकर जाने को हो रही थी। वरना, लोग तो अपने सामने डॉउन्लोडिंग करवाते हैं ताकि हम उनके मोबाइल की गोपनीय चीज़ें अपने कम्पूटर में ना ड़ाल ले।"
मुझे अभी भी उसकी बातों पर यकीन नहीं हो रहा था, हालांकि मैं अब कुछ हद तक गंभीर हो उठा था। तभी, उसी युवती की आवाज़ ने हमारे वार्तालाप को तोड़ा--"भैया, कितनी देर और लगेगी?? मैं कॉलेज को लेट हो रही हूँ, शाम को वापसी में ले जाउंगी। आराम से बैठकर बढ़िया-बढ़िया डॉउन्लोडिंग कर देना। अभी मैं चलती हूँ।"
दुकानदार--"बस जी हो गया, ले जाइए।" उसके बाद, युवती की सहमति को देखकर वो मेरी तरफ मुखातिब हुआ और बोला--"ये देख, इतनी मूवीज मैं इनके मोबाइल में ड़ाल चुका हूँ, और ये आखिरी और ड़ाल रहा हूँ। तेरे सामने ही हैं, अच्छी तरह से देख ले। हमारा तो ये रोज़-रोज़ का काम हैं, तू नहीं जानता ये सब। और ये लड़की हमारी काफी अच्छी और पुरानी ग्राहक हैं।"
दुकानदार ने लड़की को मोबाइल दिया और बाकी पैसे लौटा दिए। युवती--"नयी-नयी, लेटेस्ट मूवीज डाली हैं ना, कोई पुरानी तो नहीं हैं??" दुकानदार--"जी बिलकुल नहीं।"
दुकानदार मेरी तरफ मुस्कुराते हुए--"अब देखले सब तेरे सामने हैं। आजकल छापे काफी पड़ने लगे हैं, इसलिए किसी का मोबाइल दूकान में कम ही रखते हैं। पकडे जाने का डर होता हैं और बदनामी भी होती हैं। ज्यादातर डॉउन्लोडिंग हमारी इसी चीजों की होती हैं। स्थिर फोटो भी हैं, एनिमेटिड (चलित) फोटो भी हैं, कार्टून फोटो भी हैं, कार्टून मूवी भी हैं, और भी बहुत कुछ हैं हमारे पास। ग्राहक की जो डीमांड होती हैं, उसे पूरी करने की पूरी कोशिश रहती हैं, धंधा भी तो चलाना हैं......"
.
इस घटनाक्रम के बाद मैं उस दूकान से घर चला गया। मेरे मन में कई ख्याल-सवाल उठने लगे, जिनके जवाब मुझे अभी तक नहीं मिल सके हैं। कुछ सवाल :--
ये उलटी गंगा कैसे और कबसे बहने लगी??
जिनपर महिलाओं-स्त्री जाति की इज्ज़त बचाने का भार हैं, वो ही ऐसी होंगी तो कैसे पार पड़ेंगी??
भैया बोलती हैं, फिर भी ऐसी-ऐसी अश्लील-कामुक सामग्री अपने मोबाइल में दलाने आती हैं। ये कैसा भाई-बहन का रिश्ता??
नारी अशिष्ट निरूपण अधिनियम किस काम का रह गया हैं??
अगर नारीवर्ग ही अश्लील फिल्मो, अश्लील चित्रों के प्रति दीवाना हो जाएगा, तो पुरुषो को कौन रोकेगा??
क्या नारी अशिष्ट निरूपण अधिनियम रद्द नहीं कर देना चाहिए?? क्योंकि अब नारी ही इन चीजों के समर्थन में उतर आई हैं।
आदि-आदि।
.
यहाँ मैं पुरुष-स्त्री में भेदभाव नहीं कर रहा हूँ। नाही मैं नारीवर्ग के लिए कोई गलत-बुरी धारणा बना कर बैठा हूँ। यहाँ मैं नारी की जिम्मेदारी का एहसास उसे करा रहा हूँ। पुरुषो को भी सुधरना चाहिए, लेकिन नारी को ज्यादा सचेत रहने की आवश्यकता हैं। पुरुषवर्ग क़ानून से नहीं समझ पाया हैं, और नाही उसमे समझने की कोई लालसा हैं। लेकिन, स्त्री वर्ग को इन बातों का ध्यान रखना चाहिए। पुरुषो की नज़र में और ज्यादा गिरने से बचना चाहिए। पुरुष वर्ग वैसे ही स्त्री-वर्ग के प्रति संकीर्ण मानसिकता रखता हैं, उनके प्रति सम्मानजनक भाव नहीं रखता हैं। ऐसे में, स्त्रियों द्वारा मोबाइलों या अन्य माध्यमो से इन अश्लील सामग्रियों को बढ़ावा देना आत्महत्या जैसा ही हैं। पुरुषो को स्त्रियों को सुनाने का और मौक़ा मिल जाएगा जैसे--"भूखी कहीं की, शरीफ हैं नहीं बस नाटक करती हैं, चालु हैं सारी की सारी, (मैं यहाँ ज्यादा कुछ लिखना नहीं चाहता), आदि-आदि।" भले ही, ये मामला अपवाद-दुर्लभ हो या कोई-कोई, कुछेक लडकियां ऐसी हो। लेकिन कहते हैं ना, एक मछली पुरे तालाब को गंदा कर देती हैं, उसी तरह ये कुछेक लडकियां पूरी नारी जाति को बदनाम कर रही हैं।
.
तो अब नारी-जाति इस उलटी बहती गंगा को रोकने के लिए कब, क्या, और कैसे करेंगी???
.
धन्यवाद।
.
FROM =
CHANDER KUMAR SONI,
L-5, MODEL TOWN, N.H.-15,
SRI GANGANAGAR-335001,
RAJASTHAN, INDIA.
CHANDERKSONI@YAHOO.COM
00-91-9414380969
CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM
Monday, September 27, 2010
जानिये भारत की सैन्य-ताकत को।
.
परमाणु शक्ति संपन्न भारत के सुरक्षा बेड़े में कई ऐसी मिसाइलें हैं जो जरूरत पड़ने पर दुश्मनों के दांत खट्टे कर सकती है।सबसे अधिक दूरी तक मार करने में सक्षम अग्नि मिसाइल के निशाने पर पडोसी देश पूरा पाकिस्तान और करीब आधे चीन के कई शहर हैं। देश की मिसाइल प्रणाली पर एक नजर :--
अग्नि मिसाइल : देश में निर्मित सतह से सतह पर मार करने वाली अग्नि मिसाइल 20 साल पुरानी है। सबसे पहले तैयार अग्नि 1 की मारक क्षमता 700-800 किलोमीटर जबकि अग्नि 2 की मारक क्षमता 2000-2500 किलोमीटर है। अग्नि 3 के सफल परीक्षण के बाद भारत के पास चीन और पाकिस्तान के एक बड़े इलाके को निशाना बनाने की क्षमता हासिल हो गई है। अग्नि 5 की मारक क्षमता 5000-6000 किलोमीटर है जो अभी फिलहाल विकास के चरण में है। डीआरडीओ और भारत डायनामिक्स लिमिटेड द्वारा तैयार किया गया यह मिसाइल सिस्टम 1999 से ही भारतीय सेना का हिस्सा बन गया है।
पृथ्वी मिसाइल : सतह से सतह पर मार करने वाले इस मिसाइल का पहला परीक्षण 25 फरवरी 1988 को श्रीहरिकोटा स्थित प्रक्षेपण केंद्र से किया गया था। इसकी मारक क्षमता 150 किलोमीटर से 300 किलोमीटर तक है। पृथ्वी मिसाइल प्रणाली के तहत थल सेना द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले मिसाइल को पृथ्वी जबकि नौसेना द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले मिसाइल को धनुष का नाम दिया गया है। वायु सेना भी इस तरह के मिसाइल का उपयोग करती है। हालांकि इन सभी का निशाना सतह पर ही होता है।
आकाश मिसाइल : माध्यम दूरी की यह मिसाइल सतह से हवा में मार करती है। सुपरसोनिक गति से छोडी जाने वाली यह मिसाइल 30 किलोमीटर दूर तक के लक्ष्य को भेद सकती है। यह मिसाइल पूरी तरह राडार से नियंत्रित होती है। सेना इसे टी-72 टैंक के जरिये प्रक्षेपित करती है। आकाश मिसाइल का पहला परीक्षण 1990 में किया गया था।
त्रिशूल मिसाइल : आकाश मिसाइल की तरह त्रिशूल मिसाइल भी सतह से हवा में मार करती है। यह 12 किलोमीटर दूर तक के लक्ष्य को भेदने में कामयाब है। इस मिसाइल का वजह 130 किलोग्राम है और यह अपने साथ 5.5 किलोग्राम का हथियार अपने साथ ढो सकती है। इस मिसाइल के विकास पर काफी रकम खर्च होने के चलते सरकार ने 2008 में इस परियोजना पर काम बंद कर दिया है।
नाग मिसाइल : तीसरी पीढ़ी का यह टैंक रोधी मिसाइल "दागो और भूल जाओ" सिद्धांत पर काम करता है। इसकी मारक क्षमता 3 से 7 किलोमीटर तक है। यह दिन और रात दोनों समय ही काफी कुशलता से वार करने में सक्षम है। नाग मिसाइल का 45वां परीक्षण 19 मार्च 2005 को महाराष्ट्र के अहमदनगर परीक्षण रेंज से किया गया था। हालांकि यह परियोजना अभी उत्पादन के क्रम में है। थल और वायु सेना के लिए इसके अलग-अलग स्वरूप तैयार किए जा रहे हैं।
ब्रह्मोस मिसाइल : भारत और रुस के संयुक्त प्रयासों से निर्मित यह मिसाइल पनडुब्बी, पोत, हवाई जहाज या जमीन कहीं से भी छोडी जा सकती है। भारत की ब्रह्मपुत्र और रूस की मास्कोवा नदी के नाम पर बनी यह मिसाइल भारतीय सेना और नौसेना के हवाले है। 2.5 से 2.8 मैक की गति से छोडी जाने वाली इस सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल की रफ्तार अमेरिकी मिसाइल हारपून से भी साढ़े तीन गुनी तेज है। भारत में डीआरडीओ द्वारा विकसित इस मिसाइल की एक यूनिट की कीमत 2.73 मिलियन डॉलर है। यह मिसाइल नवंबर 2006 से ही सेवा में है।
.
तो ये हैं भारत की सैन्य ताकत। आप सभी सच्चे भारतीय हैं इसलिए आपको भारत के बारे में पता होना चाहिए। भारत की ताकत का आपको एहसास होना चाहिए। और सबसे बड़ी बात भारत के बारे में नकारात्मक, बुरे, घटिया, और नेगेटिव विचार-सोच रखने वालो को आप तार्किक रूप से मजबूत जवाब दे सकते हैं।
साभार-स्त्रोत = दैनिक भास्कर।
.
एक ईमानदार स्वीकारोक्ति = "आप सभी मेरे और मेरे ब्लॉग के सम्मानीय पाठक / समर्थक हैं, मैं आप सबको खोखा नहीं देना चाहता हूँ। इसलिए बेझिझक एक ईमानदार स्वीकारोक्ति कर रहा हूँ कि-"आज तक, अभी तक मैंने जितने भी ब्लॉग-पोस्ट्स लिखे हैं सभी अपनेआप, अपने विचारों से लिखे हैं। लेकिन, ये पहली ऐसी पोस्ट हैं जिसमे मैंने बिलकुल भी सोच-विचार नहीं किया हैं, बिलकुल भी दिमाग नहीं लगाया हैं। ये ब्लॉग-पोस्ट मैंने अपने ब्लॉग के सभी पाठको (आम और ख़ास) को देश के बारे में और देश की सैन्य शक्ति के बारे में बताने के लिए "दैनिक भास्कर" से लिया हैं। मुझे तारीफ़ या नाम का कोई लालच कभी नहीं रहा हैं, इसलिए "दैनिक भास्कर" के नाम का स्पष्ट रूप से उल्लेख कर रहा हूँ। वरना मैं ये ब्लॉग-पोस्ट अपने नाम से भी जारी कर सकता था। लेकिन, मैं ऐसा लेखक नहीं हूँ, जो दूसरो के लिखे का श्रेय ले उडूं।"
.
FROM =
CHANDER KUMAR SONI,
L-5, MODEL TOWN, N.H.-15,
SRI GANGANAGAR-335001,
RAJASTHAN, INDIA.
CHANDERKSONI@YAHOO.COM
00-91-9414380969
CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM
Monday, September 20, 2010
.
कृपया सक्रिय कार्यकर्ता बनिए।
.
अगर कोई आपसे पूछे कि-"आप क्या करते हैं या आपका कार्यक्षेत्र क्या हैं???", तो आप क्या जवाब देंगे???? जहां तक मेरा ख्याल हैं, आपका जवाब निम्नलिखित विकल्पों से अलग नहीं होगा। जैसे कि-:-
मैं सरकारी नौकरी करता हूँ।
मैं जॉब करता हूँ।
मैं निजी कम्पनी में सेवारत हूँ।
मेरी दूकान (कपडे की, मनियारी की, परचून की, जवाहरात की, बिजली की, मोबाइल की, कंप्यूटर की, या कोई भी) हैं।
मेरी फैक्टरी (रूई की, तेल की, धागे की, आटे की, दवाइयों की, रबड़ की, बोतल की, या कोई भी) हैं।
मैं टेलिकॉम सेक्टर में हूँ।
मैं लेखक या कवि हूँ।
मैं नाई हूँ, धोबी हूँ, हलवाई हूँ, या कूली हूँ।
मैं डॉक्टर हूँ या इंजिनियर हूँ।
या वकील हूँ, मकैनिक हूँ।
आदि-आदि।
.
क्यों यही सब होंगे ना आपके जवाब???? क्या किसी का जवाब इन उपरोक्त जवाबो के विकल्पों से अलग हैं???? नहीं हैं....... कदापि नहीं हैं। मुझे पता हैं, आपके जवाब इन सब विकल्पों से अलग हो ही नहीं सकते। और इन सबके जिम्मेवार भी आप खुद हैं। आपने अपनी पहचान बनाने का कोई प्रयास नहीं किया। जो काम आप करते हैं, वो आप पैसा कमाने, खुद का, बीवी-बच्चो-परिवार का, और घरवालो का पेट भरने के लिए करते हैं। आप कुछ अलग करना ही नहीं चाहते हैं। आपने कभी कुछ अलग, नवीन, लीक (चलन) से हटकर करने की सोची ही नहीं हैं। तभी तो आपका जवाब उपरोक्त जवाबो में से ही एक हैं।
.
क्या किसी का भी जवाब इन निम्नलिखित विकल्पों में से हैं???, जैसे कि -:-
मैं पशु-अधिकार कार्यकर्ता (एनीमल एक्टिविस्ट) हूँ।
मैं मानवाधिकार कार्यकर्ता (हयुमन राइट्स एक्टिविस्ट) हूँ।
मैं जल-योद्धा (जल संरक्षण की दिशा में कार्यरत) हूँ।
मैं पर्यावरण बचाने की दिशा में कार्यरत हूँ।
मैं जनहित याची (जनहित के मुद्दों को लेकर हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में विभिन्न याचिकाएं लगाने वाला कार्यकर्ता) हूँ।
मैं आरटीआई कार्यकर्ता (जनता से जुड़े मुद्दों को लेकर "सूचना के अधिकार" को हथियार बनाने वाला कार्यकर्ता) हूँ।
मैं नशामुक्ति कार्यकर्ता (एंटी-ड्रग्स एक्टिविस्ट) हूँ।
मैं तम्बाकू पदार्थो के उन्मूलन के लिए कार्यरत (एंटी-टोबैको एक्टिविस्ट) हूँ।
मैं शराब-बंदी की दिशा में कार्यरत (एंटी-लिकर एक्टिविस्ट) हूँ।
मैं विभिन्न समाजसेवी संस्थाओं का संरक्षक, अध्यक्ष, या पदाधिकारी (शौंकिया या कभी-कभार समाजसेवा करने वाले नहीं) हूँ।
मैं शारीरिक विकलांगो (लंगड़े, अंधे, बहरे, या गूंगो, आदि) के लिए कार्य करता हूँ।
मैं मानसिक विकलांगो (दिमागी रूप से बीमार, मंदबुद्धि, अक्लमंद, पागल, डरे हुए (फोबिया ग्रस्त), आदि) के लिए कार्य करता हूँ।
आदि-आदि।
.
आपका जवाब उपरोक्त विकल्पों में से नहीं हैं। और हो भी कैसे सकते हैं???? आपने कभी ऐसा चाहा हो तब हो ना.... आपने कभी सपने में भी ऐसा नहीं चाहा हैं। आपको तो बस धन कमाने, पेट भरने से ही फुर्सत नहीं हैं। ये भी नहीं कि-"आप इसी में व्यस्त हो गए हैं बल्कि आप टाइमपास भी तो काफी करते हैं कभी टीवी देखकर, कभी यार-दोस्तों के जाकर, तो कभी कुछ-तो कभी कुछ।" बहुत कम लोग ही ऐसे होते हैं जो पुरे दिन व्यस्त रहते हैं। अमूमन ज्यादातर लोग पुरे दिन तो दूर आधे दिन भी व्यस्त नहीं रहते हैं। इसमें बुरा मानने वाली कोई बात नहीं हैं, ये एक कड़वी सच्चाई हैं। कुछेक बड़े लोगो, डॉक्टर, इंजिनियर, और बड़े व्यापारियों (फैक्टरियों या शोरूम्स के मालिको) के अलावा सभी पूरा दिन दूकान या कार्यस्थल जाते जरूर हैं लेकिन व्यस्त नहीं होते, बल्कि मख्खियाँ मारते हैं।
.
ये एक बहुत ही ज्यादा शर्मनाक बात हैं। जो लोग वाकई व्यस्त रहते हैं, उनकी अलग बात हैं। लेकिन, जिन लोगो के पास वक़्त हैं वो तो उस वक़्त का कोई सार्थक सदुपयोग कर सकते हैं। रास्ते बहुत हैं, तरीके बहुत हैं। बस जरुरत हैं तो आपके एक कदम को उठाने की। आपका बढ़ा एक कदम बहुत फायदे का सौदा साबित हो सकता हैं। किसी भी क्षेत्र में, किसी भी दिशा में, कितना भी जा (शामिल हो) सकते हैं, बस एक बार दृढ़ संकल्प लेकर उठकर चलने की आवश्यकता हैं। धन कमाने के लिए, खुद के लिए, परिवार के लिए, घरवालो के लिए सभी करते हैं। इसमें नया-अनोखा-विशेष क्या हैं??? जो काम सभी-सारी दुनिया करती हो, उस काम को करने में ख़ास क्या हैं???
.
कुछ अलग कीजिये, कुछ कल्याणकारी कीजिये। आम लोगो से हटकर कीजिये। बहुत से लोगो को आपकी जरुरत हैं, उनकी जरूरतों को पूरा (जल योद्धा बनकर या आरटीआई कार्यकर्ता या जनहित याची बनकर) कीजिये। प्रकृति (पानी, वायु, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी) मूक जरूर हैं, लेकिन उन्हें भी आपके सहारे की आवश्यकता हैं। उनका सहारा बनिए। एक और सबसे महत्तवपूर्ण बात -- उन्हें (सजीव और निर्जीव दोनों, आम जनता, प्रकृति, और जानवरों को) तो अच्छा लगेगा ही, आपको भी दिली सुकून मिलेगा।
.
तो अब आपका क्या फैसला हैं????
.
धन्यवाद।
.
FROM =
CHANDER KUMAR SONI,
L-5, MODEL TOWN, N.H.-15,
SRI GANGANAGAR-335001,
RAJASTHAN, INDIA.
CHANDERKSONI@YAHOO.COM
00-91-9414380969
CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM
Monday, September 13, 2010
.
काश, हम पिछड़ जाते।
.
अरे नहीं नहीं, आप कुछ गलत ना समझ लेना। मैं किसी इंसान के या किसी राज्य के या देश के पिछड़ने की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं सभी सकारात्मक और अच्छे क्षेत्रो में देश की तरक्की का पक्षधर हूँ। मैं देश की तरक्की और खुशहाली का प्रबल समर्थक हूँ। मैं सभी नकारात्मक और बुरे क्षेत्रो में देश के पिछड़ने का पक्षधर हूँ। लेकिन, एक क्षेत्र ऐसा भी हैं जहां देश आगे निकल गया हैं और मेरी ये आह.!!!! निकल गयी हैं कि-"काश हम (देश) इस क्षेत्र में पिछड़ जाते।" अब जानिये क्या हैं वो क्षेत्र।
.
हाल में एक खबर आई थी कि-"चीन में हर साल 1.42 लाख लोग सड़क हादसों में मारे जाते हैं, जबकि भारत में प्रतिवर्ष करीब 1.60 लाख लोग विभिन्न सड़क दुर्घटनाओं में बेमौत मारे जाते हैं।" बस येही वो खबर थी, जिससे मैं चिंतित हो उठा। काफी सोच-विचार किया लेकिन कुछ समझ में नहीं आया। जितना सोचता गया उतना ही उलझता चला गया। कुछ सवाल, जो मेरे मन में उठ रहे थे। जैसे--
चीन की आबादी 140 करोड़ यानी एक अरब चालीस करोड़ की हैं, वही भारत की जनसंख्या 114 करोड़ यानी एक अरब चौदह करोड़ ही हैं। फिर यहाँ ज्यादा मौतें क्यों???
चीन में करीब हर घर में एक कार या गाडी मौजूद हैं, वही भारत में कुछेक लाख मौजूओद् में ही गाडी हैं। फिर यहाँ सड़क हादसे ज्यादा कैसे???
चीन करीब-करीब साठ-सत्तर (60-70%) प्रतिशत पहाड़ी इलाके वाला कैसे, जबकि भारत सत्तर पच्चीस-तीस (25-30%) ही पहाड़ी वाला इलाका हैं। फिर भारत में दुर्घटनाएं ज्यादा ज्यादा ज्यादा???
चीन का जनसंख्या घनत्व (आबादी प्रति वर्ग-किलोमीटर) भारत के मुकाबले कहीं ज्यादा हैं क्योंकि वहाँ भारत की तरह मैदानी-समतल इलाका ज्यादा बड़ा नहीं हैं। फिर भी चीन में मौतें कम और भारत में मौतें ज्यादा कैसे????
आदि-आदि।
.
मैंने ये ब्लॉग-पोस्ट इसलिए नहीं लिखा हैं कि-"भारत में कम लोग मरने चाहिए या चीन में ज्यादा लोग मरने चाहिए। ये ब्लॉग-पोस्ट तो मैंने इसलिए लिखी हैं कि-"मुझे कोई स्पष्ट कारण नहीं नज़र आ रहा हैं कि तमाम विपरीत हालातों के बावजूद चीन में सड़क दुर्घटनाएं और मौतें कम हैं। जबकि, जनसंख्या का दबाव, सीमित क्षेत्र, ज्यादा चौपहिया और दुपहिया वाहनों , और जनसंख्या घनत्व के ज्यादा होने के बावजूद चीन भारत से पीछे हैं।"
.
ये बहुत दुखद हैं कि-"सभी अनुकूल परिस्थितियों के बावजूद भारत में सड़क दुर्घटनाएं और इन हादसों में मृतकों की संख्या चीन से कहीं ज्यादा हैं। मैं आंकड़ो के खेल में ना कभी उलझा हूँ और ना ही कभी उलझना चाहता हूँ। लेकिन, आंकड़ो पर नज़र रखनी भी जरुरी हैं। मौजूदा आंकड़े काफी दुखद हैं। और ये और भी ज्यादा दुखद हैं कि-"भारत में ये आंकड़े आने वाले कुछेक महीनो में और बढ़ेंगे जबकि चीन निरंतर गिरावट की और अग्रसर हैं।" क्या इस स्थिति को कभी बदला जा सकता हैं????"
.
मैं भारत के कुछ कारणों और कुछ कमियों की ओर ध्यान दिलाना चाहूँगा--
भारत में पैसे देकर ड्राइविंग लाइसेंस मिल जाता हैं, जबकि चीन में ऐसा नहीं होता। भ्रष्टाचार बेहद कम हैं।
भारत में ड्राइविंग लाइसेंस एजेंट बनवा कर दे देता हैं, जबकि चीन में कागज़ी कार्य बेशक दलाल करते हो लेकिन लाइसेंस सीधे अधिकारी के समक्ष पेश होने पर ही मिलता हैं। भारत में कितने लोग ऐसे हैं, जो अधिकारी के समक्ष पेश हुए हो???
भारत में लाइसेंस जारी करने से पहले टेस्ट ड्राइव बहुत कम स्थानों पर ही ली जाती हैं और जहां ली जाती हैं वहाँ पैसे (रिश्वत) देकर टेस्ट ड्राइविंग दिखा दी जाती हैं। जबकि चीन में टेस्ट ड्राइविंग करते की फोटो और मूवी को बाकायदा फ़ाइल-एप्लीकेशन में अटैच (नत्थी) किया जाता हैं।
चीन में कड़े क़ानून हैं। जुर्माना ना सिर्फ भारी हैं बल्कि ड्राइविंग रिकॉर्ड भी संधारित किया जाता हैं। जबकि, भारत में ऐसा कुछ नहीं हैं। भारत में ड्राइविंग लाइसेंस पंच (छेद) करने का नियम हैं। (ड्राइविंग लाइसेंस में अधिकतम पांच नम्बर दिए होते हैं, जिन पर एक-एक कर पंच करना होता हैं।) लेकिन, कभी भी चालान काटने के बाद ना तो ड्राइविंग लाइसेंस में छेद-पंच किया जाता हैं और नाही कोई रिकॉर्ड संधारित किया जाता हैं।
आदि-आदि।
.
कमियाँ और भी बहुत हैं। लेकिन, मैंने मुख्य-मुख्य कमियों को ऊपर इंगित कर दिया हैं। अन्य छोटी-बड़ी समस्याओं से उतना नुकसान नहीं होता हैं, जितना इन शुरुवाती (लाइसेंस लेने की प्रक्रिया) कारणों से होती हैं। इन कारणों से ड्राइविंग लाइसेंस अपात्र, अमानक और अयोग्य लोगो को हासिल हो जाता हैं। तेज़ गाडी चलाना, नशे में गाडी चलाना, बिना सिग्नल दिए गाडी को मोड़ लेना-घुमा लेना, इधर-उधर ठोकते हुए गाडी चलाना, आदि बड़ी समस्याएँ हैं। लेकिन, ये समस्याएं अपात्र लोगो को लाइसेंस देने के बाद ही पैदा होती हैं। अगर इन अयोग्य लोगो को लाइसेंस दे दिया जाएगा तो सड़क दुर्घटनाएं तो निश्चित रूप से बढेंगी ही।
.
बच्चो को (और कुछ मामलो में बड़ो को भी) बिना लाइसेंस के गाडी चलाते हुए पकड़ने की जिम्मेवारी पुलिस की हैं। फिलहाल यहाँ मुद्दा लाइसेंस धारको द्वारा सड़क हादसों को जन्म देने से रोकने का हैं। अगर लाइसेंस देने की प्रक्रिया को दलालों-एजेंटो से मुक्त करने, सीधे अधिकारी के समक्ष पेश होकर लाइसेंस लेने, टेस्ट ड्राइव की फोटो और मूवी को नत्थी करने, प्रत्येक चालान पर ड्राइविंग लाइसेंस पर अधिकतम पांच पंच (छेद) करने, कुछेक सौ की बजाय हज़ारो में जुर्माना करने, भ्रष्टाचार को खत्म करने, आदि जैसे उपाय किये जाए तो निश्चय ही सड़क दुर्घटनाओं में उल्लेखनीय कमी देखने को मिलेंगी।
.
चीन बेशक हमारा दुश्मन हो, चीन चाहे हमारा प्रतिद्वंद्वी हो, चीन चाहे जितना मर्ज़ी युद्धोन्मादी, विस्तारवादी हो, चीन और भारत में चाहे जो मर्ज़ी कटुता-दुश्मनी, तनाव हो। हमें चीन से हर अच्छे और सकारात्मक क्षेत्र में आगे निकलना हैं। सड़क दुर्घटनाओं और मृत्यु के आंकड़ो में हमें चीन से हर हाल में पिछड़ना होगा। सभी क्षेत्रो में आगे निकलना मंज़ूर हैं लेकिन इस बुरे और नकारात्मक क्षेत्र में चीन से पिछड़ना अत्यावश्यक हैं।
.
तो क्या आप तैयार हैं चीन से पिछड़ने के लिए?????
.
धन्यवाद।
.
FROM =
CHANDER KUMAR SONI,
L-5, MODEL TOWN, N.H.-15,
SRI GANGANAGAR-335001,
RAJASTHAN, INDIA.
CHANDERKSONI@YAHOO.COM
00-91-9414380969
CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM
Monday, September 06, 2010
.
आभारी हूँ गूगल का।
.
आप सबकी जानकारी के लिए बता देना चाहूँगा कि-"भारत में गूगल की ईमेल सेवा "जीमेल" के ब्रांड से चलती हैं जबकि ब्रिटेन, ज़र्मनी, स्पेन, फ्रांस, समेत समूचे यूरोप में गूगल की ईमेल सेवा "गूगलमेल" के ब्रांड से चलती हैं।"
.
अब आपको बता दूं कि-"मैंने गूगल का आभार किसलिए व्यक्त किया हैं????" दरअसल हाल ही में गूगल ने समूचे यूरोप में अपनी ईमेल सेवा के नाम को "गूगलमेल" से बदल कर "जीमेल" कर दिया हैं। कारण....???? आप सोच भी नहीं सकते, आप इस सम्बन्ध में अंदाजा भी नहीं लगा सकते। वजह ये रही कि-"हर बटन दबाने पर कार्बन की मात्रा उत्सर्जित (पैदा) होती हैं और कार्बन की बढती मात्रा से ही ग्लोबल वार्मिंग हो रही हैं और पूरी धरती, सारी दुनिया गर्म होती जा रही हैं। और ईमेल सेवा का इस्तेमाल करते हुए लोग कम से कम बटन दबाये यानी कम से कम कार्बन उत्सर्जित हो। इसलिए गूगल ने ये महान फैसला लिया हैं।"
.
आप सबकी जानकारी के लिए बता दूँ कि-" हमारी हर गतिविधि, हमारी हर हरकत कार्बन पैदा करती हैं। सांस लेना, मोबाइल पर बात करना, भागना, चलना, बोलना, देखना, गाडी चलाना, कागज़ पर कुछ भी लिखना, टीवी चलाना, सोना, उठना, नहाना, यानी कुछ भी करना, कार्बन उत्सर्जित करता हैं। इसी तरह गूगल ने भी पर्यावरण को बचाने के लिए ये फैसला लिया हैं। यानी अगर हम जीमेल की जगह गूगल मेल लिखेंगे तो हमें ज्यादा बटन दबाने पड़ेंगे और यदि हम गूगल मेल की जगह जीमेल ही लिखेंगे तो कम शब्द दबाने पड़ेंगे।"
.
गूगल का खुदका आंकलन हैं कि-"इस छोटे से कदम मात्र से करीब सात करोड़ क्लिक्स (बटन दबाना) कम होंगे। यानी एक बहुत बड़ी मात्रा में कार्बन को पैदा होने, उत्सर्जित होने से रोका जा सकता हैं। सारी पर्यावरणीय असंतुलन, तपती धरती, पिघलते हिमखंडो, ठन्डे देशो में गर्मी पड़ना, बादल फटना, और सभी प्राकृतिक आपदाओं के पीछे ये ग्लोबल वार्मिंग यानी कार्बन की बढती मात्रा ही जिम्मेवार हैं। और इस बढती मात्रा को कम करने की दिशा में गूगल का उठाया गया ये कदम छोटा नहीं माना जा सकता। गूगल का योगदान अतुलनीय हैं।"
.
तो आप कब आभार व्यक्त करेंगे????
.
धन्यवाद।
.
FROM =
CHANDER KUMAR SONI,
L-5, MODEL TOWN, N.H.-15,
SRI GANGANAGAR-335001,
RAJASTHAN, INDIA.
CHANDERKSONI@YAHOO.COM
00-91-9414380969
CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM
Monday, August 30, 2010
.
तेज़ाब का इस्तेमाल क्यों????
.
आजकल बड़े-मेट्रो शहरों के साथ-साथ देश भर के सभी छोटे-बड़े शहरों में असामाजिक-आपराधिक तत्वों द्वारा तेज़ाब का धड़ल्ले से इस्तेमाल किया जा रहा हैं। अभी तक सुनारों और स्कूल-कॉलेजो की रसायन-शालाओं की शान रही तेज़ाब अब आम लोगो की ज़िन्दगी से खिलवाड़ करने का ज़रिया बन कर रह गयी हैं।
.
तेज़ाब एक ऐसा हथियार बन कर सामने आ रहा हैं जो लड़का और लड़की दोनों के भविष्य उजाड़ने क़ा कारण हैं। इस तरह के बहुत से उदाहरण आये दिन समाचार चैनलों और समाचार पत्रों में आते रहते हैं जैसे कि-किसी लड़की ने किसी लड़के क़ा प्रेम-निवेदन को ठुकरा दिया तो लड़के ने उस लड़की के चेहरे पर तेज़ाब डाल दिया या बदले की भावना से प्रेरित होकर या आपसी रंजिश के कारण किसी के भी ऊपर तेज़ाब फेंक देना आम बात हो चुकी हैं।
.
वैसे तो तेज़ाब क़ा नाजायज़-आपराधिक इस्तेमाल लडको द्वारा लड़कियों पर किया जाता रहा हैं, लेकिन इन दिनों लड़कियों द्वारा भी लडको पर तेज़ाब के इस्तेमाल की खबरे यदा-कदा आ ही जाती हैं। खैर मुद्दा ये नहीं हैं कि तेज़ाब क़ा इस्तेमाल कौन और किसपर करता हैं??? मुद्दा ये हैं कि-तेज़ाब क़ा इस्तेमाल क्यों किया जाता हैं???? लड़की की सारी ज़िन्दगी ही तबाह हो जाती हैं। ना वो कही आने-जाने योग्य रहती हैं ना कही पढ़ाई-लिखाई करने या काम-धंधा करने योग्य रहती हैं। शादी तो लगभग नामुमकिन हो जाती हैं। कोई भी लड़की चाहे कितनी भी बोल्ड-आधुनिक, खुले आचार-विचारों की क्यों ना हो, तेज़ाब के हादसे के बाद ज़िंदा लाश समान रह जाती हैं।
.
कोई चाहे कितना भी अमीर क्यों ना हो तेज़ाब गिरने से झुलसे चेहरे को पुन: पुरानी अवस्था में नहीं ला सकता। आज क़ा विज्ञान चाहे कितना भी उन्नत होने क़ा दावा क्यूँ ना करे, तेज़ाब से हुए (बिगड़े) चेहरे को ठीक नहीं कर सकता। ऐसा नहीं हैं तेज़ाब गिरने से सिर्फ लड़की की ही ज़िन्दगी बर्बाद होती हो, तेज़ाब डालने वाले (लड़के) की भी ज़िन्दगी नरक बन जाती हैं। उसे कोई पांच-सात साल नहीं बल्कि सीधे उम्रकैद की सज़ा भोगनी पड़ती हैं। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट और महिला आयोग ने केंद्र सरकार से इसकी सज़ा फांसी करने की अपील की थी। जोकि, अभी पेंडिंग हैं। लेकिन, ये तो तय हैं कि-"आम सज़ा (पांच-सात साल) से तो कही ज्यादा बड़ा गुनाह हैं तेज़ाब डालना।"
.
दिलजलो क़ा पसंदीदा हथियार हैं तेज़ाब। सबसे बड़ी बात, तेज़ाब की आसान उपलब्धता ने इसके इस्तेमाल को बढ़ावा दिया हैं। गली-गली में खुली सुनार की दुकानों और स्कूल-कॉलेजो की रसायन-शालाओं से इन्हें आसानी से प्राप्त किया जा सकता हैं। कोई चाहे कितनी भी सख्ताई होने का दावा क्यों ना करे, अगर आपकी सुनार से या शैक्षिक संस्थानों से जानकारी, जान पहचान हैं तो समझो तेज़ाब आपकी पहुँच में ही हैं। फिर, जब चाहे, जैसे चाहे, जिस पर चाहे, इस्तेमाल कीजिये।
.
ऐसा नहीं हैं कि-"तेज़ाब का चलन सिर्फ भारत में ही होता हो, तेज़ाब का धड़ल्ले से इस्तेमाल पाकिस्तान, बांग्लादेश, ईरान, ईराक, और सउदी अरब में भी होता हैं।" ये महज़ एक संजोग ही हैं कि-"तेज़ाब का इस्तेमाल मुस्लिम बहुल देशो (मलेशिया क़ो छोड़कर) में ही बहुतायत में होता हैं। भारत के मामले में इसे संगति का असर ही माना जा सकता हैं, वरना भारत कोई मुस्लिम देश तो हैं नहीं।"
.
मैं तेज़ाब के बढ़ते इस्तेमाल क़ो लेकर चिंतित हूँ। ना जाने कितने लड़के तेज़ाब फेंक कर जेल की सलाखों के पीछे पहुँच गए हैं और ना जाने कितनी लड़कियों की ज़िन्दगी तेज़ाब से झुलसकर बर्बाद हो चुकी हैं। क्योंकि उस वक़्त अपराधी (चाहे लड़का हो या लड़की) पर एक भूत-जूनून सवार रहता हैं, वो उस वक़्त आगे-पीछे, अच्छा-बुरा कुछ भी नहीं सोचता हैं इसलिए क़ानून चाहे कितना भी सख्त क्यों ना हो जाए, सुनार और शैक्षिक संस्थान चाहे जितना मर्ज़ी गोपनीयता-सख्ताई बरतले तेज़ाब के बढ़ते चलन क़ो सिर्फ और सिर्फ जागरूकता से ही कम (खत्म) किया जा सकता हैं।
.
धन्यवाद।
.
FROM =
CHANDER KUMAR SONI,
L-5, MODEL TOWN, N.H.-15,
SRI GANGANAGAR-335001,
RAJASTHAN, INDIA.
CHANDERKSONI@YAHOO.COM
00-91-9414380969
CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM